एक दिन लक्ष्मीदेवी उस कैदखाने में बैठी हुई अपनी किस्मत पर रो रही थी कि दाहिनी तरफ वाली कोठरी में से एक नकाबपोश को निकलते देखा। लक्ष्मीदेवी ने समझा कि यह वही नकाबपोश है जिसने मेरे बाप की जान बचाई थी मगर तुरन्त ही उसे मालूम हो गया कि यह कोई दूसरा है क्योंकि उसके और इसके डील-डौल में बहुत फर्क था। जब नकाबपोश जंगले के पास आया तब लक्ष्मीदेवी ने पूछा, “तुम कौन हो और यहां क्यों आये हो?'
नकाबपोश - मैं अपना परिचय तो नहीं दे सकता परन्तु इतना कह सकता हूं कि बहुत दिनों से मैं इस फिक्र में था कि इस कैदखाने से किसी तरह तुमको निकाल दूं मगर मौका न मिल सका, आज उसका मौका मिलने पर यहां आया हूं, बस विलम्ब न करो और उठो।
इतना कहकर नकाबपोश ने जंगला खोल दिया।
लक्ष्मीदेवी - और मेरे पिता?
नकाबपोश - मुझे मालूम नहीं कि वे कहां कैद हैं या किस अवस्था में हैं, यदि मुझे उनका पता लग जायगा तो मैं उन्हें भी छुड़ाऊंगा।
यह सुनकर लक्ष्मीदेवी चुप हो रही और कुछ सोच-विचारकर आंखों से आंसू टपकाती हुई जंगले के बाहर निकली। नकाबपोश उसे साथ लिए हुये उसी कोठरी में घुसा जिसमें से स्वयं आया था। अब लक्ष्मीदेवी को मालूम हुआ कि यह एक सुरंग का मुहारा है। बहुत दूर तक नकाबपोश के पीछे जा और कई दरवाजे लांघकर उसे आसमान दिखाई दिया और मैदान की ताजी हवा भी मयस्सर हुई। उस समय नकाबपोश ने पूछा, “कहो अब तुम क्या करोगी और कहां जाओगी?'
लक्ष्मी - मैं नहीं कह सकती कि कहां जाऊंगी और क्या करूंगी बल्कि डरती हूं कि कहीं फिर दारोगा के कब्जे में न पड़ जाऊं, हां यदि तुम मेरे साथ कुछ और भी नेकी करो और मुझे मेरे घर तक पहुंचाने का बन्दोबस्त कर दो तो अच्छा हो।
नकाबपोश - (ऊंची सांस लेकर) अफसोस, तुम्हारा घर बर्बाद हो गया और इस समय वहां कोई नहीं है। तुम्हारी दूसरी मां अर्थात् तुम्हारी मौसी मर गई, तुम्हारी दोनों छोटी बहिनें राजा गोपालसिंह के यहां आ पहुंची हैं और मायारानी को जो तुम्हारे बदले में गोपालसिंह के गले मढ़ी गई है, अपनी सगी बहिन समझकर उसी के साथ रहती हैं।
लक्ष्मी - मैंने तो सुना था कि मेरे बदले में मुन्दर मायारानी बनाई गई है?
नकाब - हां वही मुन्दर अब मायारानी के नाम से प्रसिद्ध हो रही है।
लक्ष्मी - तो क्या मैं अपनी बहिनों से या राजा गोपालसिंह से मिल सकती हूं?
नकाब - नहीं।
लक्ष्मी - क्यों?
नकाब - इसलिए कि अभी महीना भर भी नहीं हुआ कि राजा गोपालसिंह का भी इन्तकाल हो गया। अब तुम्हारी फरियाद सुनने वाला वहां कोई भी नहीं है और यदि तुम वहां जाओगी और मायारानी को कुछ मालूम हो जायगा तो तुम्हारी जान कदापि न बचेगी।
इतना सुनकर लक्ष्मीदेवी अपनी बदकिस्मती पर रोने लगी और नकाबपोश उसे समझाने-बुझाने लगा। अन्त में लक्ष्मीदेवी ने कहा, “अच्छा फिर तुम्हीं बताओ कि मैं कहां जाऊं और क्या करूं?'
नकाब - (कुछ सोचकर) तो तुम मेरे ही घर चलो, मैं तुम्हें अपनी ही बेटी समझूंगा और परवरिश करूंगा।
लक्ष्मी - मगर तुम तो अपना परिचय तक नहीं देते!
नकाब - (ऊंची सांस लेकर) खैर अब तो परिचय देना ही पड़ा और कहना ही पड़ा कि मैं तुम्हारे बाप का दोस्त 'इन्द्रदेव' हूं।
इतना कहकर नकाबपोश ने चेहरे से नकाब उतारी और पूर्ण चन्द्रमा की रोशनी ने उसके चेहरे के हर एक रग-रेशे को अच्छी तरह दिखा दिया। लक्ष्मीदेवी उसे देखते ही पहिचान गई और दौड़कर उसके पैरों पर गिर पड़ी। इन्द्रदेव ने उठाकर उसका सिर छाती से लगा लिया और तब उसे अपने घर ले आकर गुप्त रीति से बड़ी खातिरदारी के साथ अपने यहां रक्खा।
लक्ष्मीदेवी का दिल फोड़े की तरह पका हुआ था। वह अपनी नई जिन्दगी में तरह-तरह की तकलीफें उठा चुकी थी। अब भी वह अपने बाप को खोज निकालने की फिक्र में लगी हुई थी और इसके अतिरिक्त उसका ज्यादा खयाल इस बात पर था कि किसी तरह अपने दुश्मनों से बदला लेना चाहिए। इस विषय पर उसने बहुत कुछ विचार किया और अन्त में यह निश्चय किया कि इन्द्रदेव से ऐयारी सीखनी चाहिए क्योंकि वह खूब जानती थी कि इन्द्रदेव ऐयारी के फन में बड़ा ही होशियार है। आखिर उसने अपने दिल का हाल इन्द्रदेव से कहा और इन्द्रवेद ने भी उसकी राय पसन्द की तथा दिलोजान से कोशिश करके उसे ऐयारी सिखाने लगा। यद्यपि वह दरोगा का गुरुभाई था तथापि दारोगा की करतूतों ने उसे हद से ज्यादा रंजीदा कर दिया था और उसे इस बात की कुछ भी परवाह न थी कि लक्ष्मीदेवी ऐयारी के फन में होशियार होकर दारोगा से बदला लेगी। निःसन्देह इन्द्रदेव ने बड़ी मुस्तैदी के साथ लक्ष्मीदेवी को ऐयारी की विद्या सिखाई, बड़े-बड़े ऐयारों के किस्से सुनाये, एक से एक बढ़े-चढ़े नुस्खे सिखलाये, और ऐयारी के गूढ़ तत्त्वों को उसके दिल में नुक्श (अंकित) कर दिया। थोड़े ही दिनों में लक्ष्मीदेवी पूरी ऐयारा हो गई और इन्द्रदेव की मदद से अपना नाम तारा रखकर मैदान की हवा खाने और दुश्मनों से बदला लेने की फिक्र में घूमने लगी।
लक्ष्मीदेवी ने तारा बनकर जो काम किया सबमें इन्द्रदेव की राय लेती रही और इन्द्रदेव भी बराबर उसकी मदद और खबरदारी करते रहे।
यद्यपि इन्द्रदेव ने लक्ष्मीदेवी की जान बचाई, उसे अपनी लड़की के समान पालकर सब लायक किया, और बहुत दिनों तक अपने साथ रक्खा मगर उनके दो-एक सच्चे प्रेमियों के सिवाय लक्ष्मीदेवी का हाल और किसी को मालूम न हुआ और इन्द्रदेव ने भी किसी को उसकी सूरत तक देखने न दी। इस बीच में पचीसों दफे कम्बख्त दारोगा इन्द्रदेव के घर गया और इन्द्रदेव ने भी अपने दिल का भाव छिपाकर हर तरह से उसकी खातिरदारी की मगर दारोगा तक को इस बात का पता न लगा कि जिस लक्ष्मीदेवी को मैंने कैद किया था वह इन्द्रदेव के घर में मौजूद है और इस लायक हो रही है कि कुछ दिनों के बाद हमीं लोगों से बदला ले।
लक्ष्मीदेवी का तारा नाम इन्द्रदेव ही ने रक्खा था। जब तारा हर तरह से होशियार हो गई और वर्षों की मेहनत से उसकी सूरत-शक्ल में भी बहुत बड़ा फर्क पड़ गया तब इन्द्रदेव ने उसे आज्ञा दी कि तू मायारानी के घर जाकर अपनी बहिन कमलिनी से मिल जो बहुत ही नेक और सच्ची है, मगर अपना असली परिचय न देकर उसके साथ मोहब्बत पैदा कर और ऐसा उद्योग कर कि उसमें और मायारानी में लड़ाई हो जाय और वह उस घर से निकलकर अलग हो जाय, फिर जो कुछ होगा देखा जायगा। केवल इतना ही नहीं, इन्द्रदेव ने उसे एक प्रशंसापत्र भी दिया हुआ था -
“मैं तारा को अच्छी तरह जानत हूं। यह मेरी धर्म की लड़की है। इसका चालचलन बहुत ही अच्छा है और नेक तथा धार्मिक लोगों के लिये यह विश्वास करने योग्य है।”
इन्द्रदेव ने तारा को यह भी कह दिया था कि मेरा यह पत्र सिवाय कमलिनी के और किसी को न दिखाइयो और जब इस बात का निश्चय हो जाये कि वह तुझ पर मुहब्बत रखती है तब उसको एक दफे किसी तरह से मेरे घर ले आइयो, फिर जैसा होगा मैं समझ लूंगा।
आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात् तारा इन्द्रदेव के बल पर निडर होकर मायारानी के महल में चली गई और कमलिनी की नौकरी कर ली। उसे पहिचानना तो दूर रहा किसी को इस बात का शक भी न हुआ कि यह लक्ष्मीदेवी है।
तीन महीने के अन्दर उसने कमलिनी को अपने ऊपर मोहित कर लिया और मायारानी के इतने ऐब दिखाए कि कमलिनी को एक सायत के लिए भी मायारानी के पास रहना कठिन हो गया। जब उसने अपने बारे में तारा से राय ली तब तारा ने उसे इन्द्रदेव से मिलने के लिए कहा और इस बारे में बहुत जोर दिया। कमलिनी ने तारा की बात मान ली और तारा उसे इन्द्रदेव के पास ले आई। इन्द्रदेव ने कमलिनी की बड़ी खातिर की और जहां तक बन पड़ा उसे उभाड़कर खुद इस बात की प्रतिज्ञा की कि, 'यदि तू मेरा भेद गुप्त रक्खेगी तो मैं बराबर तेरी मदद करता रहूंगा।'
उन दिनों तालाब के बीच वाला तिलिस्मी मकान बिल्कुल उजाड़ पड़ा हुआ था और सिवाय इन्द्रदेव के उसका भेद किसी को मालूम न था। इन्द्रदेव ही के बताने से कमलिनी ने उस मकान में अपना डेरा डाला और हर तरह से निडर होकर वहां रहने लगी और इसके बाद जो कुछ हुआ हमारे प्रेमी पाठकों को मालूम ही है या हो जायगा।

 

 


 

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