बहुत, बहुत दिन हुए, धौम्य नाम के एक ऋषि थे। उनके आश्रम में अनेक बालक पढ़ा करते थे। उनमें से एक का नाम था उपमन्यु। उपमन्यु और दूसरे बालक गुरुजी के साथ आश्रम में ही रहते थे और शिक्षा ग्रहण करते थे। आश्रम के नियम बड़े ही कठोर थे। आज्ञाकारिता के बारे में तो बड़ा ही कठिन नियम था। गुरुजी के प्रत्येक आदेश का पालन आंखें बंद करके करना होता था। प्रश्न या किसी प्रकार की शंका करना मना था। इसी प्रकार दूसरा कठोर नियम था भोजन के बारे में। आश्रम के विद्यार्थी बालक निकट के गांवों से भिक्षा में पका-पकाया भोजन ले आया करते थे। वे जो कुछ लाते, गुरुजी के आगे रख देते। फिर गुरुजी सबको भोजन बांटते और उसी में से अपने लिए भी निकाल लेते। रोज का यही नियम था। आश्रम के अहाते में फलों के बाग थे और दूध के लिए कई गऊएं भी थीं। बालको को दो विषय सिखाये जाते थे-धर्म और युद्ध की कला। जो लड़के बड़े होकर आचार्य या पुरोहित बनना चाहते थे, वे वेद आदि का अध्ययन करते आश्रम के और धार्मिक संस्कारों, जैसे विवाह, यज्ञोपवीत, यज्ञ, श्राद्ध आदि कराने की विधि और मंत्रोच्चार सीखते थे। जो लड़के सैनिक बनना चाहते थे वे शस्त्र-विद्या और युद्ध के नियम आदि सीखते थे।
गुरु केवल शिक्षक ही नहीं, वे बालकों के माता-पिता भी थे। लड़कों के मां-बाप उन्हें गुरुजी की देख-रेख में छोड़ जाते थे और वे उन्हीं के समान बड़े प्रेम और ममता से अपने विद्यार्थियों की देखभाल किया करते थे। वे इसका पूरा ध्यान रखते कि उनके मस्तिष्क का ठीक विकास हो, साथ हो उनके चरित्र का निर्माण भी ठीक हो और शरीर भी निरोग रहे। गुरुजी लड़कों की आदतों पर कड़ी दृष्टि रखते। अनुशासन के बारे में तो वे बड़े कठोर थे। कोई बालक बीमार पड़ जाता तो तन-मन से उसकी सेवा करते, लेकिन उससे कोई अपराध हो जाता तो कड़ी से कड़ी सजा भी देते। ऐसा था उनका नियम। उनके आदेशों के बारे में प्रश्न करने का साहस राजा को भी नहीं था। एक दिन धौम्य ने उपमन्यु को बुलाकर कहा, "बेटा उपमन्यु, राजा एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। मेरी इच्छा है कि तुम कुछ दिन उनके पास जाकर रहो। तुम उनकी सहायता करना और देखना कि पंडित लोग किस प्रकार अपना काम करते हैं। उपमन्यु खुशी-खुशी राजा के महल की ओर चल पड़ा। उसे वहां राजा की खास सेवा में नियुक्त किया गया। उपमन्यु बड़ा ही परिश्रमी और हंसमुख बालक था, इस कारण सभी लोग उससे बहुत प्रसन्न थे।
जब कुछ दिनों बाद वह अपने आश्रम में लौटा तो गुरुजी ने उसे बुल भेजा। गुरुदेव ने पूछा, "बेटा उपमन्यु, क्या तुम इतने दिनों तक उपवास करते रहे?" "नहीं तो, गुरुदेव," उपमन्यु ने चकित होकर उत्तर दिया। "मेरी भी यही धारणा थी।" गुरुदेव ने कहा, “तुम काफी हृष्ट-पुष्ट लग रहे हो। तुमने महल के बढ़िया-बढ़िया पकवान छककर तो नहीं खाये?" "नहीं, गुरुदेव। मैंने महल के पक्वान नहीं खाये। सदा की तरह अपना भोजन गांव से ही मांग कर लाता था। गांव महल से तीन मील दूर ही तो है।" गुरुजी ने कहा, "लेकिन मैंने तो तुम आश्रम में भोजन लाते नहीं देखा।" उपमन्यु को सहसा याद आया कि आश्रम के नियम के अनुसार उसे सारा खाना गुरुजी के आगे लाकर रख देना चाहिए था। उसने अपना माथा ठोक कर भूल स्वीकार की ओर गुरुदेव से क्षमा मांगी। उस दिन उपमन्यु ने भिक्षा में मिला सारा भोजन लाकर गुरुजी के आगे रख दिया। उन्होंने खाना रखवा लिया और इशारे से उसको चले जाने को कह दिया। उपमन्यु सारा दिन प्रतीक्षा करता रहा लेकिन किसी ने उसको खाना नहीं दिया। वह भूखा ही सो गया। दो दिन बाद धौम्य ने उपमन्यु को फिर बुला भेजा। उन्होंने सोचा कि भूख के
मारे वह अधमरा-सा हो गया होगा। लेकिन उनको देखकर आश्चर्य हुआ कि लड़का पहले की ही तरह चुस्त और स्वस्थ लग रहा है। धौम्य ने कहा, "उपमन्यु मैंने दो दिन तक तुम्हारा लाया हुआ सारा भोजन रखवा लिया और तुमको भूखा रखा। मैंने सोचा था कि तुम भूख के मारे कमजोर हो गये होगे। लेकिन तुम तो वैसे ही चुस्त हो और पहले की ही तरह दौड़-भाग कर रहे हो। इसका क्या रहस्य है?" "गुरुदेव!," उपमन्यु ने उत्तर दिया, “मैं गांव में दोबारा भिक्षा मांगने जाता उसका उत्तर सुनकर धौम्य अप्रसन्न हुए। “तुमने फिर मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया? मैंने कितनी बार बताया है, गांव से दिन में केवल एक बार भोजन लाया जायेगा। बताया था न? उत्तर दो, उपमन्यु !" "हां, गुरुदेव !,' उपमन्यु ने क्षीण स्वर में कहा। “भूख के मारे मैं यह भूल गया था।" धौम्य ने गंभीर स्वर में कहा, “तुमको ध्यान रखना चाहिए कि यह गांव केवल हमारे आश्रम की ही सहायता नहीं करता, औरों की भी करता है। उनका कृतज्ञ होने के बजाय तुमने लोभ किया, उनसे दोबारा भोजन मांगा। जाओ, गऊओं को चराने ले जाओ और मैंने जो कुछ कहा है, उस पर विचार करो।" उपमन्यु का दंड जारी रहा। वह गांव से खाना ला कर आश्रम में दे देता। उसके बाद वह भोजन उसकी आंखों के आगे न आता। आश्रम में सब लोग खाते-पीते, केवल उपमन्यु को खाना न मिलता। इस प्रकार तीन दिन और गुजर गये। गुरुजी इसकी प्रतीक्षा कर रहे थे कि उपमन्यु आकर खाना मांगे। लेकिन वह न आया। यही नहीं, आश्चर्य की बात तो यह थी कि वह उसी प्रकार दौड़-भाग कर अपना काम भी कर रहा था। कमजोरी का नाम-निशान भी नहीं। आखिर गुरुजी ने उसे फिर बुला भेजा और उससे पूछा, “कहो उपमन्यु! आज
& तुम्हें गऊओं के साथ जाने में कोई कठिनाई हुई?' "नहीं तो गुरुदेव !,' उपमन्यु ने कुछ हैरानी से कहा, "जरा भी नहीं।" बड़े शांत स्वर में धौम्य ने कहा, "मैं इसलिए पूछ रहा था क्योंकि तुमने दो दिन से खाना नहीं खाया है। क्या भूख के मारे तुम्हारी टांगे नहीं कांपती? सिर नहीं चकराता?" "लेकिन गुरुदेव, मैं भूखा तो नहीं था," उपमन्यु ने कहा। "क्या?'' अब गुरुदेव की बारी थी हैरान होने की। “क्या तुमने इसी अवस्था में भूख पर विजय पा ली है?" उपमन्यु ने धीरे से कहा, "मैंने गाय का दूध पी लिया था।" गुरुदेव कुछ देर चुप रहे। उपमन्यु का बुरा हाल था। गुरुजी को क्रोध भी हुआ और दुख भी। कुछ क्षणों बाद वह बोले, “उपमन्यु, मैंने देखा है कि तुम झूठ कभी नहीं बोलते। तुम स्वच्छ रहते हो। पढ़ाई में मन लगाते हो। प्रसन्न रहते हो और दूसरों को भी प्रसन्न रखते हो। लेकिन तुम अपने पेट के इतने वश में हो कि उसकी खातिर नियम तक भूल जाते हो और स्वार्थी बन जाते हो। अपने ऊपर तुम बिल्कुल काबू नहीं रख पाते। और बेटे, मैंने तुम्हें कितनी बार बताया है कि जिस व्यक्ति का शरीर उसके दिमाग का आदेश नहीं मानता, वह कोई भी गलत काम कर सकता है। मेला-तमाशा देखने की खातिर झूठ बोलेगा, भूख को शांत करने के लिए चोरी करने से भी नहीं हिचकिचायेगा, और कीमती वस्त्रों के लिए लोगों को धोखा देगा। क्या यही सब सीखने के लिए तुम्हारे पिताजी ने तुम्हें मेरे हवाले किया था? बोलो, उपमन्यु !"
गुरुदेव यदि उपमन्यु को बुरा-भला कहते, डांटते-डपटते तो वह शायद इतना लज्जित न होता जितना उनके ठंडे और दुखभरे स्वर को सुनकर हुआ। उसने उसी क्षण संकल्प कर लिया कि गुरुदेव को कभी अप्रसत्र होने का अवसर नहीं देगा। उसने सिर झुकाकर, विनय से कहा, "गुरुदेव, जब तक आप स्वयं अपने हाथों से नहीं देंगे, मैं कुछ नहीं खाऊंगा।" उस दिन उपमन्यु ने कुछ नहीं खाया। दूसरे दिन भी भूखा रहा। तीसरे दिन हमेशा की तरह वह गऊओं को हांक कर जंगल में ले गया तो भूख के मारे उसकी जान निकली जा रही थी। आखिर उसने एक पेड़ के रसभरे पत्ते तोड़कर खा लिये। लेकिन दुर्भाग्य से वह साधारण पेड़ नहीं था। उसकी पत्तियां दवा के काम आती थीं। पत्तियों की गंध इतनी तेज थी कि उपमन्यु की आंखें जलने लगीं, उनमें पानी भर आया और अचानक उसकी दृष्टि जाती रही। वह अंधा हो गया। डर के मारे उसके होश-हवास उड़ गये। टटोलता-टटोलता, गिरता-पड़ता, वह आश्रम की ओर लौटने लगा। वह चाहता था कि अंधेरा होने से पहले आश्रम पहुंच जाय। लेकिन सामने का रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। बार-बार भटक जाता था। वह गलत रास्ते पर जा निकला और एक गहरे अंधेरे गड्ढे में गिर पड़ा। डर के मारे वह पड़ा रोता रहा। धीरे-धीरे रात हो गयी। जब काफी अंधेरा हो गया और धौम्य ने उपमन्यु को आश्रम में नहीं पाया तो दूसरों से पूछताछ की। एक छात्र ने कहा, "वह गऊओं को चराने के लिए जंगल की ओर गया था। गऊएं तो लौट आयीं, लेकिन वह नहीं आया अभी तक।" गुरुदेव झटपट उठ खड़े हुए और बोले, "अंधेरा हो रहा है, चलो उसे ढूंढें।" शिष्यों को साथ लेकर गुरुदेव उपमन्यु को ढूंढ़ने जंगल की ओर चल पड़े।
जहां-जहां वह जाया करता था, सभी जगह उन्होंने देख लिया। उसका पता न चला। अंत में एक अनजाने रास्ते पर चलते-चलते वह जोर-जोर से पुकारने लगे, "उपमन्यु ! कहां हो बेटा? मेरी आवाज सुन रहे हो?" रोते-रोते शककर रखमान्य सो गया था। रामदेव की पकार कानों में पटी तो ोंककर उठ बैठा। “मैं यहां हूं, गुरुदेव,” उसने चिल्लाकर कहा। "इस गड्ढे में पड़ा हूं।" आखिर गुरुदेव ने उसको देख लिया। वह बेहद डरा हुआ था, उसके कपड़े तार-तार हो गये थे, गालों पर आंसू की लकीरें थीं। गड्ढे के किनारे खड़े धौम्य ने नीचे झांककर उपमन्यु को देखा और पूछा, “तुम इस गड्ढे में क्यों बैठे हो, उपमन्यु?" अपने दुख और अभिमान को कठिनाई से दबाकर उपमन्यु ने कहा, “गुरुदेव, मैं अपनी इच्छा से यहां नहीं पड़ा हूं। मैं इसमें गिर गया। भूख पेड़ के पत्ते खा लिये। उनको खाते ही मेरी आंखें जलने लगी और मेरी दृष्टि एकदम धुंधली हो गयी। मुझे लगता है कि मैं अंधा हो गया हूं, गुरुदेव।" फिर के मारे एक
रुककर उसने पूछा, "गऊएं तो ठीक-ठाक हैं न?" उपमन्यु के मित्रों ने उसको आश्वासन दिया कि गऊएं सही-सलामत आश्रम में लौट आयी थीं। धौम्य ने उपमन्यु से उस पेड़ का वर्णन करने को कहा जिसकी पत्तियां खाकर वह अपनी आंखें गंवा बैठा था। उपमन्यु बता चुका तो गुरुदेव ने कहा, "उपमन्यु, मेरा विचार है कि तुम यहीं रहो और भगवान से प्रार्थना करो कि वह तुम्हारी दृष्टि लौटा दे। यदि तुम सच्चे मन से प्रार्थना करोगे तो ईश्वर तुम्हारी अवश्य सहायता करेगा। यह तो तुम जानते हो, है न? जब तुम्हारी दृष्टि तुम्हें वापस मिल जाय तो आश्रम में लौट आना।" धौम्य का फैसला सुनकर उपमन्यु समझ गया कि गुरुदेव उसको चुनौती दे गये हैं। यह उसकी परीक्षा है। उसका मन साहस और गर्व से भर गया। उसे लगा कि वह बच्चा नहीं रहा, अचानक बड़ा हो गया है। उसने विनय से सिर झुकाकर गुरुदेव का आदेश स्वीकार किया। आसन लगाकर ध्यान की मुद्रा में बैठ गया और प्रार्थना में लीन हो गया। उसके मित्र आश्चर्य से मुंह फाड़े उसकी ओर देखते रहे। गुरुदेव ने उनका ध्यान भंग करते हुए कहा, “चलो, आश्रम लौट चलें।" सब लौट गये।
जंगल में बिल्कुल अंधेरा था। डरावनी आवाजें आ रही थीं। लेकिन अब उपमन्यु के मन में जरा भी भय नहीं था। पहले तो वह जोर-जोर से प्रार्थना करता रहा, “हे परमेश्वर, त्रिभुवन के स्वामी, मेरी रक्षा करो। मेरी दृष्टि लौटा दो, प्रभु। तुम दयावान हो, पतितपावन हो, जग के पालनकर्ता हो। मेरी मूर्खता को क्षमा करो, भगवान। मेरी गलतियों को क्षमा करो जिनके कारण मुझको यह दंड मिला।" फिर उपमन्यु अपनी प्रार्थना में लीन हो गया। उसे किसी चीज की सुध-बुध नहीं रह गयी। उसकी आंखें मुंदी थीं, होंठ हिल रहे थे... । उसका सारा शरीर शिथिल हो गया था। इतने में उपमन्यु को लगा कि अश्विनी कुमार नामक जुड़वां तारे आकाश से उतरकर उसके सामने आ खड़े हैं। गुरुदेव ने बताया था कि अश्विनी कुमार देवताओं के वैद्य हैं। जगमग-जगमग करते वे उसके सामने खड़े पूछ रहे थे, “तुमने हमें पुकारा था, उपमन्यु? हमसे क्या चाहते हो?" उपमन्यु ने उनसे विनती की कि उसकी आंखें ठीक कर दें। मुस्कराकर अश्विनी कुमारों ने उसको एक टिकिया दी जिसमें दवा मिली हुई थी और उससे खाने को कहा। उपमन्यु एक टुकड़ा तोड़कर मुंह में डालने ही वाला था कि अचानक उसे आश्रम के नियम की याद आ गयी। उसने टिकिया को मुट्ठी में बंद कर लिया। अश्विनी कुमारों से उसने कहा, “मैं इसके लिए आपका कृतज्ञ "तुम इसे खाते क्यों नहीं?" उन्होंने पूछा। उपमन्यु ने कहा, “मैं इसे अपने गुरु को भेंट करूंगा। हमारे आश्रम का यही नियम है।" अश्विनी कुमारों ने उसकी ओर चुभती नजर से देखकर पूछा, “तो क्या बीमारी में भी नियम नहीं तोड़े जा सकते?"
"नहीं, जब तक गुरुजी अनुमति न दे दें,' उपमन्यु ने दृढ़ता से कहा। उपमन्यु को ऐसा लगा कि उसका उत्तर सुनकर अश्विनी कुमारों ने मुस्कराकर एक दूसरे की ओर देखा। फिर उन्होंने हाथ उठाकर उसको आशीर्वाद दिया और उसके बाद आकाश में उड़ गये और फिर तारे बन कर चमकने लगे। सुबह-सुबह जब उपमन्यु ने आंखें खोली तो पेड़ों पर चिड़ियां चहक रही थीं। कैसा चमत्कार! उसकी दृष्टि लौट आयी थी! वह पहले की तरह ही देख सकता था। ऊपर नीले आकाश में रूई के गोले जैसे सफेद बादल तैर रहे थे। ऊंचे-ऊंचे पेड़ों से छन कर सूरज की किरणें कलियों पर पड़ती थीं और वे चटक कर खिल उठती थीं। यह सब कुछ उपमन्यु देख सकता था। उसने वह गड्ढा भी देखा जिसमें वह रात भर पड़ा रहा था। जब वह उठा तो गीली मिट्टी पर पड़ी अपने शरीर की छाप को भी उसने देखा। उसकी मुट्ठी में अब भी कुछ बंद पड़ा था। उपमन्यु ने सोचा, यह जरूर वह टिकिया होगी जो अश्विनी कुमारों ने उसको दी थी। मुट्ठी में टिकिया संभाले वह किसी प्रकार गड्ढे से बाहर निकला और दौड़ता हुआ आश्रम पहुंचा। इस समय न तो उसको कमजोरी लग रही थी, और न डर। उसके शरीर में स्फूर्ति थी और हृदय आनंद से भरा था। आश्रम पहुंच कर वह सीधा गुरुदेव के पास पहुंचा। गुरुदेव ने उसे देखा लेकिन कुछ कहा नहीं। वह सुनना चाहते थे कि उपमन्यु को क्या कहना है।
"मैं वापस आ गया, गुरुदेव,” उपमन्यु ने कहा। “अश्विनी कुमारों ने मेरी आंखें ठीक कर दी हैं। उन्होंने मुझे कुछ खाने को दिया था।" फिर उसने गर्व से सिर ऊंचा कर के गुरुजी की ओर देखकर कहा, "लेकिन मैंने नहीं खाया। देखिए गुरुदेव, यह चीज अभी तक मेरी मुट्ठी में बंद पड़ी है। जब तक आप नहीं कहेंगे, मैं नहीं खाऊंगा।" यह कह कर उसने मुट्ठी खोली तो क्या देखता है कि उसमें जंगल की मिट्टी भरी है। हैरान होकर उपमन्यु ने पूछा, “तो क्या वह स्वप्न था?" अब धौम्य बोले। उन्होंने कहा, "तुम्हारे लिए तो वह सत्य ही था, उपमन्यु। उतना ही जितना कि तुम्हारी दृष्टि का वापस आ जाना सच है। मुझे आशा है कि तुम्हारी भूख भी लौट आयी होगी, बेटा।" इसके पहले कि उपमन्यु कुछ उत्तर दे पाता, गुरुदेव ने फिर कहा, “कल हममें से न तो किसी ने खाना खाया और न कोई सोया। चलो, जल्दी से स्नान कर आओ। फिर हम सब चलकर दही-भात खायें।"