दाक्षिण्यं स्वजने, दया परजने, शाट्यं सदा दुर्जने
प्रीतिः साधुजने, नयो नृपजने, विद्वज्जनेऽप्यार्जवम् ।
शौर्यं शत्रुजने, क्षमा गुरुजने, नारीजने धूर्तता  
ये चैवं पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः ॥ [22]

अपनों के प्रति कर्त्तव्य परायणता और दायित्व का निर्वाह करना, अपरिचितों के प्रति दयालुता का भाव रखना, दुष्टों से सदा सावधानी बरतना, अच्छे लोगों के साथ अच्छाई से पेश आना,  राजाओं से व्यव्हार कुशलता से पेश आना, विद्वानों के साथ सच्चाई से पेश आना, शत्रुओं से बहादुरी से पेश आना, गुरुजनों से नम्रता से पेश आना, महिलाओं के साथ के साथ समझदारी से पेश आना ; इन गुणों या ऐसे गुणों में माहिर लोगों पर ही सामाजिक प्रतिष्ठा निर्भर करती है।

जाड्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं
मान्नोनतिं दिशति पापमपकरोति ।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं
सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ॥[23]

सज्जनों की संगती मनुष्य को क्या नहीं देती :
    यह बुद्धि की जड़ता को नष्ट करती है।
    यह मनुष्य के वचनों एवं भाषा में सत्यता लाती है।  
    यह उसे सही राह पर चलने में मदद करती है और सम्मान में बृद्धि करती है।  
    यह पाप व् पापी प्रवृत्तियों को नष्ट करती है।
    यह मन को पवित्र करती है।
    तथा मनुष्य की कीर्ति सभी दिशाओं में फैलाती है।

जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् ॥[24]

वैसे महान कवि जो अपनी रचनाओं में रस भरने में माहिर हैं वे वास्तव में प्रतिष्ठा और कीर्ति के हकदार हैं।  इनका सुयशमय शरीर और इनकी कीर्ति उम्र और मृत्यु के भय से बिलकुल स्वतन्त्र और निर्भय है।

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