दिन बीतता है, रात जाती है, सूरज निकलता है, फिर डूबता है, साथ ही हमारे जीने के दिन घटते हैं। हम लोगों से कोई पूछता है, तो हम लोग कहते हैं, मैं बीस बरस का हुआ, कोई कहता है, मैं चालीस का हुआ। कहने के समय तनिक भी हिचक नहीं होती-मुखड़ा वैसा ही हँसता रहता है-मानो हम लोग जानते ही नहीं मरना किसे कहते हैं; पर सच बात यह है-हम बीस बरस-चालीस बरस-के नहीं होते। हमारे जीने के दिन में से-बीस बरस-चालीस बरस-घट जाते हैं। जो हम को पचास बरस जीना है-तो अब हमारा दिन पूरा होने में-तीस बरस-और दस बरस-और रह जाते हैं। दूर तक सोचा जावे तो इसमें हिचकने और मुँह के उदास बनाने की कोई बात है भी नहीं-मरना इतना डरावना नहीं है, जितना लोग समझते हैं। सच तो यों है मरने ही से जीने का आदर है-जो जग में मरना न होता-लोग जीने से घबरा जाते, न तो खाना कपड़ा मिलता, न ठहरने को ठौर मिलती, न रहने को घर अंटता, उस समय धरती पर कैसा लौट फेर होता-यह बात सोचने से भी जी काँपता है। पर हम बहुत दूर की बात नहीं कहते हैं-हम उसी बात को दिखलाते हैं जिसको सोचकर सभी मरने से डरते हैं। धरती एक अनोखी ठौर है, इस पर जनम से लेकर एक-न-एक बात में सभी उलझ जाते हैं। जिस ढंग का जिसका जी होता है-प्यार करने के लिए वैसा ही बहुत कुछ उसको यहाँ मिल जाता है। एक चितेरे को लो, देखो वह यहाँ के फल फूल पत्तियों, चमकते हुए सूरज, प्यारी किरणों वाले चाँद, जगमगाते हुए तारों, सुथरे जलवाली झीलां, हरे भरे जंगलों, उजले धाौले पहाड़ों, कलकल बहती हुई नदियों, चाँद से मुखड़ेवाली नबेलियों, बाँके-बाँके बीरों और दूसरी सहज ही जो लुभानेवाली छटाओं को कितना प्यार करता है। इनको लेकर वह कैसी-कैसी काट छाँट करता है-कैसे-कैसे बेल बूटे बनाता है। दिन रात होती है, सूरज उगता और डूबता है, पर उसको इन कामों से छुट्टी नहीं। वह देखता सब कुछ है, समय पर करता सब कुछ है, पर जैसा चाहिए उसका जी इधर नहीं रहता। वह अपनी धुन में डूबा हुआ, अपनी ही काट-छाँट में लगा रहता है। कितनी मूर्तियाँ बनाता है-कितने बन, परबत, नदी, झीलों की छवि उतारता है। पर फिर भी सोचता है, अभी मुझको बहुत कुछ करना है। अभी मैंने यह मूर्ति नहीं बनायी, अभी तक मूर्ति में रंग भरना है, इस मूर्ति के गालों की लाली ठीक नहीं उतरी, भौंहें भी ठीक-ठीक नहीं बनीं, आँखों के बनाने में तो मुझसे बहुत ही चूक हुई, तिरछी चितवन क्या योंही दिखलायी जाती है!!! वह यही सब सोचता रहता है, इसी बीच काल उसको आ घेरता है-मन की बात मन में ही रह जाती है, वह कितनी बातों के लिए छटपटाता है-पर करे तो क्या करे-विष की सी घूँट घोंट कर वह काल का सामना करता है-और बहुत सी चाहों को जी में रखे हुए इस धरती से उठ जाता है। इसी भाँति कोई घर बार बाल बच्चों में उलझा रहता है, कोई पूजा पाठ और जप तप में लगा रहता है, कोई राजकाज और धन धरती में फँसा होता है, कोई गाने बजाने और हँसी खेल में मतवाला होता है, पर सभी के ऊपर काल अचानक टूटता है, और सभी को बरबस इस धरती से उठा ले जाता है-सभी अपना काम अधूरा छोड़ते हैं, पछताते हैं, पर कुछ कर नहीं सकते।
कामिनीमोहन की भी आज ठीक यही दशा है-वह खाते पीते, सोते जागते, भोले-भाले मुखड़े का ध्यान करता, जहाँ रसीली बड़ी-बड़ी आँखें देखता वहीं लट्टू होता, गोरे-गोरे हाथों में पतली-पतली चूरियाँ उसको बावला बनातीं, सुरीले कण्ठ का बोल सुनकर वह अपनी देह तक भूल जाता, गरदाया हुआ जोबन उसके कलेजे में पीर उठाता-उसकी इन्हीं बातों ने उसको नई-नई जवान स्त्रियों का रसिया बनाया। कितनी स्त्रियों का सत उसके हाथों खोया गया, कितनी स्त्रियों उसके हाथों मिट्टी में मिलीं, पर उसकी चाह न घटी, आजकल वह देवहूती पर मर रहा था, बिना देवहूती चारों ओर उसकी आँखों के सामने अंधेरा था। पर काल ने उसकी इन बातों को न सोचा, आजकल वह काल के हाथों पड़ा है, काल को उसकी तनिक पीर नहीं है, आज वह उसको धरती से उठा लेना चाहता है।
कामिनीमोहन अपने घर की एक कोठरी में एक पलँग पर पड़ा हुआ आँखों से आँसू बहा रहा है। वहीं दस-पाँच जन और बैठे हुए हैं। दो-चार जन उसकी सम्हाल कर रहे हैं-गाँव के पुराने बैद पास बैठे हुए देखभाल कर रहे हैं। पर उ]=नके मुखड़े पर उदासी छायी हुई है-वे कामिनीमोहन की दशा घड़ी-घड़ी बिगड़ते देखकर हाथ मल रहे हैं, पर उनसे कुछ करते नहीं बनता। कामिनीमोहन पहले अचेत था, पर बैद ने दो-एक बलवाली ऐसी औषधों खिलायी हैं, जिससे अब वह चेत में है। पर चेत में होने ही से क्या होता है-लहू सर से इतना निकल गया है और चोट इतनी गहरी आयी है-जिससे अब लोग उसकी घड़ी गिन रहे हैं-कामिनीमोहन के पास जो दस-पाँच जन बैठे हैं उनमें कुछ साधु और कुछ घरबारियों के भेस में। एक जन और बैठा है। इसका मुखड़ा भी उदास है, जी पर कुछ चोट सी लगी जान पड़ती है, आँखें भी थिर हैं, पर कभी-कभी बिजली की कौंध की भाँत मुखड़े पर तेज भी झलक जाता है। साथ ही मुँह की एक ठण्डी साँस निकल कर बाहर की पवन में मिल जाती है। इसने कामिनीमोहन को अपनी ओर निराशभरी दीठ से बार-बार ताकते देखकर कहा, क्या आप मुझको पहचानते हैं?
कामिनीमोहन-हाँ! पहचानता हूँ! देवस्वरूप आपका नाम है। उस दिन आप देवहूती की बिपत में सहाय हुए थे, क्या आज मुझको बिपत से उबारने के लिए आप यहाँ आये हैं?
देवस्वरूप की आँखों में पानी आया, उन्होंने कहा, मेरे हाथों जो आपका कुछ भला हो सके तो मैं जी से उसको करना चाहता हँ, आपकी दशा देखकर मुझको बड़ा दुख है पर क्या करूँ, मेरा कोई बस नहीं चलता। उस दिन देवहूती को बचाने के लिए जी पर खेल गया था, आज आपके लिए भी अपने को जोखों में डाल सकता हूँ, पर कैसे आपका भला होगा-यह मुझको बतलाया जाना चाहिए। मैं, जितने जीव हैं सबका भला करना, सबको बिपत से उबारना, अपना धर्म समझता हूँ-आपका भला करने में क्यों हिचकूँगा।
कामिनीमोहन-आप बड़े लोग हैं जो ऐसा कहते हैं-सच तो यों है, अब मैं किसी भाँति नहीं बच सकता-मेरे दिन पूरे हो गये। पर आप किसी भाँति यहाँ आ गये हैं, तो मैं आपसे दो-चार बातें पूछना चाहता हूँ, क्या आप उनको बतला सकतेहैं?
देवस्वरूप-मैंने जो कुछ किया है-धर्म के नाते किया है, धर्म में खोट नहीं होती-आप पूछें, मैं सब बातें सच-सच कहूँगा।
कामिनीमोहन ने इतना सुनकर, जो लोग कोठरी में बैठे थे बैद छोड़ उन सब लोगों से कहा, आप लोग थोड़ी बेर के लिए बाहर जाइये। उन लोगों के बाहर चले जाने पर उसने देवस्वरूप से कहा-पहले यह बतलाइये उस दिन आप देवहूती के कोठे पर कैसे पहुँचे, क्या आप देवहूती के कोई हैं? जो आप देवहूती के कोई नहीं हैं-तो आपने मेरी भेद की बातों को कैसे जान लिया।
देवस्वरूप-बड़ों ने कहा है पाप कभी नहीं छिपता, क्यों उन्हांने ऐसा कहा है, यह बात थोड़ा सा विचार करने पर अपने आप समझ में आती है। सच बात यह है-जिन पापों को हम बहुत छिपकर करते हैं, उनके भी देखने-सुननेवाले मिल जाते हैं। एक ही समय सब ओर न देखनेवाली हमारी आँखें चूकती हैं-दूसरी ओर लगा हुआ हमारा कान पास की बात भी नहीं सुनता। पर हमारे कामों की ओर लगी हुई देखनेवालों की आँखें-हमारी बहुत ही धीरे कही गयी बातों की ओर लगे हुए सुननेवालों के कान अपने-अपने अवसर पर नहीं चूकते। बहुत ही चुपचाप ये सब अपना काम करते हैं-और हमारी बहुत सी बातों को जानकर हमारी बहुत सी होनेवाली बुराइयों का हाथ बाँटते हैं। पीछे इन्हीं देखने सुननेवालों से हमारे पापों का भण्डा फूटता है। जिस दिन आपने रात में मुझको देवहूती के कोठे पर पाया, उसी दिन दोपहर को मैं देवहूती के घर के पासवाले पीपल के पेड़ के नीचे बैठा था। इस पीपल के पेड़ के पास एक पक्का कुआँ है-इसी कुएँ पर मुझको दो स्त्रियों बात करती दिखलाई पड़ीं। उनमें एक बासमती थी, और दूसरी भगमानी। उन दोनों में बातचीत धीरे-धीरे हो रही थी, पर मैं सब सुनता था। एक दो बार बासमती की दीठ मेरी ओर फिरी थी, पर उसने मुझको देखकर भी नहीं देखा। एक बार जब उसकी दीठ मुझपर पूरी पड़ी, तो वह कुछ चौंकी, पर उसी क्षण वह समझ गयी, मैं बटोही हूँ। जो मैं गाँव का होता तो उसको कुछ उलझन होती भी, पर बटोही समझकर वह मेरी ओर से निचिन्त हो गयी। और जो बातें भगमानी से कहने को रह गयी थीं, उनको भी उस भाँति धीरे-धीरे उसने उससे कहा, पीछे दोनों वहाँ से चली गयीं। जितनी बातें बासमती और भगमानी में हुईं-उनको सुनकर मैं उस दिन होनेवाली सब बातों को भली-भाँति जान गया, और उसी समय अपने मन में ठाना, जैसे हो एक भले घर की स्त्री का सत बचाना चाहिए। यह सब सोचकर मैं छ: घड़ी रात गये, देवहूती के घर के पिछवाडे एक ठौर ओलती के नीचे आकर खड़ा हुआ। आप अपने दोनों साथियों के साथ ठीक मेरे पास से होकर निकले थे-पर आपने मुझको नहीं देखा। जिस खिड़की से होकर हम और आप ऊपर गये थे-वह खिड़की उस ठौर के बहुत पास थी। आपको दो और साथियों के साथ देखकर मैं घबराया, पर कुछ ही बेर में मेरी विपत टल गयी, जब आपके दोनों साथी आपके गहनों का डब्बा लेकर वहाँ से नौ दो ग्यारह हुए। उन दोनों के चले जाने पर मैं कोठे पर चढ़ा। कोठे पर जो कुछ हुआ, वह सब आप जानते हैं। मैंने बातचीत के समय आपसे कहा था, जहाँ वह दोनों गये वहाँ तू भी जा, पर उस समय उनको भगा हुआ जानकर मैंने आपको घबड़ा देने के लिए ऐसा कहा था, मेरा उस समय ऐसा कहने का कोई दूसरा अर्थ न था।
कामिनीमोहन-एक बात तो हुई-दूसरी बात मुझको यह पूछनी है-क्या इस गाँव के बन में भी आप आ जा सकते हैं? क्योंकि कल्ह जब मैं बन में गया था, तो उसमें कई बार मैंने गाना होते सुना। यह गाना आप ही के गले से होता जान पड़ता था; क्योंकि आपके गले को मैं भली-भाँति पहचानता हूँ।
देवस्वरूप-उस दिन मैंने जो कुछ देखा सुना, उससे मेरे जी में बहुत बड़ी उलझन पड़ गयी। सब बातें जानने के लिए मेरा जी उकताने लगा। पर मुझको कोई बात ऐसी न सूझी, जिस से मेरा काम निकल सके। इसलिए मैं गाँव के बाहर धुनी रमाकर साधुओं के भेस में बैठा, यहाँ मुझको तुम्हारी बहुत सी बातें जान पड़ीं। पर देवहूती पर तुम्हारा जी आया हुआ है-और तुम उसको फाँसना चाहते हो, ये बातें मैंने किसी से नहीं सुनीं। हाँ, तुम्हारी चालचलन की जितनी बुराई सुनी गयी, उतना ही पारबती और देवहूती के चालचलन को लोगों को सराहते सुना। लोगों ने तुम्हारी और बातों के साथ तुम्हारे बन के अड्डॆ की चर्चा भी मुझसे की। सभों ने मुझसे यही कहा, न तो उसमें कोई जा सकता है औन न वहाँ का भेद कोई जानता है, पर इतना सभी कहते, बन के सहारे कामिनीमोहन बड़ा अनर्थ करता है। यह सब सुनकर मैंने अपने जी में यह दो बातें ठानी। एक तो जैसे हो आपका चालचलन ठीक किया जावे-दूसरे बन का सारा भेद जान लिया जावे। पहले मैंने बन का भेद जानना चाहा-और दो दिन पीछे गाँव से बन की ओर चला। बन का भेद जानने में मुझको पूरा एक महीना लगा। मैंने बन के सब भीलों को अपना चेला बनाया, और उन सबों ने बन का सारा भेद मुझको बतला दिया। बन में मिट्टी के नीचे खंडहरों में से होकर बहुत ही सुरंगें निकली हुई हैं-मैंने उन भीलों के सहारे एक-एक करके उन सबको छान डाला। जिस दिन मैं सब कुछ देखभालकर गाँव की ओर लौट रहा था, मैंने दूर से आपको बन में आते देखा, और समझ गया-आप किसी बुरे काम के लिए ही बन में आ रहे हैं। मेरा दूसरा काम आपको पाप से बचाना था, इसलिए गाने के बहाने मैंने उस बेले ऐसी सीख आपको दी, जिसको सुनकर आप पाप करने से हिचकें। पर दुख की बात है-उस दिन के मेरे किसी गीत ने काम नहीं किया, और आप अपनी बातों पर वैसे ही जमे रहे। जब आप मुझको बड़ के नीचे खोज रहे थे, तो मैं वहीं मिट्टी के नीचे एक सुरंग में था। जब आपसे और देवहूती से बातचीत उस खंडहरवाले घर में हुई, तब भी मैं उसी कोठरी के नीचे की एक सुरंग में खड़ा सब सुनता रहा, और यहीं से बाहर निकलकर आपकी बात पूरी होने पर मैंने अपना सबसे पिछला गीत देवहूती को ढाढ़स बँधाने के लिए गाया। आप कह सकते हैं तुम एक बटोही थे, तुमको इन बातों से क्या काम था, पर सच बात यह है, मैंने जनम भर अपने लिए ऐसे ही कामों का करना ठीक किया है, मुझको ऐसे कामों को छोड़ दूसरा काम नहीं है, और इसीलिए मैंने जिस दिन आपके गाँव में पाँव रखा, उसी दिन अपने को जोखों में डाल दिया था।
कामिनीमोहन ने एक ऊँची साँस भरकर कहा, आप कह सकते हैं मरती बेले मुझको इन बातां से क्या काम था, पर सच बात यह है, मुझको देवहूती के चालचलन का खटका था, आपको इस भाँति उसका सहाय होते देखकर ही मेरे जी में यह खटका हुआ था। मैं अपने जी को बहुत समझाता था, नहीं, देवहूती का चालचलन कभी बुरा नहीं है-पर यह न मानता। अब आप की बातों को सुनकर मेरा सब भरम दूर हुआ-अब मैं अपना काम करके मरूँगा।
इतना कहकर कामिनीमोहन ने एक बात देवस्वरूप से कही-देवस्वरूप ने भी उसको अच्छा कहा। पीछे गाँव के बड़े-बड़े लोग बुलाये गये। सब लोगों के आ जाने पर एक काम कामिनीमोहन ने बहुत धीरज के साथ किया। पर ज्यों ही वह काम पूरा हुआ, कामिनीमोहन की साँस ऊपर को चलने लगी, उसकी आँखें बिगड़ गयीं, औेर रह-रह कर वह चौंक उठने लगा। उसकी यह गत देखकर देवस्वरूप ने कहा, कामिनीमोहन! तुम रह-रह कर इतना चौंकते क्यों हो? कामिनीमोहन की पलकें उठती न थीं-पर उसने धीरे-धीरे आँखें खोलीं और कहा, बड़ी डरावनी मूर्तियाँ सामने देख रहा हूँ-क्या यमदूत इन्हीं का नाम है! मैं इनके डर से काँप रहा हूँ। मुझको जान पड़ता है, मुझको मारने के लिए वह सब मेरी ओर लपक रहे हैं। ओहो! कैसे-कैसे डरावने हथियार उन लोगों के हाथों में हैं। आप इनके हाथों से मुझको बचाइए, क्या यह सब मुझको नरक में ले जावेंगे? मैं इन्हीं सबों से डरकर चौंक उठता हूँ। यह कहते-कहते कामिनीमोहन की आँखें फिर मुँद गयीं।
देवस्वरूप को कामिनीमोहन की बातें सुनकर बड़ा दुख हुआ। उन्होंने जी में सोचा, अभी कल्ह तक ये कह रहे थे, नरक स्वर्ग कहीं कुछ नहीं है, परमेश्वर भी एक धोखे की टट्टी है, और आज इनकी यह गत है, सच है, मरने के समय बड़े पापी की भी आँखें खुलती हैं। जब तक बने दिन होते हैं, मनुष्य बेबस नहीं होता, तभी तक उसको सब सीटी पटाक रहती है। बिपत पड़ने पर उसका जी कभी ठिकाने नहीं रहता। पर यह माटी का पुतला इन बातों को पहले नहीं सोचता, दु:ख इतना ही है। इतना सोचकर देवस्वरूप ने कहा-कामिनीमोहन! राम-राम कहो, राम का नाम सब बिपतों को दूर करता है।
कामिनीमोहन-बान लगाने से ही सब कुछ होता है-जैसी बान सदा की होती है-काम पड़ने पर वही बान काम में आती है। मैंने आज तक राम का नाम जपने की बान नहीं डाली, इसलिए इस बेले भी मुझसे राम-राम नहीं कहते बनता। मैंने जो पाप किये हैं-वे एक-एक करके मेरी आँखों के सामने नाच रहे हैं। मेरा जी बेचैन हो रहा है-अपने पापों का मुझको क्या फल मिलेगा, यह सोचकर मेरा रोआँ-रोआँ कलप रहा है, गले में काँटे पड़ रहे हैं, जीभ सूख रही है, तालू जल रहा है-मैं राम-राम कहूँ तो कैसे कहूँ।
इतना कहते-कहते कामिनीमोहन चिल्ला उठा, मुझको बचाओ, बचाओ, ये काले-काले, डरावने, टेढ़े-टेढ़े दाँतवाले यमदूत मुझको मारे डालते हैं। फिर कहा, अरे बाप! अरे बाप!! मरा! मरा!!! क्या ऐसा कोई माई का लाल नहीं है, जो मुझको इनके हाथों से बचावे!!! आह! आह!! जी गया! जी गया!! मेरे रोएँ रोएँ में भाले क्यों चुभाये जा रहे हैं! मेरी जीभ क्यों ऐंठी जाती है! मेरी बोटी-बोटी क्यों काटी जाती है! मेरा कलेजा क्यों निकाला जाता है! लोगो दौड़ो! लोगो दौड़ो!! अब तो नहीं सहा जाता!!!
देवस्वरूप ने कामिनीमोहन के सर पर हाथ रखकर कहा-कामिनीमोहन! राम-राम कहो, तुम्हारी सब पीड़ा दूर होगी। कामिनीमोहन ने कहा, रा-म रा-म-फिर कहा, उहँ! उहँ!! रहो! रहो!! अरे मेरे गले में जलते-जलते लोहे के छड़ क्यों डाले देते हो!!! अरे अरे! यह क्या! यह क्या!! हाय बाप! हाय बाप!! मार डाला! मार डाला!!!
देवस्वरूप की आँखों से कामिनीमोहन की दशा देखकर आँसू चलने लगे-वह कामिनीमोहन से कुछ न कहकर आप उसकी खाट पर बैठ गये-धीरे-धीरे उसके कान में राम-राम कहने लगे-पर कामिनीमोहन छटपटाता इतना था, जिससे वह भली-भाँति उसके कानों में राम-राम भी नहीं कह सकते थे। अब कामिनीमोहन की साँस बड़े बेग से ऊपर को खिंच रही थी-गले में कफ आ गया था-साँस के आने-जाने में बड़ी पीड़ा हो रही थी। आ:! आ:!! उहँ! उहँ!! करने छोड़ वह कुछ कह भी नहीं सकता था। गला घर्र घर्र कर रहा था। इतने में उसकी देह को एक झटका सा लगा-आँखों के कोये फट गये-और सड़ाके से साँस देह के बाहर हो गयी। सारे घर में हाहाकार मच गया।

 

 


 

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