तीसरे दिन पुनः दरबार हुआ और कैदी लोग लाकर हाजिर किए गए। महाराज सुरेन्द्रसिंह का लिखाया हुआ फैसला सभों के सामने तेजसिंह ने पढ़कर सुनाया। सुनते ही कम्बख्त दारोगा, जैपाल, हरनामसिंह वगैरह रोने-कलपने-चिल्लाने और महाराज से कहने लगे कि इसी जगह हम लोगों का सिर काट लिया जाय या जो चाहें महाराज सजा दें मगर हम लोगों को गोपालसिंह के हवाले न करें।
कैदियों ने बहुत सिर पीटा मगर उनकी कुछ न सुनी गई, जो कुछ महाराज ने फैसला किया था उसी मुताबिक कार्रवाई की गई और इस फैसले को सभों ने पसंद किया।
इन सब कामों से छुट्टी पाने के बाद एक बहुत बड़ा जलसा किया गया और कई दिनों तक खुशी मनाने के बाद सब कोई बिदा कर दिये गये। राजा गोपालसिंह कैदियों को साथ लेकर जमानिया चले गए, लक्ष्मीदेवी उनके साथ गई और तेजसिंह तथा और भी बहुत आदमी महाराज की तरफ से उनको पहुंचाने के लिए साथ गए। जब वे लौट आए तब औरतों को साथ लेकर राजा वीरेन्द्रसिंह, इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह वगैरह पुनः तिलिस्म में गए और उन्हें तिलिस्म की खूब सैर कराई। कुछ दिन बाद रोहतासगढ़ के तहखाने की भी उन लोगों को सैर कराई और फिर सब कोई हंसी-खुशी से दिन बिताने लगे।
प्रेमी पाठक महाशय, अब इस उपन्यास में मुझे सिवाय इसके और कुछ कहना नहीं है कि भूतनाथ ने प्रतिज्ञानुसार अपनी जीवनी लिखकर दरबार में पेश की और महाराज ने पढ़-सुनकर उसे खजाने में रख दिया। इस उपन्यास का भूतनाथ की खास जीवनी से कोई संबंध न था इसलिए इसमें वह जीवनी नत्थी न की गई। हां खास-खास भेद जो भूतनाथ से संबंध रखते थे खोल दिए गए, तथापि भूतनाथ की जीवनी जिसे चंद्रकान्ता संतति का उपसंहार भाग भी कह सकेंगे स्वतंत्र रूप से लिखकर अपने प्रेमी पाठकों की नजर करूंगा, मगर इसके बदले में अपने प्रेमी पाठकों से इतना जरूर कहूंगा कि इस उपन्यास में जो कुछ भूल-चूक रह गई हो और जो भेद रह गये हों वह मुझे अवश्य बतावें जिससे “भूतनाथ की जीवनी” लिखते समय उन पर ध्यान रहे, क्योंकि इतने बड़े उपन्यास में मेरे ऐसे अनजान आदमी से किसी तरह की त्रुटि का रह जाना कोई आश्चर्य नहीं है।
प्रिय पाठक महाशय, अब चंद्रकान्ता संतति की लेख-प्रणाली के विषय में भी कुछ कहने की इच्छा होती है।
जिस समय मैंने चंद्रकान्ता लिखनी आरंभ की थी उस समय कविवर प्रताप नारायण मिश्र और पंडितवर अम्बिकादत्त व्यास जैसे धुरंधर किंतु अनुद्धत सुकवि और सुलेखक विद्यमान थे, तथा राजा शिवप्रसाद, राजा लक्ष्मणसिंह जैसे सुप्रतिष्ठित पुरुष हिंदी की सेवा करने में अपना गौरव समझते थे, परंतु अब न वैसे मार्मिक कवि हैं और न वैसे सुलेखक। उस समय हिंदी के लेखक थे परंतु ग्राहक न थे, इस समय ग्राहक हैं पर वैसे लेखक नहीं हैं। मेरे इस कथन का यह मतलब नहीं है कि वर्तमान समय के साहित्य-सेवी प्रतिष्ठा के योग्य नहीं हैं बल्कि यह मतलब है कि जो स्वर्गीय सज्जन अपनी लेखनी से हिंदी के आदि युग में हमें ज्ञान दे गए हैं वे हमारी अपेक्षा बहुत बढ़-चढ़कर थे। उनकी लेख-प्रणाली में चाहे भेद रहा हो परंतु उन सबका लक्ष्य यही था कि इस भारत भूमि में किसी तरह मातृ-भाषा का एकाधिपत्य हो लेकिन यह कोई नियम की बात नहीं है कि वैसे लोगों से कुछ भूल हो ही नहीं। उनसे भूल हुई तो यही कि प्रचलित शब्दों पर उन्होंने अधिक ध्यान नहीं दिया। राजा शिवप्रसादजी के राजनीति के विचार चाहे कैसे ही रहे हों पर सामाजिक विचार उनके बहुत ही प्रांजल थे और वे समयानुकूल काम करना खूब जानते थे, विशेषतः जिस ढंग की हिंदी वे लिख गए हैं उसी से वर्तमान में हिंदी का रास्ता कुछ साफ हुआ है।
चाहे कोई हिंदू हो चाहे जैन या बौद्ध हो और आर्य समाजी या धर्म समाजी ही क्यों न हो परंतु जिन सज्जनों के माननीय अवतारों और पूर्वजनों ने इस पुण्य भूमि का अपने आविर्भाव से गौरव बढ़ाया है उनमें ऐसा अभागा कौन होगा जो पुण्यता और मधुरता युक्त संस्कृत भाषा के शब्दों का प्रचुर प्रचार न चाहेगा मेरे विचार में किसी विवेकी भारत संतान के विषय में केवल यह देखकर कि वह विदेशी भाषा के शब्दों का प्रचार कर रहा है यह गढ़ंत कर लेना कि वह देववाणी के पवित्र शब्दों का विरोधी है भ्रम ही नहीं किंतु अन्याय भी है। देखना यह चाहिए कि ऐसा करने से उसका मतलब क्या है। भारतवर्ष में आठ सौ वर्ष तक विदेशी यवनों का राज्य रहा है इसलिए फारसी-अरबी के शब्द हिंदू समाज में 'नपठेत यावनी भाषा” की दीवार लांघकर उसी प्रकार आ घुसे जिस प्रकार हिमालय के उन्नत मस्तक को लांघकर वे स्वयं आ गए, यहां तक कि महात्मा तुलसीदास जैसे भगवद्भक्त कवियों को भी “गरीब-निवाज” आदि शब्दों का बर्ताव दिल खोल के करना पड़ा।
आठ सौ वर्ष के कुसंस्कार को जो गिनती के दिनों में दूर करना चाहते हैं उनके उत्साह और साहस की प्रशंसा करने पर भी हम यह कहने के लिए मजबूर हैं कि वे अपने बहुमूल्य समय का सदुपयोग नहीं करते बल्कि जो कुछ वे कर सकते थे उससे भी दूर हटते हैं। यदि ईश्वरचंद्र विद्यासागर सीधे-सादे शब्दों से बंगला में काम न कर लेते तो उत्तरकाल के लेखकों को संस्कृत शब्द के बाहुल्य प्रचार का अवसर न मिलता और यदि “राजा शिवप्रसाद हिंदी” प्रकट न होती तो सरकारी पाठशालाओं में हिंदी के चंद्रमा की चांदनी मुश्किल से पहुंचती। मेरे बहुत से मित्र हिंदुओं की अकृतज्ञता का यों वर्णन करते हैं कि उन्होंने हरिश्चंद्रजी जैसे देशहितैषी पुरुष की उत्तम-उत्तम पुस्तकें नहीं खरीदीं पर मैं कहता हूं कि यदि बाबू हरिश्चंद्र अपनी भाषा को थोड़ा सरल करते तो हमारे भाइयों को अपने समाज पर कलंक लगाने की आवश्यकता न पड़ती और स्वाभाविक शब्दों के मेल से हिंदी की पैसिंजर भी मेल बन जाती। प्रवाह के विरुद्ध चलकर यदि कोई कृतकार्य हो तो निःसंदेह उसकी बहादुरी है परंतु बड़े-बड़े दार्शनिक पंडितों ने इसको असंभव ठहराया है। सारसुधानिधि और कविवचनसुधा की भाषा यद्यपि भावुकजनों के लिए आदर की वस्तु थी परंतु समय के उपयोग की न थी। हमारे 'सुदर्शन' की लेख-प्रणाली को हिंदी के धुरंधर लेखकों और विद्वानों ने प्रशंसा के योग्य ठहराया है परंतु साधारणजन उससे कितना लाभ उठा सकते हैं यह सोचने की बात है। यदि महाकवि भवभूति के समान किसी भविष्य पुरुष की आशा ही पर ग्रंथकारों और लेखकों को यत्न करना चाहिए तब तो मैं सुदर्शन संपादक पंडित माधवप्रसाद मिश्र को भी भविष्य की आशा पर बधाई देता हूं पर यदि ग्रंथकारों को भविष्य की अपेक्षा वर्तमान से अधिक संबंध है तो निःसंदेह इस विषय में मुझे आपत्ति है।
किसी दार्शनिक ग्रंथ या पत्र की भाषा के लिए यदि किसी बड़े कोश को टटोलना पड़े तो कुछ परवाह नहीं, परंतु साधारण विषयों की भाषा के लिए भी कोश की खोज करनी पड़े तो निःसंदेह दोष की बात है। मेरी हिंदी किस श्रेणी की हिंदी है इसका निर्धारण मैं नहीं करता परंतु मैं यह जानता हूं कि इसके पढ़ने के लिए कोश की तलाश करनी नहीं पड़ती। चंद्रकान्ता के आरंभ के समय मुझे यह विश्वास न था कि उसका इतना अधिक प्रचार होगा, यह मनोविनोद के लिए लिखी गई थी, पर पीछे लोगों का अनुराग देखकर मेरा भी अनुराग हो गया और मैंने अपने उन विचारों को जिनको मैं अभी तक प्रकाशित नहीं कर सका था फैलाने के लिए इस पुस्तक को द्वार बनाया और सरल भाषा में उन्हीं मामूलीं बातों को लिखा जिससे मैं उस होनहार मंडली का प्रिय पात्र बन जाऊं जिसके हाथ में भारत का भविष्य सौंपकर हमें इस असार संसार से बिदा होना है। मुझे इस बात से बड़ा हर्ष है कि मैं इस विषय में सफल हुआ और मुझे ग्राहकों की अच्छी श्रेणी मिल गई। यह बात बहुत-से सज्जनों पर प्रकट है कि 'चंद्रकान्ता' पढ़ने के लिए बहुत से पुरुष नागरी की वर्णमाला सीखते हैं और जिनको कभी हिंदी सीखनी न थी उन लोगों ने इसके लिए सीखी।
हिंदी के हितैषियों में दो प्रकार के सज्जन हैं। एक तो वे जिनका विचार यह है कि चाहे अक्षर फारसी क्यों न हों पर भाषा विशुद्ध संस्कृत-मिश्रित होनी चाहिए और दूसरे वे जो यह चाहते हैं कि चाहे भाषा में फारसी के शब्द मिले भी हों पर अक्षर नागरी होने चाहिए। पहले में मैं पंजाब के आर्य समाजियों और धर्म सभा वालों को मान लेता हूं जिनके लेखों में वर्णमाला के सिवाय फारसी-अरबी को कुछ सहारा नहीं, सब-कुछ संस्कृत का है, और दूसरे पक्ष में मैं अपने को ठहरा लेता हूं जो इसके विपरीत हैं। मैं इस बात को भी स्वीकार करता हूं कि जिस प्रकार फारसी वर्णमाला उर्दू का शरीर और अरबी-फारसी के उपयुक्त शब्द उसके जीवन हैं, ठीक उसी प्रकार नागरी वर्णमाला हिंदी का शरीर और संस्कृत के उपयुक्त शब्द उसके प्राण कहे जा सकते हैं। यदि यह देश यवनों के अधिकार में न हुआ होता और यदि कायस्थादि हिंदू जातियों में उर्दू भाषा का प्रेम अस्थिमज्जागत न हो गया होता तो हिंदी का शरीर और जीवन पृथक दिखलाई देता। उसी प्रकार हमारे ग्रंथों की सजीव उत्पत्ति होती जिस प्रकार द्विज बालकों की होती है। शरीर में यदि आत्मा न हो तो तब वह बेकार है और यदि आत्मा को उपयुक्त शरीर न मिलकर पशु-पक्षी आदि शरीर मिल जाय तो भी वह निष्फल ही है, इसलिए शरीर बनाकर फिर उसमें आत्मदेव की स्थापना करना ही न्याययुक्त और लाभप्रद है। 'चंद्रकान्ता' और 'संतति' में यद्यपि इस बात का पता नहीं लगेगा कि कब और कहां भाषा का परिवर्तन हो गया परंतु उसके आरंभ और अंत में आप ठीक वैसा ही पायेंगे जैसा बालक और वृद्ध में। एकदम से बहुत से शब्दों का प्रचार करते तो कभी संभव न था कि उतने संस्कृत शब्द हम उन कुपढ़ ग्रामीण लोगों को याद करा देते जिनके निकट काला अक्षर भैंस के बराबर था। मेरे इस कर्त्तव्य का आश्चर्यमय फल देखकर वे लोग भी बोधगम्य उर्दू के शब्दों को अपनी विशुद्ध हिंदी में लाने लगे हैं जो आरंभ में इसीलिए मुझ पर कटाक्षपात करते थे। इस प्रकार प्राकृतिक प्रवाह के साथ-साथ साहित्यसेवियों की सरस्वती का प्रवाह बदलते देखकर समय के बदलने का अनुमान करना कुछ अनुचित नहीं है। जो हो भाषा के विषय में हमारा वक्तव्य यही है कि वह सरल हो और नगरी वाणी में हो, क्योंकि जिस भाषा के अक्षर होते हैं उनका खिंचाव उन्हीं मूल भाषाओं की ओर होता है जिससे उनकी उत्पत्ति हुई है।
भाषा के सिवाय दूसरी बात मुझे भाव के विषय में कहनी है। मेरे कई मित्र अपेक्षा करते हैं कि मुझे देश-हितपूर्ण और धर्मभावमय कोई ग्रंथ लिखना उचित था जिससे मेरी प्रसरणशील पुस्तकों के कारण समाज का बहुत कुछ उपकार व सुधार हो जाता। बात बहुत ठीक है, परंतु एक अप्रसिद्ध ग्रंथकार की पुस्तकों को कौन पढ़ता यदि मैं चंद्रकान्ता और संतति को न लिखकर अपने मित्रों से भी दो-चार बातें हिंदी के विषय में कहना चाहता तो कदाचित् वे भी सुनना पसंद नहीं करते। गंभीर विषय के लिए जैसे एक विशेष भाषा का प्रयोजन होता है वैसे ही विशेष पुरुष का भी। भारतवर्ष में विशेषता की भी अधिकता न देखकर मैंने साधारण भाषा में साधारण बातें लिखना ही आवश्यक समझा। संसार में ऐसे भी लोग हुए होंगे जिन्होंने सरल और भावमय एक ही पुस्तक लिखकर लोगों का चित्त अपनी ओर खींच लिया हो पर वैसा कठिन काम मेरे जैसे के करने के योग्य न था। तथापि पात्रों की चाल-चलन दिखाने में जहां तक हो सका ध्यान रखा गया है, सब पात्र यथासंभव संध्या-तर्पण करते हैं और अवसर पड़ने पर पूजा प्रकार भी वीरेन्द्रसिंह आदि के वर्णन में जगह-जगह दिखाई देता है।
कुछ दिनों की बात है मेरे एक मित्र ने संवाद-पत्रों में इस विषय का आंदोलन उठाया था कि इनके कथानक संभव हैं या असंभव। में नहीं समझता कि यह बात क्यों उठाई और बढ़ाई गई जिस प्रकार पंचतंत्र, हितोपदेश आदि ग्रंथ बालकों की शिक्षा के लिए लिखे गये उसी प्रकार यह लोगों के मनोविनोद के लिए पर यह संभव है या असंभव इस विषय में कोई यह समझे कि 'चंद्रकान्ता' और 'वीरेन्द्रसिंह' इत्यादि पात्र और उनके विचित्र स्थानादि सब ऐतिहासिक हैं तो बड़ी भारी भूल है। कल्पना का मैदान बहुत विस्तृत है और उसका एक छोटा-सा नमूना है। अब रही संभव की बात अर्थात् कौन-सी बात हो सकती है और कौन-सी नहीं हो सकती! इसका विचार प्रत्येक मनुष्य की योग्यता और देश-काल-पात्र से संबंध रखता है। कभी ऐसा समय था कि यहां के आकाश में विमान उड़ते थे, एक-एक वीर पुरुष के तीरों में यह सामर्थ्य थी कि क्षणमात्र में सहस्रों मनुष्यों का संहार हो जाता था, पर अब वह बातें खाली पौराणिक कथा समझी जाती हैं। पर दो सौ वर्ष पहले जो बातें असंभव थीं आजकल विज्ञान के सहारे वे सब संभव हो रही हैं। रेल, तार, बिजली आदि के कार्यों को पहले कौन मान सकता था। और फिर यह भी है कि साधारण लोगों की दृष्टि में जो असंभव है कवियों की दृष्टि में भी वह असंभव ही रहे यह कोई नियम की बात नहीं। संस्कृत साहित्य के सर्वोत्तम उपन्यास 'कादम्बरी' की नायिका युवती की युवती रही, उसके नायक के तीन जन्म हो गये, तथापि कोई बुद्धिमान पुरुष इसको दोषवह न समझकर गुणधायक ही समझेगा। चंद्रकान्ता में जो अद्भुत बातें लिखी गई हैं वे इसलिए नहीं कि लोग उनकी सच्चाई-झुठाई की परीक्षा करें, प्रत्युत इसलिए कि उसका पाठ कौतूहल-वर्द्धक हो।
एक समय था कि लोग सिंहासन बत्तीसी, बैतालपचीसी आदि कहानियों को विश्राम काल में रुचि से पढ़ते थे, फिर चहारदरवेश और अलिफलैला के किस्सों का समय आया, अब इस ढंग के उपन्यासों का समय है। अब भी वह समय दूर है जब लोग बिना किसी प्रकार की न्यूनाधिकता के ऐतिहासिक पुस्तकों को रुचि से पढ़ेंगे। जब वह समय आवेगा उस समय कथासरित्सागर के समान 'चंद्रकान्ता' बतलावेगी कि एक वह भी समय था जब इसी प्रकार के ग्रंथों से ही वीरप्रसु भारत भूमि की संतान का मनोविनोद होता था। भगवान उस समय को शीघ्र लावें।