श्रीपराशरजी बोले -
हे मैत्रेय ! पूर्वकालमें महात्मा सगरसे उनके पूछनेपर भगवान् और्वने इस प्रकार गृहस्थके सदाचारका निरूपण किया था ॥१॥
हे द्विज ! मैंने भी तुमसे इसका पूर्वतया वर्णन कर दिया । कोई भी पुरुष सदाचारका उल्लंघन करके सद्गति नहीं पा सकता ॥२॥
श्रीमैत्रेयजी बोले -
भगवन् ! नपुंसक, अपविद्ध और रजस्वला आदिको तो मैं अच्छी तरह जानता हूँ ( किन्तु यह नहीं जानत कि 'नग्न' किसको कहते हैं) अतः इस समय मैं नग्नके विषयमें जानना चाहता हूँ॥३॥
नग्न कौन है ? और किस प्रकारके आचरणवाला पुरुष नग्न - संज्ञा प्राप्त करता है ? हे धर्मात्मा ओंमें श्रेष्ठ ! मैं आपके द्वारा नग्नके स्वरूपका यथाव्रत वर्णन सुनना चाहता हूँ, क्योंकि आपको कोई भी बात अविदित नहीं हैं ॥४॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे द्विज ! ऋक् , साम और यजुः यह वेदत्रयी वर्णोंका आवरणस्वरूप है । जो पुरुष मोहसे इसका त्याग कर देता है वह पापी 'गन्ग' कहलाता है ॥५॥
हे ब्रह्मन् ! समस्त वर्णोंका संवरण ( ढँकनेवाला वस्त्र ) वेदत्रयी ही हैं; इसलिये उसका त्याग कर देनेपर पुरुष 'नग्न' हो जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं ॥६॥
हमारे पितामह धर्मज्ञ वसिष्ठजीने इस विषयमें महात्मा भीष्मजीसे जो कुछ कहा था वह श्रवण करो ॥७॥
हे मैत्रेय ! तुमने जो मुझसे नग्नके विषयमें पूछा है इस सम्बन्धमें भीष्मके प्रति वर्णन नग्नके विषयमें पूछा है इस वसिष्ठजीका कथन सुना था ॥८॥
पूर्वकालमें किसी समय सौ दिव्यवर्षतक देवता और असुरोंका परस्पर युद्ध हुआ । उसमें ह्राद प्रभृति दैत्योंद्वारा देवगण पराजित हुए ॥९॥
अतः देवगणने क्षीरसागरके उत्तरीय तटपर जाकर तपस्या की और भगवान् विष्णुकी आराधनाके लिये उस समय इस स्तवका गान किया ॥१०॥
देवगण बोले -
हमलोग लोकनाथ भगवान् विष्णुकी आराधनाके लिये जिस वाणीका उच्चारण करते है उससे वे आद्य- पुरुष श्रीविष्णुभगवान् प्रसन्न हों ॥११॥
जिन परमात्मासे सम्पूर्ण भूत उप्तन्न हुए हैं और जिनमें वे सब अन्तमें लीन हो जायँगे, संसारमें उनकी स्तुति करनेमें कौन समर्थ है ? ॥१२॥
हे प्रभो ! यद्यापि आपका यथार्थ स्वरूप वाणीका विषय नहीं है तो भी शत्रुओंके हाथमें विध्वस्त होकर पराक्रमहीन हो जानेके कारण हम अभयप्राप्तिके लिये आपकी स्तुति करते हैं ॥१३॥
पृथिवी जल, अग्नि, वायु, आकाश, अन्तःकरण, मूल- प्रकृति और प्रकृतिसे परे पुरुष - ये सब आप ही हैं ॥१४॥
हे सर्वभुतात्मन् ! ब्रह्मासे लेकर स्तम्बपर्यंन्त स्थान और सर्वभुतात्मन् ! ब्रह्मासे लेकर स्तम्बपर्यन्त स्थान और कालादि भेदयुक्त यह मूर्त्तामूर्त्त पदार्थमय सम्पूर्ण प्रपत्र्च आपहीका शरीर है ॥१५॥
आपके नाभी- कमलसे विश्वके उपकारार्थ प्रकट हुआ जो आपका प्रथम रूप है, हे ईश्वर ! उस ब्रह्मास्वरूपको नमस्कार है ॥१६॥
इन्द्र, सूर्य, रुद्र, वसु, अश्विनीकुमार, मरुद्गण और सोम आदि भेदयुक्त हमलोग भी आपहीका एक रूप हैं; अतह आपके उस देवरूपको नमस्कार है ॥१७॥
हे गोविन्द ! जो दम्भमयी, अज्ञानमयी तथा तितिक्षा और दम्भसे शून्य है आपकी उस दैत्य-मूर्तिको नमस्कार है ॥१८॥
जिस मन्दसत्त्व स्वरूपमेम हृदयकी नाड़ीयाँ अत्यन्त ज्ञानवाहिनी नहीं होतीं तथा जो शब्दादि विषयोंका लोभी होता है आपके उस यक्षरूपको नमस्कार है ॥१९॥
हे पुरुषोत्तम ! आपका जो क्रूरता और मायासे युक्त घोर तमोमय रूप है उस राक्षसस्वरूपको नमस्कार है ॥२०॥
हे जनार्दन ! जो स्वर्गमें रहनेवाले धार्मिक जनोंके यागदि सद्धर्मोंके फल ( सुखादि ) की प्राप्ति करानेवाला आपका धर्म नामक रूप है उसे नमस्कार है ॥२१॥
जो जल-अग्नि आदि गमनीय स्थानोंमें जाकर भी सर्वदा निर्लिप्त और प्रसन्नतामय रहता है वह सिद्ध नामक रूप आपहीका है; ऐसे सिद्धस्वरूप आपको नमस्कार हिअ ॥२२॥
हे हरे ! जो अक्षमाका आश्रय अत्यन्त क्रूर और कामोपभोगमें समर्थं आपका द्विजिह्न ( दो जीभवाला ) रूप है, उन नागस्वरूप आपको नमस्कार है ॥२३॥
हे विष्णो ! जो ज्ञानमय, शान्त, दोषरहित और कल्मषहीन है उस आपके मुनिमय स्वरूपको नमस्कार हैं ॥२४॥
जो कल्पान्तमें अनिवार्यरूपसे समस्त भूतोंका भक्षण कर जाता है, हे पुण्डरीकाक्ष ! आपके उस कालस्वरूपको नमस्कार है ॥२५॥
जो प्रलयकालमें देवता आदि समस्त प्राणियोंको सामान्य भावसे भक्षण करके नॄत्य करता है आपके उस रुद्र-स्वरूपको नमस्कार हैं ॥२६॥
रजोगुणकी प्रवृत्तिके कारण जो कर्मोंका करणरूप है, हे जनार्दन ! आपके उस मनुष्यात्मक स्वरूपको नमस्कार है ॥२७॥
हे सर्वात्मन् ! जो अट्ठाईस वध-युक्त * तमोमय और उन्मार्गगामी है आपके उस पशुरुपको नमस्कार है ॥२८॥
जो जगत्की स्थितिका साधन और यज्ञका अंगभूत है तथा वृक्ष, लता, गुल्म, वीरुध, तृण और गिरि - इन छः भेदोंसे युक्त हैं उन मुख्य ( उद्भिद् ) रूप आपको नमस्कार है ॥२९॥
तिर्यक, मनुष्य तथा देवता आदि प्राणी, आकाशादि पत्र्चभूत और शब्दादि उनके गुण - ये सब, सबके आदिभूत आपहीके रूप हैं; अतः आप सर्वात्मको नमस्कार है ॥३०॥
हे परमात्मन् ! प्रधान और महत्तत्वादिरूप इस सम्पूर्ण जगत्से जो परे है, सबका आदि कारण है तथा जिसके समान कोई अन्य रूप नहीं है, आपके उस प्रकृति आदि कारणोंके भी कारण रूपको नमस्कार हैं ॥३१॥
हे भगवन् ! जो शुक्लादि रुपसे, दीर्घता आदि परिमाणसे तथा घनता आदि गुणोंसे रहित है, उस परिमाणसे तथा घनता आदि गुणोंसे रहित है, इस प्रकार जो समस्त विशेषणोंका अविषय है तथा परमर्षियोंका दर्शनीय एवं शुद्धातिशुद्ध है आपके उस स्वरूपको हम नमस्कार करते हैं ॥३२॥
जो हमारे शरीरोंमें, अन्य प्राणियोंके शरीरोंमें तथा समस्त वस्तुओंमें वर्तमान है, अजन्मा और अविनाशी है तथा जिससे अतिरिक्त और कोई भी नहीं है, उस ब्रह्मस्वरूपको हम नमस्कार करते हैं ॥३३॥
परम पद ब्रह्म ही जिसका आत्मा है ऐसे जिस सनातन और अजन्मा भगवान्का यह सकल प्रपत्र्च रुप है, उस सबके बीजभुत, अविनाशी और निर्मल प्रभु वासुदेवको हम नमस्कार करते हैं ॥३४॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे मैत्रेय ! स्तोत्रके समाप्त हो जानेपर देवताओंने परमात्मा श्रीहरिको हाथमें शंख, चक्र और गदा लिये तथा गरुडपर आरूढ़ हुए अपने सम्मुख विराजमान देखा ॥३५॥
उन्हें देखकर समस्त देवताओंने प्रमाण करनेके अनन्तर उनसे कहा - ' हे नाथ ! प्रसन्न होइये और हम शरणगतोंकी दैत्योंसे रक्षा कीजिये ॥३६॥
हे परमेश्वर ! ह्याद प्रभूति दैत्यगणने ब्रह्माजीकी आज्ञाका भी उल्लंघन कर हमारे और त्रिलोकीके यज्ञभागोंका अपहरण कर लिया है ॥३७॥
यद्यपि हम और वे सर्वभुत आपहीके अंशज हैं तथापि अविद्यावश हम जगत्को परस्पर भिन्न- भिन्न देखते हैं ॥३८॥
हमारे शत्रुगण अपने वर्णधर्मका पालन करनेवाले, वेदमार्गावलम्बी और तपोनिष्ठ हैं, अतः वे हमसे नहीं मारे जा सकते ॥३९॥
अतः हे सर्वात्मन ! जिससे हम उन असुरोंका वध करनेमें समर्थ हों ऐसा कोई उपाय आप हमें बतलाइये" ॥४०॥
श्रीपराशरजी बोले -
उनके ऐसा कहनेपर भगवान् विष्णु ने अपने शरीरसे मायामोहको उप्तन्न किया और उसे देवताओंको देकर कहा- ॥४१॥
"यह मायामोह उन सम्पूर्ण दैत्यगणको मोहित कर देगा, तब वे वेदमार्गका उल्लंघन करनेसे तुमलोगोंसे मारे जा सकेंगे ॥४२॥
हे देवगण ! जो कोई देवता अथवा दैत्य ब्रह्माजीके कार्यमें बाधा डालते हैं वे सृष्टिकी रक्षामें तत्पर मेरे वध्य होते हैं ॥४३॥
अतः हे देवगण ! अब तुम जाओ । डरो मत । यह मायामोह आगेसे जाकर तुम्हारा उपकार करेगा" ॥४४॥
श्रीपराशरजी बोले -
भगवान्की ऐसी आज्ञा होनेपर देवगण उन्हें प्रणाम कर जहाँसे आये थे वहाँ चले गये तथा उनके साथ मायामोह भी जहाँ असुरगण थे वहाँ गया ॥४५॥
इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयोंऽशे सप्तदशोऽध्यायः ॥१७॥