जरूरी कामों से छुट्टी पाकर ऐयारों ने रसोई बनाई क्योंकि इस बंगले में खाने-पीने की सभी चीजें मौजूद थीं और सभों ने खुशी-खुशी भोजन किया। इसके बाद सब कोई उसी कमरे में आकर बैठे जिसमें रात को चलती-फिरती तस्वीरों का तमाशा देखा था। इस समय भी सभी की निगाहें ताज्जुब के साथ उन्हीं तस्वीरों पर पड़ रही थीं।
सुरेन्द्र - मैं बहुत गौर कर चुका मगर अभी तक समझ में न आया कि इन तस्वीरों में किस तरह की कारीगरी खर्च की गई है जो ऐसा तमाशा दिखाती हैं। अगर मैं अपनी आंखों से इस तमाशे को देखे हुए न होता और कोई गैर आदमी मेरे सामने ऐसे तमाशे का जिक्र करता तो मैं उसे पागल समझता मगर स्वयं देख लेने पर भी विश्वास नहीं होता कि दीवार पर लिखी तस्वीरें इस तरह काम करेंगी।
जीत - बेशक ऐसी ही बात है। इतना देखकर भी किसी के सामने यह कहने का हौसला न होगा कि मैंने ऐसा तमाशा देखा था और सुनने वाला भी कभी विश्वास न करेगा।
ज्योति - आखिर तिलिस्म है, इसमें सभी बातें आश्चर्य की दिखाई देंगी।
जीत - चाहे तिलिस्म हो मगर इसके बनाने वाले तो आदमी ही थे। जो बात मनुष्य के किये नहीं हो सकती वह तिलिस्म में भी नहीं दिखाई दे सकती।
गोपाल - आपका कहना बहुत ठीक है, तिलिस्म की बातें चाहे कैसा ही ताज्जुब पैदा करने वाली क्यों न हों मगर गौर करने से उनकी कारीगरी का पता लग ही जायगा। यह आपने बहुत ठीक कहा कि आखिर तिलिस्म के बनाने वाले भी तो मनुष्य ही थे!
वीरेन्द्र - जब तक समझ न आवे तब तक उसे चाहे कोई जादू कहे या करामात कहे मगर हम लोग सिवाय कारीगरी के कुछ भी नहीं कह सकते और पता लगाने तथा भेद मालूम हो जाने पर यह बात सिद्ध हो ही जाती है। इन चित्रों की कारीगरी पर भी अगर गौर किया जायगा तो कुछ न कुछ पता लग ही जायगा, ताज्जुब नहीं कि इंद्रजीतसिंह को इसका भेद मालूम हो।
सुरेन्द्र - बेशक इंद्रजीत को इसका भेद मालूम होगा। (इंद्रजीतसिंह की तरफ देखकर) तुमने किस तरकीब से इन तस्वीरों को चलाया था?
इंद्र - (मुस्कराते हुए) मैं आपसे अर्ज करूंगा और यह भी बताऊंगा कि इसमें भेद क्या है। मालूम हो जाने पर आप इसे एक साधारण बात समझेंगे। पहली दफे जब मैंने इस तमाशे को देखा था तो मुझे भी बड़ा ही ताज्जुब हुआ था मगर तिलिस्मी किताब की मदद से जब मैं इस दीवार के अंदर पहुंचा तो सब भेद खुल गया।
सुरेन्द्र - (खुश होकर) तब तो हम लोग बेफायदे परेशान हो रहे हैं और इतना सोच-विचार कर रहे हैं, तुम अब तक चुप क्यों थे?
गोपाल - ऐयारों की तबीयत देख रहे थे।
सुरेन्द्र - खैर बताओ तो सही कि इसमें क्या कारीगरी है?
इतना सुनते ही इंद्रजीतसिंह उठकर उस दीवार के पास चले गये और सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर बोले, “आप जरा तकलीफ कीजिए तो मैं इस भेद को समझा दूं!”
महाराज सुरेन्द्रसिंह उठकर कुमार के पास चले गये और उनके पीछे-पीछे और लोग भी वहां जाकर खड़े हो गये। इंद्रजीतसिंह ने दीवार पर हाथ फेरकर सुरेन्द्रसिंह से कहा, “देखिये असल में इस दीवार पर किसी तरह की चित्रकारी या तस्वीर नहीं है, दीवार साफ है और वास्तव में शीशे की है, तस्वीरें जो दिखाई देती हैं वे इसके अंदर और दीवार से अलग हैं।”
कुमार की बात सुनकर सभों ने ताज्जुब के साथ दीवार पर हाथ फेरा और जीतसिंह ने खुश होकर कहा - “ठीक है, अब हम इस कारीगरी को समझ गए! ये तस्वीरें अलग-अलग किसी धातु के टुकड़ों पर बनी हुई हैं और ताज्जुब नहीं तार या कमानी पर जड़ी हों, किसी तरह की शक्ति पाकर उस तार या कमानी की हरकत होती है और उस समय ये तस्वीरें चलती हुई दिखाई देती हैं।”
इंद्र - बेशक यही बात है, देखिए अब मैं इन्हें फिर चलाकर आपको दिखाता हूं और इसके बाद दीवार के अंदर ले चलकर सब भ्रम दूर कर दूंगा।
इस दीवार में जिस जगह जमानिया के किले की तस्वीर बनी थी उसी जगह किले के बुर्ज के ठिकाने पर कई सूराख भी दिखाये गये थे जिनमें से एक छेद (सूराख) वास्तव में सच्चा था पर वह केवल इतना ही लंबा-चौड़ा था कि एक मामूली खंजर का हिस्सा उसके अंदर आ सकता था। इंद्रजीतसिंह ने कमर से तिलिस्मी खंजर निकालकर उसके अंदर डाल दिया और महाराज सुरेन्द्रसिंह तथा जीतसिंह की तरफ देखकर कहा, “इस दीवार के अंदर जो पुर्जे बने हैं वे बिजली का असर पहुंचते ही चलने-फिरने या हिलने लगते हैं। इस तिलिस्मी खंजर में आप जानते ही हैं कि पूरे दर्जे की बिजली भरी हुई है, अस्तु उन पुर्जों के साथ इनका संयोग होने ही से काम हो जाता है।
इतना कहकर इंद्रजीतसिंह चुपचाप खड़े हो गये और सभों ने बड़े गौर से उन तस्वीरों को देखना शुरू किया बल्कि महाराज सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, तेजसिंह और राजा गोपालसिंह ने तो कई तस्वीरों के ऊपर हाथ भी रख दिया। इतने ही में दीवार चमकने लगी और इसके बाद तस्वीरों ने वही रंगत पैदा की जो हम ऊपर बयान में लिख आये हैं। महाराज और राजा गोपालसिंह वगैरह ने जो अपना हाथ तस्वीरों पर रख दिया था वह ज्यों का त्यों बना रहा और तस्वीरें उनके हाथों के नीचे से निकलकर इधर-से-उधर आने-जाने लगीं जिसका असर उनके हाथों पर कुछ भी नहीं होता था, इस सबब से सभों को निश्चय हो गया कि उन तस्वीरों का इस दीवार से कोई संबंध नहीं। इस बीच में कुंअर इंद्रजीतसिंह ने अपना तिलिस्मी खंजर दीवार के अंदर से खींच लिया। उसी समय दीवार का चमकना बंद हो गया और तस्वीरें जहां की तहां खड़ी हो गईं अर्थात् जो जितनी चल चुकी थी उतनी ही चलकर रुक गई। दीवार पर गौर करने से मालूम होता था कि तस्वीरें पहले ढंग की नहीं बल्कि दूसरे ही ढंग की बनी हुई हैं।
जीत - यह भी बड़े मजे की बात है, लोगों को तस्वीरों के विषय में धोखा देने और ताज्जुब में डालने के लिए इससे बढ़कर कोई खेल हो नहीं सकता।
तेज - जी हां, एक दिन में पचासों तरह की तस्वीरें इस दीवार पर लोगों को दिखा सकते हैं, पता लगना तो दूर रहा गुमान भी नहीं हो सकता कि यह क्या मामला है और ऐसी अनूठी तस्वीरें नित्य क्यों बन जाती हैं।
सुरेन्द्र - बेशक यह खेल मुझे अच्छा मालूम हुआ, परंतु अब इन तस्वीरों को ठीक अपने ठिकाने पर पहुंचाकर छोड़ देना चाहिए।
“बहुत अच्छा” कहकर इंद्रजीतसिंह आगे बढ़ गये और पुनः तिलिस्मी खंजर उसी सूराख में डाल दिया जिससे उसी तरह दीवार चमकने और तस्वीरें चलने लगीं। ताज्जुब के साथ लोग उसका तमाशा देखते रहे। कई घंटे के बाद जब तस्वीरों की लीला समाप्त हुई और एक विचित्र ढंग के खटके की आवाज आई तब इंद्रजीतसिंह ने दीवार के अंदर से तिलिस्मी खंजर निकाल लिया और दीवार का चमकना भी बंद हो गया।
इस तमाशे से छुट्टी पाकर महाराज सुरेन्द्रसिंह ने इंद्रजीतसिंह की तरफ देखा और कहा, “अब हम लोगों को इस दीवार के अंदर ले चलो।”
इंद्र - जो आज्ञा, पहले बाहर से जांच कर आप अंदाजा कर लें कि यह दीवार कितनी मोटी है।
सुरेन्द्र - इसका अंदाज हमें मिल चुका है, दूसरे कमरे में जाने के लिए इसी दीवार में जो दरवाजा है उसकी मोटाई से पता लग जाता है जिस पर हमने गौर किया है।
इंद्र - अच्छा तो अब एक दफे आप पुनः उसी दूसरे कमरे में चलें क्योंकि इस दीवार के अंदर जाने का रास्ता उधर ही से है।
इंद्रजीतसिंह की बात सुन महाराज सुरेन्द्रसिंह तथा सब कोई उठ खड़े हुए और कुमार के साथ पुनः उसी कमरे में गये जिसमें दो चबूतरे बने हुए थे।
इस कमरे में तस्वीर वाले कमरे की तरफ जो दीवार थी उसमें एक अलमारी का निशान दिखाई दे रहा था और उसके बीचोंबीच में लोहे की एक खूंटी गड़ी हुई थी जिसे इंद्रजीतसिंह ने उमेठना शुरू किया। तीस-पैंतीस दफे उमेठकर अलग हो गए और दूर खड़े होकर उस निशान की तरफ देखने लगे। थोड़ी देर बाद वह अलमारी हिलती हुई मालूम पड़ी और यकायक उसके दोनों पल्ले दरवाजे की तरह खुल गए। साथ ही उसके अंदर से दो औरतें निकलती हुई दिखाई पड़ीं जिनमें एक भूतनाथ की स्त्री थी और दूसरी देवीसिंह की स्त्री चंपा। दोनों औरतों पर निगाह पड़ते ही भूतनाथ और देवीसिंह चमक उठे और उनके ताज्जुब की कोई हद न रही, साथ ही इसके दोनों ऐयारों को क्रोध भी चढ़ आया और लाल-लाल आंख करके उन औरतों की तरफ देखने लगे। उन्हीं के साथ ही साथ और लोगों ने भी ताज्जुब के साथ उन औरतों को देखा।
इस समय उन दोनों औरतों का चेहरा नकाब से खाली था मगर भूतनाथ और देवीसिंह को देखते ही उन दोनों ने आंचल से अपना चेहरा छिपा लिया और पलटकर पुनः उसी अलमारी के अंदर जा लोगों की निगाह से गायब हो गईं। उनकी इस करतूत ने भूतनाथ और देवीसिंह के क्रोध को और भी बढ़ा दिया।

 

 


 

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