प्राचीन काल में राजा लोग केवल शौक के लिए ही शिकार नहीं करते थे। बनैले पशुओं को खत्म करना भी उनका उद्देश्य था ताकि वे वानप्रस्थियों को परेशान न करें। जब कभी कोई राजा शिकार पर जाता तो दरबारियों, सैनिकों और सेवकों का बड़ा दल भी उसके साथ होता। महाभारत के वीर नायक अभिमन्यु के पुत्र राजा परीक्षित एक दिन एक हिरन का पीछा कर रहे थे। निशाना बांधकर तीर जो उन्होंने चलाया तो हिरन घायल हो गया, लेकिन मरा नहीं। शिकार का नियम है कि जानवर की जान ले लो, मगर उसे पंगु बना कर मत छोड़ दो। किसी जानवर को घायल और पीड़ा से छटपटाता छोड़ देना अधर्म माना जाता था और अब भी माना जाता है। जब हिरन घायल हो गया तो राजा उसको मारकर कष्ट से छुटकारा दिलाने के उद्देश्य से उसका पीछा करते-करते जंगल के बिल्कुल भीतर पहुंच गये। उनके साथी कहीं पीछे छूट गये थे। राजा थक गये थे। उनको बड़े जोरों से । उनको बड़े जोरों से भूख और प्यास लग रही
थी। लेकिन उन्होंने संकल्प कर रखा था कि जब तक हिरन को पीड़ा से छुटकारा नहीं दिला देंगे, वापस नहीं लौटेंगे। अचानक राजा ने देखा कि पेड़ों के बीच एक खाली स्थान है। वहां एक वृद्ध ब्राह्मण गऊओं को सानी-पानी दे रहे थे। राजा ने उनके पास जाकर पूछा, "ब्राह्मण देवता, मैं अभिमन्यु का पुत्र और इस राज्य का शासक हूं। मैं एक घायल हिरन की तलाश में हूं। वह इस ओर तो नहीं आया? आपने तो नहीं देखा?" ब्राह्मण सन्यासी का नाम शमीक था। संयोग से वह उनके मौन रहने का दिन था। उन्होंने राजा के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। ब्राह्मण के उत्तर न देने पर राजा को पहले तो आश्चर्य हुआ, फिर उन्होंने सोचा कि शायद वृद्ध ब्राह्मण को सुनायी नहीं देता, और उन्होंने ऊंची आवाज में फिर अपना प्रश्न दोहराया। शमीक राजा की ओर देखते रहे लेकिन इस बार भी उत्तर नहीं दिया। राजा ने इतनी देर में यह तो जान लिया था कि सन्यासी बहरे नहीं हैं, क्योंकि इसी बीच एक गाय ने दूध दुहने की बाल्टी को लात मारी और उसकी आवाज सुनकर ब्राह्मण ने फुर्ती से बाल्टी को थाम लिया और उसको उलटने से बचा लिया। अब तो राजा को बहुत क्रोध आया। उन्होंने समझा कि ब्राह्मण बहुत धृष्ट है। एक सन्यासी की यह मजाल कि राजा के प्रश्न का उत्तर न दे? राजा ने चीखकर कहा कि यदि उन्होंने उसके प्रश्न का उत्तर न दिया तो इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा। फिर भी सन्यासी केवल राजा की ओर दुखभरी दृष्टि से ताकते रहे। बोले कुछ भी नहीं। क्रोधं में राजा आपे से बाहर हो रहे थे। उन्होंने इधर-उधर देखा कि किस
तरह उस धृष्ट ब्राह्मण को अपमानित करें। अचानक उनकी दृष्टि पास ही पड़े एक मरे हुए सांप पर पड़ी। तुरंत ही शाही तलवार म्यान से निकली और बिजली की तरह लपक कर मरे हुए सांप को नोक से उठा लिया। दूसरे ही क्षण सांप हवा में उछला और ब्राह्मण के गले में जा लिपटा। राजा हंसे और इस प्रतीक्षा में खड़े रहे कि ब्राह्मण शमीक कुछ कहेंगे, शायद शाप भी दे दें। लेकिन शमीक ने कुछ नहीं कहा। उनके चेहरे पर दुख का भाव भी उसी प्रकार बना रहा। राजा लज्जित होकर लौट पड़े। लेकिन एक तीसरा व्यक्ति भी वहां उपस्थित था जो चुपचाप खड़ा यह सब कुछ देख रहा था। वह थे कृश, शमीक के पुत्र शृंगी के मित्र। लेकिन राजा या शमीक दोनों में से किसी को यह पता नहीं था। राजा के लौटने के बाद कृश शृंगी को यह समाचार देने भागे।
आखिर जब शृंगी मिले तो कृश ने उनसे पूछा, “तुमने उस दिन कहा था कि जंगल- वासियों के लिए सब से पहले भगवान हैं और फिर राजा। कहा था न?" शृंगी दुर्लभ जड़ी-बूटियां जमा किया करते थे। अपना काम करते हुए उन्होंने अनमने भाव से कहा, "हां, कहा तो था।" "यदि राजा हमारी परवाह न करे, तो हम उसके स्वामीभक्त क्यों हो?" शृंगी ने पूछा, “तुम राजा परीक्षित की ही बात कर रहे हो न? वह वानप्रस्थियों का कभी अपमान नहीं करेंगे। क्यों करेंगे भला?" शृंगी के मित्र ने, जो कुछ-कुछ शरारती थे, चालाकी से कहा, “मान लो मैं तुमसे यह कहूं कि मैंने स्वयं अपनी आंखों से देखा, तो?" "तो भी मैं तुम्हारा विश्वास नहीं करूंगा,” श्रृंगी ने तुरंत जवाब दिया। "अगर तुम अपनी आंखों से इसका प्रमाण देखो तो?" शृंगी ने खीझकर कहा, “कैसा प्रमाण? पहेलियां क्यों बुझा रहे हो? साफ-साफ क्यों नही कहते क्या बात है? तब शायद मैं उस किस्से को समझ सकूँ जो तुम सुनाना चाह रहे हो।" "यह कोई किस्सा-कहानी नहीं, सच बात है,' श्रृंगी के मित्र ने उनका हाथ पकड़कर जंगल की ओर खींचते हुए कहा। वे दोनों वहां पहुंचे जहां शमीक समाधि लगाये बैठे थे। मरा हुआ सांप अभी तक उनके गले में लिपटा हुआ था। "अरे! पिताजी के गले में मरा सांप लिपटा है!" यह कहते हुए श्रृंगी आगे की ओर लपके। लेकिन उनके मित्र ने उन्हें पीछे खींच लिया। "हां, यह मरा हुआ सांप ही है", उन्होंने व्यंग से कहा। "हमारे महाराज, हमारे प्रभु और कृपालु रक्षक राजा परीक्षित ने इसे तुम्हारे पिताजी के गले में डाला। मैंने स्वयं देखा। और जानते हो तुम्हारे पिता का अपराध क्या था जिसके लिए उन्हें यह दंड दिया गया? क्योकि राजा ने किसी घायल हिरन के बारे में कुछ पूछा और तुम्हारे पिता ने उत्तर नहीं दिया। राजा उनके ऊपर खूब बिगड़े मैंने स्वयं सुना। उसके बाद अपनी तलवार की नोक से इस मरे सांप को उठाकर तुम्हारे पिता के गले में डाल दिया। लेकिन मानना पड़ेगा क्या हाथ की सफाई थी, वाह! ऐसा अचूक निशाना साधा कि सांप ठीक-ठीक तुम्हारे पिता के गले में आ लिपटा! जरा भी चूक नहीं हुई। मैंने स्वयं अपनी आंखों से देखा। ।" "लेकिन,” श्रृंगी ने चकित होकर पूछा, "तुमने आगे बढ़कर महाराज को बताया क्यों नहीं कि आज पिताजी के मौन रहने का दिन है?" "मेरा दिमाग थोड़ा ही खराब था?' कृश ने मुंह बनाकर उत्तर दिया। "महाराज बड़े क्रोध में थे उस समय और हाथ में नंगी तलवार थी? तलवार मेरी ही गर्दन पर चल जाती तो?" श्रृंगी ने प्रेम और गर्व से अपने वृद्ध पिता की ओर देखा। मरा सांप देखकर उनको क्रोध आ रहा था। "महाराज ने मेरे पिता का अपमान करके बहुत बुरा किया," उन्होंने कहा। "क्या वह इनके मुख पर यह तेज नहीं देख सके? इनकी आंखों में गरिमा नहीं देख सके?" "राजा लोग यह सब कुछ नहीं देखते," राजाओं के बारे में अपनी सम्मति को इस संक्षिप्त उत्तर में बता दिया कृश ने।
पिता के दुबले-सूखे शरीर पर राजा के अपमानजनक आचरण के प्रमाण को शृंगी जितना ही देखते, उनका क्रोध उतना ही बढ़ता जाता। आखिर उनसे अब और अधिक नहीं सहा गया और उनका सारा क्रोध शाप बनकर उनके मुंह से फूट पड़ा, "भले ही राजा हो, लेकिन वह नीच है जिसने मेरे महान पिता के गले में मरा हुआ सांप डाला। उसने मेरे पिता का ही अपमान नहीं किया, इन सारे वानप्रस्थियों का अपमान किया है जिन्होंने राजा को कभी कोई हानि नहीं | पता
पहुंचायी। मैं राजा को शाप देता हूं। कुरु वंश के उज्ज्वल नाम को कलंकित करने वाले इस अहंकारी राजा की, आज से सात रोज के अंदर, सर्पराज तक्षक के काटने से मृत्यु हो जायेगी।" इस भयानक शाप के शब्द शृंगी के मुख से निकले ही थे कि उनके पिता ने विचलित होकर अपनी समाधि तोड़ दी और भय से अपने पुत्र के मुंह की ओर देखने लगे। उनके बेटे ने क्रोध में आकर जो कुछ कह डाला था उससे मानों उन पर वज्रपात-सा हुआ। अपने मौन को तोड़ते हुए, आहत स्वर में बोले, "शृंगी, मेरे बेटे, तुमने यह क्या कर डाला? तुमने नेक राजा परीक्षित को शाप दे डाला जिन्होंने सदा हमारी रक्षा की है, जिनकी कृपा से ही हम वन में शांति के साथ निर्भय होकर रह रहे हैं। तुमने किस कारण ऐसा पागलपन किया? क्या सन्यासियों का यही धर्म है? भगवान ही जानता है कि तुम्हारे क्रोध को वश में न रख पाने के कारण कैसा संकट आयेगा, कैसी अराजकता फैलेगी। तुमने राजा परीक्षित को शाप नहीं दिया, सारे राज्य को शाप दे डाला है, शृंगी। किसी भी दशा में ऐसा करना बहुत ही बुरा होता। राजा परीक्षित के साथ ऐसा करना तो और भी बुरा है क्योंकि वह दंड के भागी नहीं हैं।" श्रृंगी का क्रोध उतर चुका था। पिता की बात सुनकर वह पश्चात्ताप से सिर झुकाये खड़े रहे, फिर रोने लगे। "दुख की बात है कि तुम शाप को वापस भी नहीं ले सकते," शमीक ने दुख से विकल होकर कहा। “तुमने अपने अनुशासन और अपनी विद्वत्ता से यह वरदान पा लिया है कि तुम्हारे मुख से निकली हर बात सच होकर रहेगी। यह जान कर ही मैंने तुम्हें बार-बार समझाया था बेटे, कि बोलने से पहले सौ बार सोच लिया करो।" वृद्ध शमीक विचार में डूबे बैठे रहे। फिर अचानक उठकर बोले, “गौरमुख को मेरे पास भेज दो। उसे मैं तुरंत राजमहल भेजूंगा कि वह महाराज को शाप की बात बताकर उन्हें सावधान रहने के लिए कह दे।" राजा परीक्षित ने चुपचाप गौरमुख का संदेश सुना। वह दुखी होकर बुदबुदाये, “तो वह सन्यासी के मौन का दिन था! मुझे समझ जाना चाहिए था। दोष मेरा था। लेकिन यह शमीक की दया है जो उन्होंने मुझको सावधान कर दिया। कृपा करके उन्हें मेरा प्रणाम कहना और कहना कि मैं उनका कृतज्ञ हूं।"
यह कह कर गौरमुख को तो उन्होंने तुरंत विदा कर दिया और सलाह के लिए अपने मंत्रिमंडल को बुला भेजा। मंत्रियों के आने से पहले राजा ने कश्यप को संदेश भिजवाया कि वह तुरंत महल में आ जायें। कश्यप ब्राह्मण थे और सबसे अधिक विषैले सांप के काटे का भी इलाज कर सकते थे। मंत्रिमंडल के निर्णय के बाद शिल्पी और राज-मिस्त्री महल में बुलवाये गये और रात ही रात में एक अजीब-सी इमारत खड़ी कर दी गयी बस, एक ऊंचे खंभे पर एक बड़ा कमरा। इसी कमरे में राजा रहने लगे खंभे के नीचे और कमरे के बाहर सशस्त्र संतरी खड़े थे। उनको कठोर निर्देश था कि कोई कीड़ा भी कमरे के अंदर न घुसने पाये। परिवार के लोगों और मंत्रियों को छोड़, राजा के पास जाने की अनुमति किसी को नहीं थी। जब कश्यप राजा का आदेश पाकर जल्दी-जल्दी महल की ओर जा रहे थे तो रास्ते में एक बूढ़ा ब्राह्मण बैठा दिखा। वह बहुत ही दुखी लग रहा था। कश्यप ने पूछा, “क्या हुआ, भाई? सड़क के किनारे इस तरह दुखी क्यों बैठे हो?" ब्राह्मण ने कहा, “वही कारण है जो आपको इस सड़क पर लिये जा रहा है।"
"वही कारण है?" चकित होकर कश्यप ने पूछा, “पर मैं तो महाराज के दर्शनों के लिए जा रहा हूं। क्या तुम भी वहीं जा रहे हो?" "हां"। "राजा को धमकी दी गयी है कि वे नागराज तक्षक द्वारा काटे जायेंगे। उन्हीं की चिकित्सा के लिए मुझे बुलवाया गया है। लेकिन भला आपको क्या काम वहां?" “मैं उनको मारने जा रहा हूं।" कहते ही ब्राह्मण ने अपना असली रूप धारण कर लिया। असल में वह सर्पराज तक्षक था। “यह तो अजीब स्थिति है," कश्यप ने कहा। "तुम उन्हें मारने जा रहे हो और मैं जिलाने। हम साथ-साथ चलें या अलग-अलग?" तक्षक ने पूछा, “क्या आपको विश्वास है कि आप मेरे विष से राजा को बचा सकेंगे?" "हां," कश्यप ने बिना किसी संकोच के कहा। "साबित कीजिए," तक्षक ने चुनौती दी। “मैं इस पौधे को डसता हूं। देखें आप इसे फिर से जिला सकते हैं या नहीं।" यह कहकर सर्पराज ने अपना मुंह खोला और पौधे को डसकर उसकी जड़ में गहराई तक अपना विष फैला दिया। कुछ क्षणों में पौधा इस प्रकार भस्म हो गया मानों अंदर की आग से जल गया हो। अपने काम से बहुत संतुष्ट होकर तक्षक ने कश्यप से कहा, "चलिए, अब अपनी शक्ति आजमाइए।' " कश्यप ने मुट्ठी-भर राख उठा ली, और प्रार्थना की मुद्रा में आंखें मूंद कर, उसमें हल्की-सी फूंक मारी। फिर राख को उसी जगह गाड़ दिया जहां से उसे उठाया था। कुछ ही देर में वहां हरा अंकुर निकल आया, फिर उसमें दो हरी पत्तियां फूट निकलीं। फिर हरा तना बढ़ने लगा, उसमें नयी-नयी पत्तियां निकलने लगीं और थोड़ी ही देर में पौधा वैसा ही हो गया जैसा पहले था।
तक्षक पहले तो घोर आश्चर्य से यह सब कुछ देखता रहा, फिर हार मान गया। इस प्रकार की चीज उसके लिए नयी नहीं थी। वह कई साधु-सन्यासियों से मिलता रहता था जो ऐसे करिश्मे करते थे और प्रार्थना के बल पर ही चमत्कार कर दिखाते थे। तक्षक ने कश्यप से कहा, "मैं आपकी शक्ति मानता हूं। लेकिन राजा परीक्षित के मामले में इसका प्रयोग मत कीजिएगा। इसका कारण है।" "क्या कारण है?" कश्यप ने पूछा। “पहले मैं आपसे एक प्रश्न पूछता हूं,” उसने कश्यप से कहा। “क्या आप किसी की होनी में दखल देना उचित समझेंगे?" "नहीं, उचित तो नहीं समझता। लेकिन यह होनी नहीं, अभिशाप है जो होनी में दखल दे रहा है।" "नहीं, आपका विचार गलत है," तक्षक ने कहा। "मैं राजा को समय से ले मारने के लिए नहीं जा रहा हूं। मैं तो मृत्यु को बुलाने जा रहा हूं क्योंकि उनके भाग्य में यही लिखा है। मुझे यमराज ने भेजा है-जन्म और मृत्यु के लेखे के अनुसार शृंगी ने जो कुछ कह डाला वह शाप नहीं, भविष्यवाणी थी।"
" कश्यप गहरे विचार में डूबे खड़े रहे। “तो क्या राजा परीक्षित के भाग्य में लिखा है कि वे सात दिन के भीतर ही मर जायेंगे?" उन्होंने पूछा, "शृंगी ने शाप न दिया होता तो भी क्या यही होता?' "देवताओं ने यही उनके भाग्य में लिखा था। मैं तो केवल मृत्यु-देवता का दूत हूं, समय से पहले ही किसी को समाप्त कर देने का साधन नहीं।" 'तब तो मैं इसमें हस्तक्षेप नहीं करूंगा, “ यह कहकर कश्यप अपने आश्रम वापस चले गये। तक्षक बड़ी देर तक राजा के कक्ष में घुसने की तरकीब सोचता रहा। शृंगी की भविष्यवाणी के सातवें दिन उसे एक तरकीब सूझी। उसने झटपट अपने कुछ सर्प मित्रों को बुला भेजा और उन्हें आदेश दिये। उसने कहा, “यह काम धोखे से ही किया जा सकता है। राजा की रक्षा का इंतजाम बहुत पक्का है।" उस समय राजा परीक्षित, उनके परिवार के लोग और उनके दरबारी इस बात की खुशी मना रहे थे कि छह दिन बिना किसी संकट के टल गये। सातवां दिन भी समाप्त होनेवाला था। सूर्यास्त के साथ-साथ शाप का भी अंत हो जायेगा, और दिन डूबने को कुल एक घंटा बाकी था। उस दिन काफी संध्या बीते कुछ साधु-सन्यासी खंभे के नीचे खड़े दिखायी दिये। एक ने प्रहरियों से कहा, "हम फल-फूल की भेंट लेकर महाराज को आशीर्वाद देने बहुत दूर से आये हैं।' प्रहरियों ने सन्यासियों के कपड़ों और फल-फूल की टोकरी की अच्छी तरह तलाशी ली। जब संदेह की कोई बात न दिखायी दी तो उन्हें राजा के पास जाने दिया। उन्होंने सोचा, शाम का समय करीब-करीब बीत चुका है, राजा को अगर ये सन्यासी आशीर्वाद देने गये तो कोई हर्ज नहीं। सन्यासियों ने फल-फूल की टोकरी राजा को भेंट की, उन्हें आशीर्वाद दिया और बाहर चले गये। जंगल में पहुंच कर सन्यासियों ने अपना सर्प का असली रूप धारण कर लिया और जंगल की हरियाली में गायब हो गये। सूर्यास्त का समय हुआ। राजा के कक्ष में खुशियां मनायी जा रही थीं। बस थोड़ी देर और, फिर शाप का समय निकल जायेगा, और राजा को नयी आयु मिलेगी। राजा ने अपने परिवार और मंत्रियों को बुलाकर कहा, “सूरज डूब रहा है। आओ, हमारे साथ ये स्वादिष्ट फल खाओ जो कृपालु सन्यासी दे गये हैं।" दरबारियों ने हाथ बढ़ाकर अपनी-अपनी पसंद का फल उठा लिया। राजा का हाथ एक रसीले आम पर पड़ा। उन्होंने आम चूसा, बड़ा ही स्वादिष्ट था। कुछ देर बाद उन्होंने देखा कि उसकी गुठली में एक नन्हा सा कीड़ा है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। प्रायः रसभरे आमों की गुठालियों में कीड़े निकल आते थे। राजा ने खिड़की से बाहर अस्त होते हुए सूर्य को देखा और हंसकर उस नन्हे काले कीड़े को लक्ष्य करके बोले, “अब तक्षक के आने का समय नहीं रहा। बोलो नन्हे कीड़े, तुम जानते हो कि तुम्हारा राजा अपने काम में असफल क्यों हो गया? लेकिन तुम्हें भला क्या मालूम? इसका उत्तर तो तक्षक ही दे सकता है।" इतना कहना था कि राजा की भय से फैली आंखों ने देखा कि वह नन्हा-सा काला कीड़ा अचानक बढ़कर एक बड़ा शानदार नाग बन गया। जैसे-ही सूर्य पश्चिम में डूबा, तक्षक ने अपना विशाल फन फैलाया और राजा परीक्षित को तुरंत डस लिया।