श्रीमैत्रेयजी बोले -
हे विप्रर्षे ! आपने यह सात अतीत मन्वन्तरोंकी कथा कहीं, अब आप मुझसे आगामी मन्वन्तरोंका भी वर्णन कीजिये ॥१॥
श्रीराशरजी बोले -
हे मुने ! विश्वकर्माकी पुत्री संज्ञा सूर्यकी भार्या थी । उससे उनके मनु, यम और यमी - तीन सन्तानें हुई ॥२॥
कालन्तरमें पतिका तेज सहन न कर सकनेके कार्ण संज्ञा छायाको पतिकी सेवामें नियुक्त कर स्वयं तपस्याके लिये वचको चली गयी ॥३॥
सूर्यदेवने यह समझकर कि यह संज्ञा ही है, छायासे शनैश्वर, एक और मनु तथा तपती - ये तीन सन्तानें उप्तन्न कीं ॥४॥
एक दिन जब छायारूपिणी संज्ञाने क्रोधित होकर ( अपने पुत्रके पक्षपातसे ) यमको शाप दिया तब सूर्य और यमको विदित हुआ कि यह तो कोई और है ॥५॥
तब छायाके द्वारा ही सारा रहस्य खुल जानेपर सूर्यदेवने समाधिमें स्थित होकर देखा कि संज्ञा घोड़ीका रुप धारण कर वनमें तपस्या कर रही हैं ॥६॥
अतः उन्होंने भी अश्वरूप होकर उससे दो अश्विनीकुमार और रेतः स्त्रावके अनन्तर ही रेवन्तको उप्तन्न किया ॥७॥
फिर भगवान् सूर्य संज्ञाको अपने स्थानपर ले आये तथा विश्वकर्माने उनके तेजको शान्त कर दिया ॥८॥
उन्होंने सूर्यको भ्रमियन्त ( सान ) पर चढ़ाकर उनका तेज छाँटा, किन्तु वे उस अक्षुण्ण तेजका केवल अष्टमांश ही क्षीण कर सके ॥९॥
हे मुनिसत्तम ! सूर्यके जिस जाज्वल्यमान वैष्णव - तेजको विश्वकर्माने छाँटा था वह पृथ्वीपर गिरा ॥१०॥
उस पृथ्विवीपर गिरे हुए सूर्यतेजसे ही विश्वकर्माने विष्णुभगवान्का चक्र, शंकरका त्रिशूल, कुबेरका विमान, कार्तिकेयकी शक्ति बनायी तथा अन्य देवताओंके भी जो- जो शस्त्र थे उन्हें उससे पुष्ट किया ॥११-१२॥
जिस छायासंज्ञाके पुत्र दुसरे मनुका ऊपर वर्णन कर चुके है वह अपने अग्रज मनुका सवर्ण होनेसे सावर्णी कहलाया ॥१३॥
हे महाभाग ! सुनो, अब मैं उनके इस सावर्णिकनाम आठवें मन्वन्तरका, जो आगे होनेवाला है, वर्णन करता हूँ ॥१४॥
हे मैत्रेय ! यह सावर्णि ही उस समय मनु होंगे तथा सुतप, अमिताभ और मुख्यगण देवता होंगे ॥१५॥
उन देवताओंका प्रत्येक गण बीस-बीसका समुह कहा जाता है । है मुनिसत्तम ! अब मैं आगे होनेवाले सप्तर्षि भी बतलाता हूँ ॥१६॥
उस समय दीप्तिमान् , गालव, राम, कृप, द्रोण - पुत्र, अश्वत्थामा , मेरे पुत्र व्यास और सातवें ऋष्यश्रृंग - ये सप्तार्षि होंगे ॥१७॥
तथा पाताल - लोकवासी विरोचनके पुत्र बलि श्रीविष्णुभगवान्की कृपासे तत्कालीन इन्द्र और सावर्णिमनुके पुत्र विरजा , उर्वरीवान एव निर्मोक आदि तत्कालीन राजा होंगे ॥१८-१९॥
हे मुने ! नवें मनु दक्षसावर्णि होंगे । उनके समय पार, मरिचिगर्भ और सुधर्मा नामक तीन देववर्ग होंगे जिनमेंसे प्रत्येक वर्गमें बारह - बारह देवता होंगे; तथा हे द्विज ! उनका नायक महापराक्रमी अद्भूत नामक इन्द्र होगा ॥२०-२२॥
सवन, द्युतिमान्, भव्य, वस्तु मेधातिथि, ज्योतिष्मान् . और सातवें सत्य - ये उस समयके सप्तर्षि होंगे ॥२३॥
तथा धृतकेतु, दीप्तिकेतु पत्र्चहस्त , निरामय और पृथुश्रवा आदि दक्षसावर्णिमनुके पुत्र होंगे ॥२४॥
हे मुने ! दसवें मनु ब्रह्मसावर्णि होंगे । उनके समय सुधामा और विशुद्ध नामक सौ-सौ देवताओंके दो गण होंगे ॥२५॥
महाबलवान् शान्ति उनका इन्द्र होगा तथा उस समय जो सप्तर्षिगण होंगे उनके नाम सुनो - ॥२६॥
उनके नाम हविष्मान, सुकृत, सत्य, तपोमूर्ति, नाभाग, अप्रतिमौजा और सत्यकेतु हैं ॥२७॥
उस समय ब्रह्मासावर्णिमनुके सक्षेत्र, उत्तमौजा और भूरिषेण आदि दस पुत्र पृथिवीकी रक्षा करेंगे ॥२८॥
ग्यारहवाँ मनु धर्मसावर्णि होगा । उस समय होनेवाले देवताओंके विहंगम , कामगम और निर्वाणरति नामक मुख्य गण होंगे- इनमेंसे प्रत्येकमें तीस - तीस देवता रहेंगें और वृष नामक इन्द्र होगा ॥२९-३०॥
उस समय होनेवाले सप्तर्षियोंके नाम निःस्वर, अग्नितेजा, वपुष्मान, घृणि, आरुणि, हविष्णान् और अनघ हैं ॥३१॥
तथा धर्मसावर्णि मनुके सर्वत्रग, सुधर्मा, और देवानीक आदि पुत्र उस समयके राज्यधिकारी पृथिवीपति होंगे ॥३२॥
रुद्रपुत्र सावर्णि बारहवाँ मनु होगा । उसके समय ऋतुधामा नामक इन्द्र होगा तथा तत्कालीन देवताओंके नाम ये हैं सुनो - ॥३३॥
हे द्विज ! उस समय दस - दस देवताओंके हरित, रोहित, सुमना, सुकर्मा और सुराप, नामक पाँच गण होंगे ॥३४॥
तपस्वी, सुतपा, तपोमूर्ति, तपोरति, तपोधृति, तपोद्युति तथा तपोधन- ये सात सप्तर्षि होंगे । अब मनुपुत्रोंके नाम सुनो - ॥३५॥
उस समय उस मनुके देववान, उपदेव और देवश्रेष्ठ आदि महावीर्यशाली पुत्र तत्कालीन सम्राट होंगे ॥३६॥
हे मुने ! तेरहवाँ रुचि नामक मनु होगा । इस मन्वन्तरमें सुत्रामा, सुकर्मा और सुधर्मा नामक देवगण होंगे इनमेंसे प्रत्येकर्म तैतीस तैंतीस देवता रहेंगे; तथा महाबलवान् दिवस्पति उनका इन्द्र होगा ॥३७-३९॥
निर्मोह, तत्त्वदर्शी, निष्प्रकम्प, निरुत्सुक, धृतिमान् , अव्यय और सुतपा- ये तत्कालीन सप्तर्षि होंगे । अब मनुपुत्रोंके नाम भी सुनो ॥४०॥
उस मन्वन्तरमें चित्रसेन और विचित्र आदि मनुपुत्र राजा होंगे ॥४१॥
हे मैत्रेय ! चौदाहवाँ मनु भौम होगा । उस समय शुचि नामक इन्द्र औरा पाँच देवगण होंगे; उनके नाम सुनो - वे चाक्षुष, पवित्र, कनिष्ठ, भ्राजिक और वाचावृद्ध नामक देवता हैं । अब तत्कालीन सप्तर्षयीके नाम भी सुनो ॥४२-४३॥
उस समय अग्निबाहु, शुचि, शुक्र, मागध, अग्निध, युक्त और जित - ये सप्तर्षि होंगे । अब मनुपुत्रोंके विषयमें सुनो ॥४४॥
हे मुनिशार्दुल ! कहते हैं , उस मनुके ऊरु, और गम्भीरबुद्धि आदि पुत्र होंगे जो राज्यधिकारी होकर पृथिवीका पालन करेंगे ॥४५॥
प्रत्येक चतुर्युगके अन्तमें वेदोंका लोप हो जाता है, उस समय सप्तर्षिगण ही स्वर्गलोकसे पृथिवींमें अवतीर्ण होकर उनका प्रचार करते हैं ॥४६॥
प्रत्येक सत्ययुगके आदिमें ( मनुष्योंकी धर्म मर्यादा स्थापित करनेके लिये ) स्मृति शास्त्रके रचयिता मनुका प्रादुर्भाव होता है; और उस मन्वन्तरके अन्त पर्यण्त तत्कालीन देवग्ण यज्ञ - भागोंको भोगते हैं ॥४७॥
तथा मनुके पुत्र और उनके वंशधर मन्वन्तरके अन्ततक पृथिवीका पालन करते रहते हैं ॥४८॥
इस प्रकार मनु सप्तर्षि, देवता, इन्द्र तथा मनु-पुत्र राजागण-ये प्रत्येक मन्वन्तरके अधिकारी होते हैं ॥४९॥
हे द्विज ! इन चौदह मन्वन्तरोंके बीत जानेपर एक सहस्त्र युग रहनेवालो कल्प समाप्त हुआ कहा जाता है ॥५०॥
हे साधुश्रेष्ठ ! फिर इतने ही समयकी रात्रि होती है । उस समय ब्रह्मारूपधारी श्रीविष्णुभगवान प्रलयकालीन जलके ऊपर शेष-शय्यापर शयन करते हैं ॥५१॥
हे विप्र ! तब आदिकर्ता सर्वव्यापक सर्वभूत भगवान् जनार्दन सम्पूर्ण त्रिलोकीका ग्रास कर अपनी मायामें स्थित रहते हैं ॥५२॥
फिर ( प्रलय - रात्रिका अन्त होनेपर ) प्रत्येक कल्पके आदिमें अव्ययात्मा भगवान् जाग्रत् होकर रजोगुणका आश्रय कर सृष्टिकी रचना करते हैं ॥५३॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! मनु, मनु-पुत्र राजागण, इन्द्र देवता तथा सप्तर्षि - ये सब, जगत्का पालन करनेवाले भगवान्के सात्त्विक अंश हैं ॥५४॥
हे मैत्रेय ! स्थितिकारक भगवान् विष्णु चारों युगोंमें जिस प्रकार व्यवस्था करते हैं , सो सुनो ॥५५॥
समस्त प्राणियोंके कल्याणमें तत्पर वे सर्वभूतात्मा सत्ययुगमें कपिल आदिरूप धारणकर परम ज्ञानका उपदेश करते हैं ॥५६॥
त्रेतायुगमें वे सर्वसमर्थ प्रभु चक्रवर्तीं भूपाल होकर दुष्टोंका दमन करके त्रिलोकीकी रक्षा करते हैं ॥५७॥
तदनन्तर द्वापरयुगमं वे वेदव्यासरूप धारणकर एक वेदके चार विभाग करते हैं और सैकड़ों शाखाओंमें बाँटकर उसका बहुत विस्तार कर देते हैं ॥५८॥
इस प्रकार द्वापरमें वेदोंका विस्तार कर कलियुगके अन्तमें भगवान् कल्किरूप धारणकर दुराचारी लोगोंको सन्मार्गमें प्रवृत्त करते हैं ॥५९॥
इसी प्रकार, अनन्तात्मा प्रभु निरन्तर इस सम्पूर्ण जगत्के उप्तात्ति, पालन और नाश करते रहते हैं । इस संसारमें ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो उनसे भिन्न हो ॥६०॥
हे विप्र ! इहलोक और परलोकमें भूत, भविष्यत् और वर्तमान जितने भी पदार्थ हैं वे सब महात्मा भगवान् विष्णुसे ही उप्तन्न हुए हैं - यह सब मैं तुमसे कह चुका हूँ ॥६१॥
मैंने तुमसे सम्पूर्ण मन्वन्तरों और मन्वन्तराधिकारियोंका वर्णन कर दिया । कहो, अब और क्या सुनाऊँ ? ॥६२॥
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेंऽशे द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥