बालक का नाम उसकी पहचान के लिए नहीं रखा जाता। मनोविज्ञान एवं अक्षर-विज्ञान के जानकारों का मत है कि नाम का प्रभाव व्यक्ति के स्थूल-सूक्ष्म व्यक्तित्व पर गहराई से पड़ता रहता है। नाम सोच-समझकर तो रखा ही जाय, उसके साथ नाम रोशन करने वाले गुणों के विकास के प्रति जागरूक रहा जाय, यह जरूरी है। हिन्दू धर्म में नामकरण संस्कार में इस उद्देश्य का बोध कराने वाले श्रेष्ठ सूत्र समाहित रहते हैं।
नामकरण शिशु जन्म के बाद पहला संस्कार कहा जा सकता है। यों तो जन्म के तुरन्त बाद ही जातकर्म संस्कार का विधान है, किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में वह व्यवहार में नहीं दीखता। अपनी पद्धति में उसके तत्त्व को भी नामकरण के साथ समाहित कर लिया गया है। इस संस्कार के माध्यम से शिशु रूप में अवतरित जीवात्मा को कल्याणकारी यज्ञीय वातावरण का लाभ पहँुचाने का सत्प्रयास किया जाता है। जीव के पूर्व संचित संस्कारों में जो हीन हों, उनसे मुक्त कराना, जो श्रेष्ठ हों, उनका आभार मानना-अभीष्ट होता है। नामकरण संस्कार के समय शिशु के अन्दर मौलिक कल्याणकारी प्रवृत्तियों, आकांक्षाओं के स्थापन, जागरण के सूत्रों पर विचार करते हुए उनके अनुरूप वातावरण बनाना चाहिए। शिशु कन्या है या पुत्र, इसके भेदभाव को स्थान नहीं देना चाहिए। भारतीय संस्कृति में कहीं भी इस प्रकार का भेद नहीं है। शीलवती कन्या को दस पुत्रों के बराबर कहा गया है। 'दश पुत्र-समा कन्या यस्य शीलवती सुता।' इसके विपरीत पुत्र भी कुल धर्म को नष्ट करने वाला हो सकता है। 'जिमि कपूत के ऊपजे कुल सद्धर्म नसाहिं।' इसलिए पुत्र या कन्या जो भी हो, उसके भीतर के अवांछनीय संस्कारों का निवारण करके श्रेष्ठतम की दिशा में प्रवाह पैदा करने की दृष्टि से नामकरण संस्कार कराया जाना चाहिए। यह संस्कार कराते समय शिशु के अभिभावकों और उपस्थित व्यक्तियों के मन में शिशु को जन्म देने के अतिरिक्त उन्हें श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्पन्न बनाने के महत्त्व का बोध होता है। भाव भरे वातावरण में प्राप्त सूत्रों को क्रियान्वित करने का उत्साह जागता है। आमतौर से यह संस्कार जन्म के दसवें दिन किया जाता है। उस दिन जन्म सूतिका का निवारण-शुद्धिकरण भी किया जाता है। यह प्रसूति कार्य घर में ही हुआ हो, तो उस कक्ष को लीप-पोतकर, धोकर स्वच्छ करना चाहिए। शिशु तथा माता को भी स्नान कराके नये स्वच्छ वस्त्र पहनाये जाते हैं। उसी के साथ यज्ञ एवं संस्कार का क्रम वातावरण में दिव्यता घोलकर अभिष्ट उद्देश्य की पूर्ति करता है। यदि दसवें दिन किसी कारण नामकरण संस्कार न किया जा सके। तो अन्य किसी दिन, बाद में भी उसे सम्पन्न करा लेना चाहिए। घर पर, प्रज्ञा संस्थानों अथवा यज्ञ स्थलों पर भी यह संस्कार कराया जाना उचित है।
यज्ञ पूजन की सामान्य व्यवस्था के साथ ही नामकरण संस्कार के लिए विशेष रूप से इन व्यवस्थाओं पर ध्यान देना चाहिए।
यदि दसवें दिन नामकरण घर में ही कराया जा रहा है, तो वहाँ सयम पर स्वच्छता का कार्य पूरा कर लिया जाए तथा शिशु एवं माता को समय पर संस्कार के लिए तैयार कराया जाए।
अभिषेक के लिए कलश-पल्लव युक्त हो तथा कलश के कण्ठ में कलावा बाँध हो, रोली से ॐ, स्वस्तिक आदि शुभ चिह्न बने हों।
शिशु की कमर में बाँधने के लिए मेखला सूती या रेशमी धागे की बनी होती है। न हो, तो कलावा के सूत्र की बना लेनी चाहिए।
मधु प्राशन के लिए शहद तथा चटाने के लिए चाँदी की चम्मच। वह न हो, तो चाँदी की सलाई या अँगूठी अथवा स्टील की चम्मच आदि का प्रयोग किया जा सकता है।
संस्कार के समय जहाँ माता शिशु को लेकर बैठे, वहीं वेदी के पास थोड़ा सा स्थान स्वच्छ करके, उस पर स्वस्तिक चिह्न बना दिया जाए। इसी स्थान पर बालक को भूमि स्पर्श कराया जाए।
नाम घोषणा के लिए थाली, सुन्दर तख्ती आदि हो। उस पर निर्धारित नाम पहले से सुन्दर ढंग से लिखा रहे। चन्दन रोली से लिखकर, उस पर चावल तथा फूल की पंखुड़ियाँ चिपकाकर, साबूदाने हलके पकाकर, उनमें रंग मिलाकर, उन्हें अक्षरों के आकार में चिपकाकर, स्लेट या तख्ती पर रंग-बिरंगी खड़िया के रंगों से नाम लिखे जा सकते हैं। थाली, ट्रे या तख्ती को फूलों से सजाकर उस पर एक स्वच्छ वस्त्र ढककर रखा जाए। नाम घोषणा के समय उसका अनावरण किया जाए।
विशेष आहुति के लिए खीर, मिष्टान्न या मेवा जिसे हवन सामग्री में मिलाकर आहुतियाँ दी जा सकें।
शिशु को माँ की गोद में रहने दिया जाए। पति उसके बायीं ओर बैठे। यदि शिशु सो रहा हो या शान्त रहता है, तो माँ की गोद में प्रारम्भ से ही रहने दिया जाए। अन्यथा कोई अन्य उसे सम्भाले, केवल विशेष कर्मकाण्ड के समय उसे वहाँ लाया जाए। निर्धारित क्रम से मंगलाचरण, षट्कर्म, संकल्प, यज्ञोपवीत परिवर्तन, कलावा, तिलक एवं रक्षा-विधान तक का क्रम पूरा करके विशेष कर्मकाण्ड प्रारम्भ किया जाए।