ऊपर का बयान पढ़कर हमारे प्रेमी पाठक ताज्जुब करते होंगे कि यह क्या हुआ और क्या लिखा गया। और बातों को जाने दीजिये, मगर अन्त में यह क्या आश्चर्य की बात हो गई कि चुन्नीलाल तिलिस्मी मकान के अन्दर आया और मामूली तौर पर देख-भालकर चला गया, बेचारी किशोरी, कामिनी और तारा की कुछ सुध न ली। खैर सब्र कीजिये और जरा हमारे साथ फिर उस जगह चलिये, जहां श्यामसुन्दर, भगवनिया, भैरोसिंह, कमलिनी, लाडिली, देवीसिंह और भूतनाथ को छोड़ आये हैं।
जिस समय भगवनिया ने कमलिनी को अपने सामने देखा वह बदहवास हो गई, कलेजा कांपने लगा, सांस में रुकावट पैदा हुई और मौत की-सी तकलीफ मालूम होने लगी। उसने चाहा कि कमलिनी के पैरों पर गिरकर अपना कसूर माफ करावे, मगर डर के मारे उसके खून की हरकत बिल्कुल बंद हो गई थी इसलिए वह कुछ भी न कर सकी बल्कि क्रमशः बढ़ते ही जाने वाले खौफ के सबब बेदम होकर पीछे की तरफ जमीन पर गिर पड़ी।
भगवानी की यह अवस्था देखकर कमलिनी को आश्चर्य मालूम हुआ क्योंकि उसने अभी तक श्यामसुन्दरसिंह और भगवानी का हाल कुछ न जाना था। भैंरोसिंह ने भूतनाथ को रोशनी करने के लिए कहकर संक्षेप में वह सब हाल कमलिनी को कह सुनाया जो भगवानी के विषय में श्यामसुन्दरसिंह से सुना था। कमलिनी को हद से ज्यादा क्रोध चढ़ आया मगर वह बुद्धिमान थी और इस बात को खूब समझती थी कि ऐसे मौके पर क्रोध के ऊपर अधिकार न कर लेने से प्रायः तकलीफ और नुकसान हुआ करता है, कहीं ऐसा न हो कि डर के मारे या विशेष धमकाने से भगवानी का दम निकल जाये या वह जिसका दिल और दिमाग बहुत ही कमजोर है पागल हो जाय जैसा कि प्रायः हुआ करता है, तो बड़ी ही मुश्किल होगी और किशोरी, कामिनी तथा तारा का कुछ भी पता न लगेगा।
रोशनी हो जाने पर जब कमलिनी ने भगवानी की सूरत देखी तो मालूम हुआ कि उस पर हद से ज्यादा खौफ पड़ चुका है। आंखें बन्द हैं, चेहरे पर जर्दी छाई हुई है, और बदन कांप रहा है। कमलिनी ने कुछ ऊंची आवाज में कहा, “होश में आ और मेरी बातें सुन, एकदम नाउम्मीद न हो, कदाचित तेरी जान बच जाय!”
इस आवाज ने बेशक अच्छा असर किया जैसा कि कमलिनी ने सोचा था, 'कदाचित तेरी जान बच जाय' यह सुनकर भगवानी ने आंखें खोल दीं! कमलिनी ने फिर कहा, “यद्यपि तूने बहुत बड़ा कसूर किया है मगर मैं वादा करती हूं कि यदि तू झटपट सच्चा-सच्चा हाल कह देगी तो तेरी जान छोड़ दी जायगी।”
अब भगवानी उठ बैठी और अपने को संभालकर हाथ जोड़के कांपती हुई आवाज के साथ बोली, “क्या मेरी जान छोड़ दी जायगी'
कमलिनी - हां, छोड़ दी जायगी यदि तू सच्चा हाल कहकर अपने दोष को स्वीकार कर लेगी और किशोरी, कामिनी तथा तारा का ठीक-ठीक पता बता देगी।
भगवानी - (कमलिनी के पैरों पर गिरकर और फिर खड़ी होकर) बेशक मैं कसूरवार हूं। जो कुछ मैंने किया है मैं साफ कह दूंगी। अफसोस लालच में पड़कर मैंने बहुत बुरा किया था। मुझे शिवदत्त ने धोखा दिया, बिना समझे-बूझे मैं...
कमलिनी - बस - बस, ज्यादा बात बढ़ाने की कोई जरूरत नहीं, जो कुछ कहना है जल्दी से कह दे, विलम्ब होना तेरे लिए अच्छा नहीं है।
भगवानी ने सब हाल अर्थात् जो कुछ उसने कसूर किया था, सच-सच कह दिया और अन्त में फिर कमलिनी के पैरों पर गिरकर बोली, “मैंने कोई बात नहीं छिपाई, अब अपनी प्रतिज्ञानुसार मुझे छोड़ दीजिए।”
“हां, छोड़ दूंगी।” कहकर कमलिनी ने भूतनाथ और श्यामसुन्दरसिंह की तरफ देखा और कहा, “इसकी मुश्कें बांध लो और जहां उचित समझो ले जाकर अपनी हिफाजत में रक्खो। हम लोग मकान की तरफ न जाकर पहले किशोरी, कामिनी और तारा को छुड़ाने का उद्योग करते हैं और इसके बाद जैसा मौका होगा किया जायगा। कल इसी समय इसी जगह हम लोग या हम लोगों में से कोई आवेगा, तुम मौजूद रहना, अगर भगवानी की बात सच निकली तो ठीक है, नहीं तो एक बात भी झूठी निकलने पर कल इसी जगह इसका सिर उतार लिया जायगा। बस अब मैं एक पल भी नहीं रुक सकती।”
भूतनाथ और भगवानी को इसी जगह छोड़ भैरोसिंह, देवीसिंह और लाडिली को साथ लिए हुए कमलिनी वहां से रवाना हुई। इस समय उसके पास तिलिस्मी खंजर मौजूद था, वही तिलिस्मी खंजर जो भैरोसिंह का पत्र पाकर इन्द्रदेव ने उसे दे दिया था।
वहां से थोड़ी दूर पर एक पहाड़ी थी जिससे मिली-जुली छोटी-बड़ी पहाड़ियों का सिलसिला पीछे की तरफ दूर तक चला गया था। कमलिनी अपने साथियों को लिए हुए उसी तरफ रवाना हुई। कमलिनी को अपने मकान के बर्बाद होने और लूटे जाने का इतना रंज न था जितना किशोरी, कामिनी और तारा की अवस्था पर रंज था। वह साथियों से निम्नलिखित बातें करती हुई तेजी से उस पहाड़ी की तरफ जा रही थी।
कमलिनी - अफसोस, तारा ने बड़ा धोखा खाया! अब देखना चाहिए उन तीनों को मैं जीता पाती हूं या नहीं!
लाडिली - किशोरी और कामिनी बेचारी ने न मालूम विधाता का क्या बिगाड़ा है कि सिवा दुःख के सुख तो उन्हें...?
कमलिनी - दुःखों ने तो पहले ही उन्हें अधमरा कर दिया था, अब देखना चाहिए कि कई दिन की भूख-प्यास ने उन्हें जीता भी छोड़ा है या नहीं (रोकर) सच तो यह है कि यदि वे जीती-जागती आज मुझे न मिलीं तो मैं दोनों कुमारों को मुंह दिखाने लायक न रहूंगी और जब इस योग्य हो जाऊंगी तो फिर जीकर ही क्या करूंगी! (कुछ सोचकर) निःसन्देह अगर ऐसा हुआ तो आज मुझे भी उसी जगह मरकर रह जाना होगा। हे ईश्वर, तेरी सृष्टि में एक-से-एक बढ़कर खूबसूरत गुलबूटे मौजूद हैं, इन दोनों के लिए कमी नहीं है, क्या तू नहीं जानता कि उन कुमारों की जिन्दगी के लिए जिनकी प्रसन्नता पर हमारी प्रसन्नता निर्भर है केवल ये ही दोनों हैं अफसोस, यद्यपि कम्बख्त भगवानी से मैं खटकी रहती थी मगर यह आशा न थी, कि वह यहां तक कर गुजरेगी।
भैरोसिंह - क्या आप जानती थीं कि भगवानी दिल की खोटी है?
कमलिनी - मुझे इस बात का निश्चय तो न था कि वह खोटी है। मगर उसके बात-बात पर कसम खाने से मैं खटकी रहती थी, क्योंकि मैं खूब जानती हूं कि जो आदमी लापरवाही के साथ बात-बात पर कसमें खाया करता है, वह वास्तव में झूठा और खोटा होता है। मायारानी की सुहबत के सबब से यदि वह मेरे इस तिलिस्मी मकान के तहखाने के भेद से अनजान रहती तो मैं स्वयं उसे वह भेद कदापि न बताती। तिस पर भी खुटका बना रहने के कारण मैं स्वयं जब ताला खोलकर उस तहखाने और सुरंग में जाती थी तो ताले को जमीन पर नहीं रख देती थी बल्कि कुण्डी में लगाकर ताली अपने पास रख लेती थी जिससे तहखाने या सुरंग में जाने के बाद पीछे से कोई आदमी ताला बन्द करना तो दूर रहा, जंजीर भी न चढ़ा सके।
देवीसिंह - बेशक यह बड़ी चालाकी की बात है। जब खाली कुण्डी में ताला लगा रहेगा तो किसी तरह कोई जंजीर नहीं चढ़ा सकता।
कमलिनी - और यह बात तारा को मालूम थी मगर अफसोस, उसने इस पर कुछ ध्यान न दिया और धोखा खा गई। मैं बहुत दिनों से इस फिक्र में थी कि भगवानी को अच्छी तरह जांच कर खटका मिटा लिया जावे लेकिन इतनी फुरसत ही न मिली। दस दिन निश्चिन्त होकर घर में बैठने की कभी नौबत ही न आई। मगर आश्चर्य की बात है कि भगवानी ने इतनी खोटी होने पर भी हमारे यहां की कोई बात मायारानी के कान तक न पहुंचाई क्योंकि अभी तक कोई ऐसी बात पाई नहीं गई जिसमें मैं समझती कि मेरा फलां भेद मायारानी को मालूम हो गया है।
भैरोसिंह - यह बात कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मौका मिलने पर आदमी की तबीयत यकायक बदल जाय। एक पुरानी मसल चली आती है कि 'आदमी का शैतान आदमी होता है।' इसका मतलब यही है कि चालाक और धूर्त आदमी अपनी लच्छेदार बातों में फंसाकर किसी आदमी की तबीयत को बदल सकता है। मन बड़ा ही चंचल है, इसे स्वाधीन रखना कोई मामूली बात नहीं है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों का सैकड़ों वर्षों का उद्योग भी, जो केवल मन को स्वाधीन करने के विषय में किया गया था, बात-की-बात में वृथा हो चुका है। हां, नेक और बद आदमियों के मन में इतना भेद अवश्य होता है कि भाव बदल जाने या धोखे में पड़कर किसी बुराई के हो जाने पर नेक आदमी तुरत चौकन्ना हो जाता है और सोचता है कि 'बेशक यह काम मुझसे बुरा हो गया' मगर बुरे मनुष्य में जिसने अपने मन पर अधिकार जमाने के लिए कुछ उद्योग न किया हो, यह बात नहीं होती। जो आदमी इस बात को सोचता है कि मन क्या वस्तु है, इसकी चंचलता कैसी है, यह कितनी जल्दी बदल जाने की सामर्थ्य रखता है, या उसे अधिकार में न रखने से क्या-क्या खराबियां हो सकती हैं, उसके हृदय में एक ऐसी ताकत पैदा हो जाती है जिसकी उत्पत्ति तो विचारशक्ति से है मगर यह कहना बहुत कठिन है कि वह स्वयं क्या पदार्थ है। उसका काम यह है कि मन की चंचलता या शिथिलता के कारण यदि कोई बुराई होना चाहती है तो वह विचित्र ढंग से खुटका पैदा कर तुरंत खबर दे देता है कि यह काम बुरा है या तूने बुरा किया। यह विषय बड़ा गम्भीर है, ऐसे समय में अर्थात् राह चलते-चलते इस विषय को स्पष्ट रूप से मैं नहीं दिखा सकता मगर मेरे कहने का मतलब केवल यही है कि आदमी का शैतान आदमी होता है। आदमी अपने हमजिन्स की तबीयत को बेशक बदल सकता है, हां यह बात विचारशक्ति की दृढ़ता और स्थिरता पर निर्भर है कि किसका मन कितनी देर में बदल सकता है। भगवानी औरत की जात है जिनका मन बनिस्बत मर्दों के बहुत कमजोर होता है। ऐसे को यदि तीन धूर्तों की लच्छेदार बातों ने, जो आपके यहां कैद थे, मौका पाकर बदल दिया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं, इससे इस बात को निश्चित तौर पर कह नहीं सकते कि भगवानी अवश्य पहले से ही खोटी थी या पहले अच्छी थी, बीच में खोटी बना दी गई।
कमलिनी - (भैरोसिंह के विचारों से प्रसन्न होकर) बेशक तुम्हारा यह कहना बहुत ठीक है, मैं स्वीकार करती हूं।
देवीसिंह - (भैरोसिह की पीठ मुहब्बत से ठोंककर) शाबाश! मैं यह जानकर प्रसन्न हुआ कि तुम मन की अवस्था को अच्छी तरह से समझते हो, जिसका नतीजा भविष्य में बहुत अच्छा निकलेगा। ईश्वर हमारे उस मनोरथ को पूरा करे जिसके लिए इस समय तेजी और घबराहट के साथ हम लोग जा रहे हैं फिर किसी समय इस विषय पर बहुत-सी बातें मैं तुमसे कहूंगा।
इन लोगों को राह चलने या स्थान खोजने में किसी तरह की कठिनता न हो इसलिए विधाता ने आसमान पर कुदरती माहताबी जला दी थी और वह क्रमशः ऊंची होकर पृथ्वी के इस खण्ड की उन तमाम चीजों को, जो किसी आड़ में न थीं, साफ दिखाई देने में सहायता कर रही थी। यही सबब था कि इन लोगों को उन कठिन रास्तों पर चलने में विशेष कष्ट न हुआ जो बहुत ही पथरीला, खराब और चकाबू के नक्शे की तरह पेचीला था।
पहाड़ियों पर घूम-फिरकर चढ़ते-उतरते हुए ये लोग एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जिसके दोनों तरफ ऊंचे पहाड़ और बीच में एक बारीक पगडण्डी थी जिसके देखने से साफ मालूम होता था कि कारीगरों ने बड़े-बड़े ढोकों को काटकर यह रास्ता तैयार किया होगा। यहां पर कमलिनी और लाडिली घोड़ों पर से उतर पड़ीं, और उन्हें एक पेड़ से बांध आगे की तरफ रवाना हुईं। कमलिनी आगे-आगे जा रही थी, उसके पीछे लाडिली और फिर दोनों ऐयार आश्चर्य से चारों तरफ देखते और यह सोचते हुए जा रहे थे कि निःसन्देह अनजान आदमी जिसे इस रास्ते का हाल मालूम न हो, यहां कदापि नहीं आ सकता।
इस पगडंडी पर दो सौ कदम जाने के बाद साफ पानी से भरा हुआ एक पतला चश्मा मिला जो इन लोगों की राह काटता हुआ दाहिने से बाईं तरफ को बह रहा था। अब कमलिनी उसी नहर के किनारे-किनारे बाईं तरफ जाने लगी, मगर अपनी तेज निगाहें उन छोटे-छोटे जंगली पेड़ों पर बड़ी सावधानी से डालती जाती थी जो उस चश्मे के दोनों किनारे पर बड़ी खूबी और खूबसूरती के साथ खड़े इस समय की ठण्डी-ठण्डी हवा के नर्म झोंकों में नये शराबियों की तरह धीरे-धीरे झूम रहे थे।
यकायक कमलिनी की निगाह एक ऐसे पेड़ पर पड़ी जिसके दोनों तरफ पत्थरों के ढोके इस तौर पर पड़े हुए थे मानो किसी ने जान-बूझकर इकट्ठे किये हों। यहां पर कमलिनी रुकी और कुछ सोचने के बाद अपने साथियों को लिये चश्मे के पार उतर गई जिसके आगे थोड़ी ही दूर जाने के बाद कुछ ढलवां जमीन मिली मगर लाडिली और दोनों ऐयार कमलिनी के पीछे-पीछे चले ही गये। दो सौ कदम से ज्यादा न गये होंगे कि ये लोग एक गुफा के मुहाने पर पहुंचकर रुक गये। कमलिनी ने देवीसिंह से मोमबत्ती जलाने के लिए कहा और जब मोमबत्ती जल चुकी, तो सब उस खोह के अन्दर घुसे। खोह की अवस्था देखने से जाना जाता था कि वर्षों से इसकी जमीन ने किसी आदमी के पैर न चूमे होंगे बल्कि कह सकते हैं कि शायद किसी जंगली जानवर ने भी इसके अन्दर आने का साहस न किया होगा। थोड़ी ही दूर पर खोह का अन्त हुआ और इन लोगों ने अपने सामने लोहे का एक बन्द दरवाजा देखा। कमलिनी ने लाडिली पर एक भेदभरी निगाह डाली और कहा, “इस दरवाजे का हाल राजा गोपालसिंह के सिवाय कोई भी नहीं जानता। मुझे तो खून से लिखी हुई किताब की बदौलत इसका हाल मालूम हुआ है, इसकी चाबी भी इसी जगह मौजूद है।” यह कहकर कमलिनी ने तिलिस्मी खंजर के कब्जे से दरवाजे के दाहिनी तरफ बीचोंबीच की जमीन ठोंकी जो वास्तव में किसी धातु की थी, मगर मुद्दत से काम में न आने के कारण उसका रंग पत्थर के रंग में मिल गया था।
ठोंकने के साथ ही बित्ते भर का एक पल्ला अलग हो गया और उसके अन्दर हाथ डालकर कमलिनी ने कोई पेंच दबाया और इसके साथ ही हल्की आवाज देता हुआ वह दरवाजा खुल गया। कमलिनी ने उस खिड़की को बन्द कर दिया जिसके अन्दर हाथ डालकर पेंच घुमाया था और इसके बाद सभी को लिए दरवाजे के अन्दर चली गई।
दरवाजा खोलने के लिए जिस तरह की चाबी इस तरफ रखी थी उसी तरह की दरवाजे के दूसरी तरफ भी थी अर्थात् दूसरी तरफ भी उसी तरह की ताली और पेंच मौजूद था जिसे घुमाकर कमलिनी ने दरवाजा बन्द किया और साथियों को साथ लिए हुए आगे की तरफ बढ़ी। इन सभी को घंटे भर तक तेजी के साथ जाना पड़ा और इसके बाद मालूम हुआ कि सुरंग के दूसरे मुहाने पर पहुंच गये क्योंकि यहां भी उसी रंग-ढंग का दरवाजा बना हुआ था। कमलिनी ने उस दरवाजे को भी खोला और सभी को साथ लिये हुए अन्दर चली गई। यहां पर रास्ता बंट गया था अर्थात् एक सुरंग बाईं तरफ गई हुई थी और दूसरी दाहिनी तरफ। कमलिनी ने भैरोसिंह और देवीसिंह की तरफ देख के कहा, “मुझे मालूम है कि दाहिनी तरफ जाने से हम लोग उस कोठरी में पहुंचेंगे जिसमें कैदी लोग कैद थे या जो कैदखाने के नाम से पुकारी जाती है, और बाईं तरफ जाने से हम लोग उस सुरंग के बीचोंबीच में पहुंचेंगे जिसमें किशोरी, कामिनी और तारा को भगवनिया ने फंसा रक्खा है। आप लोगों की क्या राय है किधर चलना चाहिए?'
देवीसिंह - हम लोगों को पहले उस सुरंग ही में चलना चाहिए जिससे किशोरी, कामिनी और तारा को जल्द देखें।
इस बात को सभी ने पसन्द किया और कमलिनी ने बाईं तरफ का रास्ता लिया। दो-चार कदम जाने के बाद भैरोसिंह ने कहा, “मैं समझता हूं कि अब बीस-पच्चीस कदम से ज्यादा न चलना होगा और उस ठिकाने पर पहुंच जायंगे, जहां शीघ्र पहुंचने की इच्छा है!”
कमलिनी - यह बात तुमको कैसे मालूम हुई?
भैरोसिंह - (छत और दोनों तरफ की दीवार की तरफ इशारा करके) देखिये छत औैर दीवार नम मालूम होती हैं, कहीं-कहीं पानी की बूंदें भी टपक रही हैं, इससे निश्चित होता है कि इस समय हम लोग तालाब के नीचे पहुंच गये हैं।
कमलिनी ने कहा, “ठीक है, तुम्हारा सबूत ऐसा नहीं है कि कोई काट सके।”
थोड़ी ही दूर आगे जाने के बाद एक छोटी-सी खिड़की मिली। इसका दरवाजा भी उसी ढंग से खुलने वाला था जैसा कि पहला और दूसरा दरवाजा, जिनका हाल हम ऊपर लिख आये हैं। कमलिनी ने दरवाजा खोला।
इस समय इन चारों का कलेजा धक-धक कर रहा था, क्योंकि अब ये लोग किशोरी, कामिनी और तारा की किस्मतों का फैसला देखने वाले थे और उनके दिलों का यह खुटका क्रमशः बढ़ता ही जाता था कि देखें बेचारी किशोरी, कामिनी और तारा को हम लोग किस अवस्था में पाते हैं! कहीं ऐसा न हुआ हो कि वे तीनों भूख-प्यास के दुःख को न सहकर इस दुनिया से कूच कर गई हों और इस समय उनकी लाशें सामने पड़कर हम लोगों को भी दीन-दुनिया के लायक न रक्खें।
यहां पर एक मोमबत्ती और जला ली गई। दरवाजा खुला और ये चारों उसके अन्दर गये। आह, यहां यकायक जमीन पर सामने की तरफ तीन लाशें पड़ी हुई दिखाई दीं जिन पर नजर पड़ते ही कमलिनी के मुंह से एक चीख निकल पड़ी और वह 'हाय' करके उन लोगों के पास जा पहुंची।
ये तीनों लाशें किशोरी, कामिनी और तारा की थीं जो भूख और प्यास की सताई हुई इस अवस्था को पहुंच गई थीं। तारा के बगल में तिलिस्मी नेजा जमीन पर पड़ा हुआ था और उसके जोड़ की अंगूठी उसकी खूबसूरत उंगली में पड़ी हुई थी।
कमलिनी ने सबसे पहले किशोरी के कलेजे पर हाथ रक्खा। कलेजे की धड़कन बन्द थी और शरीर मुर्दे की तरह ठंडा था। कमलिनी की आंखों से आंसू की बूंदें गिरने लगीं, मगर जब उसने किशोरी की नब्ज पर हाथ रक्खा तो इसके साथ ही खुश होकर बोल उठी, “अहा, अभी नब्ज चल रही है! आशा है कि ईश्वर मेरी मेहनत को सफल करेगा!”
कमलिनी ने तारा और कामिनी की भी जांच की। दोनों ऐयारों ने भी सभी को गौर से देखा। किशोरी, कामिनी और तारा तीनों की अवस्था खराब थी, होश-हवास कुछ भी न था, सांस बिल्कुल मालूम नहीं पड़ती थी, हां नब्ज का कुछ-कुछ पता लगता था जो बहुत ही बारीक और सुस्त चल रही थी। यद्यपि यह जानकर सभी को कुछ प्रसन्नता हुई कि ये तीनों अभी जीती हैं मगर फिर भी इन तीनों की अन्तिम अवस्था इस बात का निश्चय नहीं कर सकती थी कि इनकी जान निःसन्देह बच ही जायगी, और यही कारण था कि जिससे कमलिनी, लाडिली, देवीसिंह और भैरोसिंह का कलेजा कांप रहा था और आंखें डबडबाई हुई थीं।
देवीसिंह ने अपने बटुए में से एक शीशी निकाली जिसमें लाल रंग का कोई अर्क था। उसी में से थोड़ा-थोड़ा अर्क उन तीनों के मुंह में (जो पहले ही से खुला हुआ था) डाला और थोड़ी देर बाद फिर नब्ज पर हाथ रक्खा। नब्ज पहले से कुछ तेज मालूम हुई और सांस भी कुछ चलने लगी।
भैरोसिंह - इन तीनों को यहां से बाहर निकालकर मैदान में ले चलना चाहिए क्योंकि जब तक ठण्डी और ताजी हवा न मिलेगी इनकी अवस्था ठीक न होगी!
देवीसिंह - बेशक ऐसा ही है, इस सुरंग की बन्द हवा हमारे इलाज को सफल न होने देगी।
कमलिनी - तो पहले यही काम करना चाहिए।
इतना कहकर कमलिनी ने तारा की उंगली से तिलिस्मी नेजे के जोड़ की अंगूठी निकाल ली और भैरोसिंह को देकर कहा, “इस अंगूठी को तुम पहन लो जिससे इस तिलिस्मी नेजे को अपने पास रख सको, क्योंकि इन तीनों को बाहर ले जाने के बाद लाडिली और देवीसिंह को साथ लेकर थोड़ी देर के लिए मैं तुमसे अलग हो जाऊंगी और किशोरी, कामिनी तथा तारा की हिफाजत के लिए तुम अकेले रह जाओगे।”
“मैं आपका मतलब समझ गया।” कहकर भैरोसिंह ने अंगूठी लेकर अपनी उंगली में पहन ली।
कमलिनी - मेरे इस कहने से तुमने क्या मतलब निकाला मेरा इरादा क्या समझे?
भैरोसिंह - यही कि आप लोग माधवी, मनोरमा और शिवदत्त की शक्लें बनाकर उन दुश्मनों को धोखा देना चाहते हैं क्योंकि वे लोग अभी तक बेहद उथल-पुथल मचाने पर भी आपके मकान के बाहर न हुए होंगे।
कमलिनी - शाबाश! तुम्हारी बुद्धि बड़ी तेज है, बेशक मेरा यही इरादा है।
दो दफा करके हिफाजत के साथ चारों आदमियों ने किशोरी, कामिनी और तारा को सुरंग के बाहर निकाला और देवीसिंह तथा भैरोसिंह बड़ी मुस्तैदी से किशोरी, कामिनी और तारा का इलाज करने लगे। जब कमलिनी को इस बात का निश्चय हो गया कि अब इन तीनों की जान का खौफ नहीं है, तब वह देवीसिंह और लाडिली को साथ लेकर फिर उसी सुरंग से घुसी। अबकी दफा वह कैदखाने वाली कोठरी में गई और वहां कार्रवाई का पूरा मौका पाकर इन तीनों ने माधवी, मनोरमा और शिवदत्त बनकर जो कुछ किया उसका हाल हम ऊपर के बयान में लिख चुके हैं।
पाठक महाशय, अब आप यह तो समझ ही गये होंगे कि दुश्मनों ने खोज-ढूंढ़कर तहखाने में से जिन कैदियों को निकाला, वे वास्तव में माधवी, मनोरमा और शिवदत्त न थे, बल्कि कमलिनी, लाडिली और देवीसिंह थे। खैर, अब इस तरफ आइये और किशोरी, कामिनी तथा तारा का हाल देखिये, जिनकी हिफाजत के लिए केवल भैरोसिंह रह गये थे।
ताकत पहुंचाने वाली दवाओं की बरकत से किशोरी, कामिनी और तारा ने उस समय आंखें खोलीं जब आसमान पर सुबह की सफेदी फैल चुकी थी। पूरब से निकलकर क्रमशः फैल जाने वाली लालिमा रात भर तेजी के साथ चमकने वाले सितारों और उनके सरदार चन्द्रदेव को सूर्यदेव की अवाई की सूचना दे रही थी, और इसी सबब से तारों समेत तारापति भी नौ-दो-ग्यारह होने के उद्योग में लगे हुए थे, तथा भैरोसिंह आसमान की तरफ मुंह किये बड़ी दिलचस्पी के साथ इस शोभा को देख-देखकर सोच रहा था कि “वाह, ईश्वर की भी क्या विचित्र गति है करोड़ों आदमी ऐसे होंगे जो चन्द्रदेव की यह अवस्था देख सूर्यदेव ही के ऊपर इनसे वैर रखने का कलंक लगाते होंगे जिनकी बदौलत चन्द्रमा में रोशनी है और वह खूबसूरती तथा उद्दीपन का मसाला गिना जाता है।”
इस समय भैरोसिंह को यह देखकर कि किशोरी, कामिनी और तारा ने आंखें खोल दी हैं, बड़ी खुशी हुई और उसने समझा कि अब मेरी मेहनत ठिकाने लगी। मगर अफसोस, उसे इस बात की कुछ खबर न थी कि बदकिस्मती ने अभी तक उन लोगों का पीछा नहीं छोड़ा या विधाता अभी भी उन लोगों के अनुकूल नहीं हुआ।

 

 


 

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