महाराज की आज्ञानुसार कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह के विवाह की तैयारी बड़ी धूमधाम से हो रही है। यहां से चुनार तक की सड़कें दोनों तरफ जाफरी (पीले फूल) वाली टट्टियों से सजाई गई हैं जिन पर रोशनी की जायगी और जिनके बीच में थोड़ी-थोड़ी दूर पर बड़े फाटक बने हुए हें और उन पर नोबतखाने का इंतजाम किया गया है। टट्टियों के दोनों तरफ बाजार बसाया जायगा जिसकी तैयारी कारिंदे लोग बड़ी खूबी और मुस्तैदी के साथ कर रहे हैं। इसी तरह और भी तरह-तरह के तमाशों का इंतजाम बीच-बीच में हो रहा है जिसके सबब से बहुत ज्यादे भीड़भाड़ होने की उम्मीद है और अभी से तमाशबीनों का जमावड़ा हो रहा है। रोशनी के साथ-साथ आतिशबाजी के इंतजाम में भी बड़ी सरगर्मी दिखाई जा रही है। कोशिश हो रही है कि उम्दी से उम्दी तथा अनूठी आतिशबाजी का तमाशा लोगों को दिखाया जाय। इसी तरह और भी कई तरह के खेल-तमाशे और नाच इत्यादि का बंदोबस्त हो रहा है मगर इस समय हमें इन सब बातों से कोई मतलब नहीं है क्योंकि हम अपने पाठकों को उस तिलिस्मी मकान की तरफ ले चलना चाहते हैं जहां भूतनाथ और देवीसिंह ने नकाबपोशों के फेर में पड़कर शर्मिन्दगी उठाई थी और जहां इस समय दोनों कुमार अपने दादा, पिता तथा और सब आपस वालों को तिलिस्मी तमाशा दिखाने के लिए ले जा रहे हैं।
सुबह का सुहावना समय है और ठंडी हवा चल रही है। जंगली फूलों की खुशबू से मस्त भई सुंदर-सुंदर रंग-बिरंगी खूबसूरत चिड़ियाएं हमारे सर्वगुण संपन्न मुसाफिरों को मुबारकबाद दे रही हैं जो तिलिस्म की सैर करने की नीयत से मीठी-मीठी बातें करते हुए जा रहे हैं।
घोड़े पर सवार महाराज सुरेन्द्रसिंह, राजा वीरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, गोपालसिंह, इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह तथा पैदल तेजसिंह, देवीसिंह, भूतनाथ, पंडित बद्रीनाथ, रामनारायण, पन्नालाल वगैरह अपने ऐयार लोग जा रहे थे। तिलिस्म के अंदर मिले कैदी अर्थात् नकाबपोश लोग तथा भैरोसिंह और तारासिंह इस समय साथ न थे। इस समय देवीसिंह से ज्यादे भूतनाथ का कलेजा उछल रहा था और वह अपनी स्त्री का असली भेद जानने के लिए बेताब हो रहा था। जब से उसे इस बात का पता चला कि वे दोनों सरदार नकाबपोश यही दोनों कुमार हैं तथा उस विचित्र मकान के मालिक भी यही हैं तब से उसके दिल का खुटका कुछ कम तो हो गया मगर खुलासा हाल जानने और पूछने का मौका न मिलने के सबब उसकी बेचैनी दूर नहीं हुई थी। वह यह भी जानता था कि अब उसकी स्त्री का लड़का हरनामसिंह किस फिक्र में है। इस समय जब वह फिर उसी ठिकाने जा रहा था जहां अपनी स्त्री की बदौलत गिरफ्तार होकर अपने लड़के का विचित्र हाल देखा था तब उसका दिल और बेचैन हो उठा, मगर साथ ही इसके उसे इस बात की भी उम्मीद हो रही थी कि अब उसे उसकी स्त्री का हाल मालूम हो जायगा या कुछ पूछने का मौका ही मिलेगा।
ये लोग धीरे-धीरे बातचीत करते हुए उसी खोह या सुरंग की तरफ जा रहे थे। पहर भर से ज्यादे दिन न चढ़ा होगा जब ये लोग उस ठिकाने पहुंच गए। महाराज सुरेन्द्रसिंह और वीरेन्द्रसिंह वगैरह घोड़े से नीचे उतर पड़े, साईसों ने घोड़े थाम लिए और इसके बाद उन सभों ने सुरंग के अंदर पैर रखा। इस सुरंग वाले रास्ते का कुछ खुलासा हाल हम इस संतति के उन्नीसवें भाग में लिख आए हैं जब भूतनाथ यहां आया था, अब पुनः दोहराने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती, हां इतना लिख देना जरूरी जान पड़ता है कि दोनों कुमारों ने सभों को यह बात समझा दी कि यह रास्ता बंद क्योंकर हो सकता है। बंद होने का स्थान वही चबूतरा था जो सुरंग के बीच में पड़ता था।
जिस समय ये लोग सुरंग तै करके मैदान में पहुंचे, सामने वही छोटा बंगला दिखाई दिया जिसका हाल हम पहले लिख चुके हैं। इस समय उस बंगले के आगे वाले दालान में दो नकाबपोश औरतें हाथ में तीरकमान लिए टहलती पहरा दे रही थीं जिन्हें देखते ही खास करके भूतनाथ और देवीसिंह को बड़ा ताज्जुब हुआ और उनके दिल में तरह-तरह की बातें पैदा होने लगीं। भूतनाथ का इशारा पाकर देवीसिंह ने कुंअर इंद्रजीतसिंह से पूछा, “ये दोनों नकाबपोश औरतें कौन हैं जो पहरा दे रही हैं' इसके जवाब में कुमार तो चुप रह गए मगर महाराज सुरेन्द्रसिंह ने कहा, “इसके जानने की तुम लोगों को क्या जल्दी पड़ी हुई है जो कोई होंगी सब मालूम ही हो जायगा!”
इस जवाब ने देवीसिंह और भूतनाथ को देर तक के लिए चुप कर दिया और विश्वास दिला दिया कि महाराज को इसका हाल जरूर मालूम है।
जब उन औरतों ने इन सभों को पहचाना और अपनी तरफ आते देखा तो जंगले के अंदर घुसकर गायब हो गईं, तब तक ये लोग भी उस दालान में जा पहुंचे। इस समय भी यह बंगला उसी हालत में था जैसा कि भूतनाथ और देवीसिंह ने देखा था।
हम पहले लिख चुके हैं और अब भी लिखते हैं कि यह बंगला जैसा बाहर से सादा और साधारण मालूम होता था वैसा अंदर से न था और यह बात दालान में पहुंचने के साथ ही सभों को मालूम हो गई। दालान और दीवारों में निहायत खूबसूरत और आला दर्जे की कारीगरी का नमूना दिखाने वाली तस्वीरों को देखकर सब कोई दंग हो गये और मुसव्वर के हाथों की तारीफ करने लगे। ये तस्वीरें एक निहायत आलीशान इमारत की थीं और उसके ऊपर बड़े-बड़े हरफों में यह लिखा हुआ था –
“यह तिलिस्म चुनारगढ़ के पास ही एक निहायत खूबसूरत जंगल में कायम किया गया है जिसे महाराज सुरेन्द्रसिंह के लड़के वीरेन्द्रसिंह तोड़ेंगे।”
इस तस्वीर को देखते ही सभों को विश्वास हो गया कि वह तिलिस्मी खंडहर जिसमें तिलिस्मी बगुला था और जिस पर इस समय निहायत आलीशान इमारत बनी हुई है पहले इसी सूरत-शक्ल में था, जिसे जमाने के हेर-फेर ने अच्छी तरह बर्बाद करके उजाड़ और भयानक बना दिया। इमारत की उस बड़ी और पूरी तस्वीर के नीचे उसके भीतर वाले छोटे-छोटे टुकड़े भी बनाकर दिखलाए गए थे और उस बगुले की तस्वीर भी बनी हुई थी जिसे राजा वीरेन्द्रसिंह ने बखूबी पहचान लिया और कहा, “बेशक अपने जमाने में यह बहुत अच्छी इमारत थी।”
सुरेन्द्र - यद्यपि आजकल जो इमारत तिलिस्मी खंडहर पर बनी है और जिसके बनवाने में जीतसिंह ने अपनी तबियतदारी और कारीगरी का अच्छा नमूना दिखाया है बुरी नहीं है, मगर हमें इस पहली इमारत का ढंग कुछ अनूठा और सुंदर मालूम पड़ता है।
जीत - बेशक ऐसा ही है। यदि इस तस्वीर को मैं पहले देखे हुए होता तो जरूर इसी ढंग की इमारत बनवाता।
वीरेन्द्र - और ऐसा होने से वह तिलिस्म एक दफे नया मालूम पड़ता।
इंद्र - यह चुनारगढ़ वाला तिलिस्म साधारण नहीं बल्कि बहुत बड़ा है। चुनारगढ़, नौगढ़, विजयगढ़ और जमानिया तक इसकी शाखा फैली हुई है। इस बंगले को इस बहुत बड़े और फैले हुए तिलिस्म का 'केंद्र' समझना चाहिए बल्कि ऐसा भी कह सकते हैं कि यह बंगला तिलिस्म का नमूना है।
थोड़ी देर तक दालान में खड़े इसी किस्म की बातें होती रहीं और इसके बाद सभों को साथ लिए हुए दोनों कुमार बंगले के अंदर रवाना हुए।
सदर दरवाजे का पर्दा उठाकर अंदर जाते ही ये लोग एक गोल कमरे में पहुंचे जो भूतनाथ और देवीसिंह का देखा हुआ था। इस गोल और गुम्बजदार खूबसूरत कमरे की दीवारों पर जंगल, पहाड़ और रोहतासगढ़ की तस्वीरें बनी हुई थीं। घड़ी-घड़ी तारीफ न करके एक ही दफे लिख देना ठीक होगा कि इस बंगले में जितनी तस्वीरें देखने में आईं सभी आला दर्जे की कारीगरी का नमूना थीं और यही मालूम होता था कि आज ही बनकर तैयार हुई हैं। इस रोहतासगढ़ की तस्वीर को देखकर सब कोई बड़े प्रसन्न हुए और राजा वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की तरफ देखकर कहा, “रोहतासगढ़ किले और पहाड़ी की बहुत ठीक और साफ तस्वीर बनी हुई है।”
तेज - जंगल भी उसी ढंग का बना हुआ है, कहीं-कहीं से ही फर्क मालूम पड़ता है, नहीं तो बाज जगहें तो ऐसी बनी हुई हैं जैसी मैंने अपनी आंखों से देखी हैं। (उंगली का इशारा करके) देखिए यह वह कब्रिस्तान है जिस राह से हम लोग रोहतासगढ़ के तहखाने में घुसे थे। हां यह देखिए बारीक हरफों में लिखा हुआ भी है - “तहखाने में जाने का बाहरी फाटक।”
इंद्र - इस तस्वीर को अगर गौर से देखेंगे तो वहां का बहुत ज्यादे हाल मालूम होगा। जिस जमाने में यह इमारत तैयार हुई थी उस जमाने में वहां की और उसके चारों तरफ की जैसी अवस्था थी वैसी ही इस तस्वीर में दिखाई है, आज चाहे कुछ फर्क पड़ गया हो!
तेज - बेशक ऐसा ही है।
इंद्र - इसके अतिरिक्त एक और ताज्जुब की बात अर्ज करूंगा।
वीरेन्द्र - वह क्या?
इंद्र - इसी दीवार में से वहां (रोहतासगढ़) जाने का रास्ता भी है!
सुरेन्द्र - वाह-वाह! क्या तुम इस रास्ते को खोल भी सकते हो?
इंद्र - जी हां, हम लोग इसमें बहुत दूर तक जाकर घूम आये हैं।
सुरेन्द्र - यह भेद तुम्हें क्योंकर मालूम हुआ?
इंद्र - उसी 'रक्तग्रंथ' की बदौलत हम दोनों भाइयों को इन सब जगहों का हाल और भेद पूरा-पूरा मालूम हो चुका है। यदि आज्ञा हो तो दरवाजा खोलकर मैं आपको रोहतासगढ़ के तहखाने में ले जा सकता हूं। वहां के तहखाने में भी एक छोटा-सा तिलिस्म है जो इसी बड़े तिलिस्म से संबंध रखता है और हम लोग उसे खोल या तोड़ भी सकते हैं परंतु अभी तक ऐसा करने का इरादा नहीं किया।
सुरेन्द्र - उस रोहतासगढ़ वाले तिलिस्म के अंदर क्या चीज है?
इंद्र - उसमें केवल अनूठे अद्भुत आश्चर्य गुण वाले हरबे रखे हुए हैं, उन्हीं हरबों पर वह तिलिस्म बंधा है। जैसा तिलिस्मी खंजर हम लोगों के पास है या जैसे तिलिस्मी जिरःबख्तर और हरबों की बदौलत राजा गोपालसिंह ने कृष्णाजिन्न का रूप धरा था वैसे हरबों और असबाबों का तो वहां ढेर लगा हुआ है, हां खजाना वहां कुछ भी नहीं है।
सुरेन्द्र - ऐसे अनूठे हरबे खजाने से क्या कम हैं?
जीत - बेशक! (इंद्रजीत से) जिस हिस्से को तुम दोनों भाइयों ने तोड़ा है उसमें भी तो ऐसे अनूठे हरबे होंगे?
इंद्र - जी हां मगर बहुत कम हैं।
वीरेन्द्र - अच्छा यदि ईश्वर की कृपा हुई तो फिर किसी मौके पर इस रास्ते से रोहतासगढ़ जाने का इरादा करेंगे। (मकान की सजावट और परदों की तरफ देखकर) क्या यह सब सामान कन्दील, पर्दे और बिछावन वगैरह तुम लोग तिलिस्म के अंदर से लाये थे?
इंद्र - जी नहीं, जब हम लोग यहां आए तो इस बंगले को इसी तरह सजा-सजाया पाया और तीन-चार आदमियों को भी देखा जो इस बंगले की हिफाजत और मेरे आने का इंतजार कर रहे थे।
सुरेन्द्र - (ताज्जुब से) वे लोग कौन थे और अब कहां हैं?
इंद्र - दरियाफ्त करने पर मालूम हुआ कि वे लोग इंद्रदेव के मुलाजिम थे जो इस समय अपने मालिक के पास चले गये हैं। इस तिलिस्म का दारोगा असल में इंद्रदेव है, और आज के पहले भी इसी के बुजुर्ग लोग दारोगा होते आये हैं।
सुरेन्द्र - यह तुमने बड़ी खुशी की बात सुनाई, मगर अफसोस यह है कि इंद्रदेव ने हमें इन बातों की कुछ भी खबर न की।
आनंद - अगर इंद्रदेव ने इन सब बातों को आपसे छिपाया तो यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है, तिलिस्मी कायदे के मुताबिक ऐसा होना ही चाहिए था।
सुरेन्द्र - ठीक है, तो मालूम होता है कि यह सब सामान तुम्हारी खातिरदारी के लिए इंद्रदेव की आज्ञानुसार किया गया है।
आनंद - जी हां, उसके आदमियों की जुबानी मैंने भी यही सुना है।
इसके बाद बड़ी देर तक ये लोग इन तस्वीरों को देखते और ताज्जुब भरी बातें करते रहे और फिर आगे की तरफ बढ़े। जब पहले भूतनाथ और देवीसिंह यहां आए थे तब हम लिख चुके हैं कि इस कमरे में सदर दरवाजे के अतिरिक्त और भी तीन दरवाजे थे - इत्यादि। अस्तु उन दोनों ऐयारों की तरह इस समय भी सभों को साथ लिए हुए दोनों कुमार दाहिनी तरफ वाले दरवाजे के अंदर गये और घूमते हुए उसी तरह बड़े और आलीशान कमरे में पहुंचे जिसमें पहले भूतनाथ और देवीसिंह ने पहुंचकर आश्चर्य का तमाशा देखा था।
इस आलीशान कमरे की तस्वीरें खूबी और खूबसूरती में सब तस्वीरों से बढ़ी-चढ़ी थीं तथा दीवारों पर जंगल, मैदान, पहाड़, खोह, दर्रे, झरने, शिकारगाह तथा शहरपनाह, किले, मोर्चे और लड़ाई इत्यादि की तस्वीरें लगी हुई थीं जिन्हें सब कोई गौर और ताज्जुब के साथ देखने लगे।
सुरेन्द्र - (एक किले की तरफ इशारा करके) यह तो चुनारगढ़ की तस्वीर है।
इंद्रजीत - जी हां, (उंगली का इशारा करके) और यह जमानिया के किले तथा खास बाग की तस्वीर है। इसी दीवार में से वहां जाने का भी रास्ता है। महाराज सूर्यकान्त के जमाने में उनके शिकारगाह और जंगल की यह सूरत थी।
वीरेन्द्र - और यह लड़ाई की तस्वीर कैसी है इसका क्या मतलब है?
इंद्रजीत - इन तस्वीरों में बड़ी कारीगरी खर्च की गई है। महाराज सूर्यकांत ने अपनी फौज को जिस तरह की कवायद और व्यूह-रचना इत्यादि का ढंग सिखाया था वे सब बातें इन तस्वीरों में भरी हुई हैं। तरकीब करने से ये सब तस्वीरें चलती-फिरती और काम करती नजर आएंगी और साथ ही इसके फौजी बाजा भी बजता हुआ सुनाई देगा अर्थात् इन तस्वीरों में जितने बाजे वाले हैं वे सब भी अपना-अपना काम करते हुए मालूम पड़ेंगे। परंतु इस तमाशे का आनंद रात को मालूम पड़ेगा दिन को नहीं। इन्हीं तस्वीरों के कारण इस कमरे का नाम 'व्यूह-मंडल' रखा गया है, वह देखिए ऊपर की तरफ बड़े हरफों में लिखा हुआ है।
सुरेन्द्र - यह बहुत अच्छी कारीगरी है। इस तमाशे को हम जरूर देखेंगे बल्कि और भी कई आदमियों को दिखाएंगे।
इंद्र - बहुत अच्छा, रात हो जाने पर मैं इसका बंदोबस्त करूंगा, तब तक आप और चीजों को देखें।
ये लोग जिस दरवाजे से इस कमरे में आये थे उसके अतिरिक्त एक दरवाजा और भी था जिस राह से सभों को लिए दोनों कुमार दूसरे कमरे में पहुंचे। इस कमरे की दीवार बिल्कुल साफ थी अर्थात् उस पर किसी तरह की तस्वीर बनी हुई न थी। कमरे के बीचों-बीच दो चबूतरे संगमर्मर के बने हुए थे जिनमें एक खाली था और दूसरे चबूतरे के ऊपर सफेद पत्थर की एक खूबसूरत पुतली बैठी हुई थी। इस जगह पर ठहरकर कुंअर इंद्रजीतसिंह ने अपने दादा और पिता की तरफ देखा और कहा, “नकाबपोशों की जुबानी हम लोगों का तिलिस्मी हाल जो कुछ आपने सुना है वह तो याद ही होगा, अस्तु हम लोग पहली दफे तिलिस्म से बाहर निकलकर जिस सुहावनी घाटी में पहुंचे थे वह यही स्थान है इसी चबूतरे के अंदर से हम लोग बाहर हुए थे। उस 'रक्तग्रंथ' की बदौलत हम दोनों भाई यहां तक तो पहुंच गए मगर उसके बाद इस चबूतरे वाले तिलिस्म को खोल न सके, हां इतना जरूर है कि उस 'रक्तग्रंथ' की बदौलत इस चबूतरे में से (जिस पर एक पुतली बैठी हुई थी उसकी तरफ इशारा करके) एक दूसरी किताब हाथ लगी जिसकी बदौलत हम लोगों ने इस चबूतरे वाले तिलिस्म को खोला और उसी राह से आपकी सेवा में जा पहुंचे।
आप सुन चुके हैं कि जब हम दोनों भाई राजा गोपालसिंह को मायारानी की कैद से छुड़ाकर जमानिया के खास बाग वाले देवमंदिर में गये थे तब वहां पहले आनंदसिंह तिलिस्म के फंदे में फंस गये थे, उन्हें छुड़ाने के लिए जब मैं भी उसी गड्ढे या कुएं में कूद पड़ा तो चलता-चलता एक दूसरे बाग में पहुंचा जिसके बीचों-बीच में एक मंदिर था। उस मंदिर वाले तिलिस्म को जब मैंने तोड़ा तो वहां एक पुतली के अंदर कोई चमकती हुई चीज मुझे मिली।”
वीरेन्द्र - हां हमें याद है, उस मूरत को तुमने उखाड़कर किसी कोठरी के अंदर फेंक दिया था और वह फूटकर चूने की कली की तरह हो गई थी। उसी के पेट में से...।
इंद्र - जी हां!
सुरेन्द्र - तो वह चमकती हुई चीज क्या थी और वह कहां है?
इंद्र - वह हीरे की बनी हुई एक चाभी थी जो अभी तक मेरे पास मौजूद है, (जेब में से निकालकर महाराज को दिखाकर) देखिये यही ताली इस पुतली के पेट में लगती है।
सभों ने उस चाभी को गौर से देखा और इंद्रजीतसिंह ने सभों के देखते-देखते उस चबूतरे पर बैठी हुई पुतली की नाभी में वह ताली लगाई। उसका पेट छोटी अलमारी के पल्ले की तरह खुल गया।
इंद्र - बस इसी में से वह किताब मेरे हाथ लगी जिसकी बदौलत वह चबूतरे वाला तिलिस्म खोला।
सुरेन्द्र - अब वह किताब कहां है?
इंद्र - आनंदसिंह के पास मौजूद है।
इतना कहकर इंद्रजीतसिंह ने आनंदसिंह की तरफ देखा और उन्होंने एक छोटी-सी किताब जिसके अक्षर बहुत बारीक थे महाराज के हाथ में दे दी। किताब भोजपत्र की थी जिसे महाराज ने बड़े गौर से देखा और दो-तीन जगहों से कुछ पढ़कर आनंदसिंह के हाथ में देते हुए कहा, “इसे निश्चिंती में एक दफे पढ़ेंगे।”
इंद्र - यह पुतली वाला चबूतरा उस तिलिस्म में घुसने का दरवाजा है।
इतना कहकर इंद्रजीतसिंह ने उस पुतली के पेट में (जो खुल गया था) हाथ डाल के कोई पेंच घुमाया जिससे चबूतरे के दाहिने तरफ वाली दीवार किवाड़ के पल्ले की तरह धीरे-धीरे खुलकर जमीन के साथ सट गई और नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां दिखाई देने लगीं। इंद्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खंजर हाथ में लिया और उसका कब्जा दबाकर रोशनी करते हुए चबूतरे के अंदर घुसे तथा सभों को अपने पीछे आने के लिए कहा। सभों के पीछे आनंदसिंह तिलिस्मी खंजर की रोशनी करते हुए चबूतरे के अंदर घुसे। लगभग पंद्रह-बीस चक्करदार सीढ़ियों से नीचे उतरने के बाद ये लोग एक बहुत बड़े कमरे में पहुंचे जिसमें सोने-चांदी के सैकड़ों बड़े-बड़े हण्डे, अशर्फियों और जवाहिरात से भरे पड़े हुए थे जिसे सभों ने बड़े गौर और ताज्जुब के साथ देखा और महाराज ने कहा, “इस खजाने का अंदाज करना भी मुश्किल है।”
इंद्र - जो कुछ खजाना इस तिलिस्म के अंदर मैंने देखा और पाया है उसका यह पासंग भी नहीं है। उसे बहुत जल्द ऐयार लोग आपके पास पहुंचावेंगे। उन्हीं के साथ-साथ कई चीजें दिल्लगी की भी हैं जिनमें एक चीज वह भी है जिसकी बदौलत हम लोग एक दफे हंसते-हंसते दीवार के अंदर कूद पड़े और मायारानी के हाथ में गिरफ्तार हो गए थे।
जीत - (ताज्जुब से) हां! अगर वह चीज शीघ्र बाहर निकाल ली जाय तो (सुरेन्द्रसिंह से) कुमारों की शादी में सर्वसाधारण को उसका तमाशा दिखाया जा सकता है।
सुरेन्द्र - बहुत अच्छी बात है, ऐसा ही होगा।
इंद्र - इस तिलिस्म में घुसने के पहले ही मैंने सभों का साथ छोड़ दिया अर्थात् नकाबपोशों को (कैदियों को) बाहर ही छोड़कर केवल हम दोनों भाई इसके अंदर घुसे और काम करते हुए धीरे-धीरे आपकी सेवा में जा पहुंचे।
सुरेन्द्र - तो शायद इसी तरह हम लोग भी सब तमाशा देखते हुए उसी चबूतरे की राह बाहर निकलेंगे?
जीत - मगर क्या उन चलती-फिरती तस्वीरों का तमाशा न देखिएगा?
सुरेन्द्र - हां ठीक है उस तमाशे को तो जरूर देखेंगे।
इंद्र - तो अब यहां से लौट चलना चाहिए क्योंकि इस कमरे के आगे बढ़कर फिर आज ही लौट आना कठिन है, इसके अतिरिक्त अब दिन भी थोड़ा रह गया है, संध्यावंदन और भोजन इत्यादि के लिए भी समय चाहिए और फिर उन तस्वीरों का तमाशा भी कम से कम चार-पांच घंटे में पूरा होगा।
सुरेन्द्र - क्या हर्ज है, लौट चलो।
महाराज की आज्ञानुसार सब कोई वहां से लौटे और घूमते हुए बंगले के बाहर निकल आये, देखा तो वास्तव में दिन बहुत कम रह गया था।