श्रीमैत्रेयजी बोले -
आपने महात्मा मनुपुत्रोंके वंशोंका वर्णन किया और यह भी बताया कि इस जगत्के सनातन कारण भगवान् विष्णु ही हैं ॥१॥
किन्तु भगवान् ! अपने जो कहा दैत्यश्रेष्ठ प्रह्लादजीको न तो भगवन् ! अपने जो कहा कि दैत्यश्रेष्ठ प्रह्लादजीको न तो अग्निने ही भ्रस्म किया और न उन्होंने अस्त्र-शस्त्रोसे आघात किये जानेपर ही अपने प्राणोंको छोड़ा ॥२॥
तथा पाशबद्भ होकर समुद्रके जलमें पड़े रहनेपर उनके हिलतेडुलते हुए अंगोंसे आहत होकर पृथिवी डगमगाने लगी ॥३॥
और शरीरपर पत्थरोंकी बौछार पड़नेपर भी वे नहीं मरे । इस प्रकार जिन महाबुद्धिमान्का आपने बहुत ही माहात्म्य वर्णन किया है ॥४॥
हे मुने ! जिन अति तेजस्वी महात्माके ऐसे चरित्र हैं, मैं उन परम विष्णुभक्तका अतुलित प्रभाव सुनना चाहता हूँ ॥५॥
हे मुनिवर ! वे तो बड़े ही धर्मपरायण थे; फिर दैत्योंने उन्हें क्यों अस्त्र-शस्त्रोंसे पीड़ीत किया और क्यों समुद्रके जलमें डाला ? ॥६॥
उन्होंने किसलिये उन्हें पर्वतोंसे दबाया ? किस कारण सर्पोंसे डँसाया ? क्यों पर्वतशिखरसे गिराया और क्यों अग्निमें डलवाया ? ॥७॥
उन महादैत्योंने उन्हें दिग्गजोंके दाँतोसे क्यों रुँधवाया और क्यों सर्वशोषक वायुको उनके लिये नियुक्त किया ? ॥८॥
हे मुने ! उनपर दैत्यगुरुओंने किसलिये कृत्याका प्रयोग किया और शम्बरासुरने क्यों अपनी सहस्त्रों मायाओंका वार किया ? ॥९॥
उन महात्माको मारनेके लिये दैत्यराजके रसोइयोंने, जिसे वे महाबुद्धिमान् पचा गये थे ऐसा हलाहल विष क्यों दिया ? ॥१०॥
हे महाभाग ! महात्मा प्रह्लादका यह सम्पूर्ण चरित्र, जो उनके महान् माहात्म्यका सूचक है, मैं सुनना चाहता हूँ ॥११॥
यदि दैत्यगण उन्हें नहीं मार सके तो इसका मुझे कोई आश्चर्य नहीं हैं, क्योंकि जिसका मन अनन्यभावसे भगवान् विष्णुमें लगा हुआ है उसको भला कौन मार सकता है ? ॥१२॥
( आश्चर्य तो इसीका है कि ) जो नित्यधर्मपरायण और भगवदाराधनामें तत्पर रहते थे, उनसे उनके ही कुलमें उप्तन्न हुए दैत्योंनें ऐसा अति दुष्कर द्वेष किया ! ( क्योंकि ऐसे समदर्शी और धर्मभीरू पुरुषोंसे तो किसीका भी द्वेष होना अत्यन्त कठिन है ) ॥१३॥
उन धर्मात्मा, महाभाग, मत्सरहीन विष्णु-भक्तको दैत्योंने किस कारणसे इतना कष्ट दिया, सो आप मुझसे कहिये ॥१४॥
महात्मालोग तो ऐसे गुण-सम्पन्न साधु पुरुषोंके विपक्षी होनेपर भी उनपर किसी प्रकरका प्रहार नहीं करते, फिर स्वपक्षमें होनेपर तो कहना ही क्या हैं ? ॥१५॥
इसलिये है मुनिश्रेष्ठ ! यह सम्पूर्ण वृत्तान्त विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये । मैं उन दैत्यराजका सम्पूर्ण चरित्र सुनना चाहता हुँ ॥१६॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे षोडशोऽध्यायः ॥१६॥