श्रीपराशरजी बोले
रजिके अतुलित बलपराक्रमशाली पाँच सौ पुत्र थे ॥१॥
एक बार देवासुरसंग्रामके आरम्भके एक - दुसरेकी मारनेकी इच्छावाले देवता और दैत्योंने ब्रह्माजीके पास जाकर पूछा- " भगवान् ! हम दोनोंके पारस्परिक कलहमें कौन - सा पक्ष जीतेगा ?" ॥२-३॥
तब भगवान् ब्रह्माजी बोले - "जिस पक्षकी ओरसे राजा रजि शस्त्र धारणकर युद्ध करेगा उसी पक्षकी विजय होगी " ॥४-५॥
तब दैत्योंने जाकर रजिसे अपनी सहायताके लिये प्रार्थना की, इसपर रजि बोले - ॥६॥
"यदि देवताओंको जीतनेपर मैं आपलोगोंका इन्द्र हो सकूँ तो आपके पक्षमें लड़ सकता हूँ ॥७॥
यह सुनकर दैत्योंनें कहा - " हमलोग एक बात कहकर उसके विरुद्ध द्सरी तरहका आचरण नहीं करते । हमारे इन्द्र तो प्रह्लादजी हैं और उन्हींके लिये हमारा यह सम्पूर्ण उद्योग है" ऐसा कहकर जब दैत्यगण चले गये तो देवताओंने भी आकर राजासे उसी प्रकार प्रार्थना की और उनसे भी उसने वही इन्द्र होंगे उसकी बात स्वीकार कर ली ॥८॥
अतः रजिने देव सेनाकी सहायता करते हुए अनेक महान् अस्त्रोंसे दैत्योंकी सम्पूर्ण सेना नष्ट कर दी ॥९॥
तदनन्तर शत्रु-पक्षको जीत चुकनेपर देवराज इन्द्रने रजिके दोनों चरणोंको अपने मस्तकपर रखकर कहा - ॥१०॥
"भयसे रक्षा करने और अन्न दान देनेके कारण आप हमारे पिता हैं, आप सम्पूर्ण लोकोंमें सर्वोत्तम हैं क्योंकी मैं त्रिलोकेन्द्र आपका पुत्र हूँ;' ॥११॥
इसपर राजाने हँसकर कहा -
'अच्छा, ऐसा ही सही । शत्रुपक्षकी भी नाना प्रकारकी चाटुवाक्ययुक्त अनुनय-विनयका अतिक्रमण करना उचित नहीं होता, ( फिर स्वपक्षके तो बात ही क्या है ) । ' ऐसा कहकर वे अपनी राजधानीको चले गये ॥१२-१३॥
इस प्रकार शतक्रतु ही इन्द्र पदपर स्थित हुआ । पीछे, रजिके स्वर्गवासी होनेपर देवर्षि नारदजीकी प्रेरणासे रजिके पुत्रोंने अपने पिताके पुत्रभावको प्राप्त हुए शतक्रतुसे व्यवहारके अनुसार अपने पिताका राज्य माँगा ॥१४-१५॥
किन्तु जब उसने न दिया, तो उन महाबलवान् रजि-पुत्रोंने इन्द्र्को जीतकर स्वयं ही इन्द्र पदका भोग किया ॥१६॥
फिर बहुत सा समय बीत जानेपर एक दिन बृहस्पतिजीको एकान्तमें बैठे देख त्रिलोकीके यज्ञभागसे वत्र्चित हुए शतक्रतुने उसने कहा - ॥१७॥
क्या ' आप मेरी तृत्पिके लिये एक बेरके बराबर बी पुरोडाशखण्ड मुझे दे सकते हैं ? उनके ऐसा कहनेपर बृहस्पतिजी बोले - ॥१८॥
' यदि ऐसा है, तो पहले ही तुमने मुझसे क्यों नहीं कहा ? तुम्हारे लिये भला मैं क्या नहीं कर सकता ? अच्छा, अब थोड़े ही दिनोंमें मैं तुम्हें अपने पदपर स्थित कर दूँगा ।' ऐसा कह बृहस्पतिजी रजिपुत्रोंकी बुद्धिको मोहित करनेके लिये अभिचार और इन्द्रकी तेजोवृद्धिके लिये हवन करने लगे ॥१९॥
बुद्धिको मोहित करनेवाले उस अभिचार - कर्मसे अभिभृत हो जानेके कारण रजि- पुत्र ब्राह्मण विरोधी , धर्म - त्यागी और वेद - विमुख हो गये ॥२०॥
तब धर्माचारहीन हो जानेसे इन्द्रने उन्हें मार डाला ॥२१॥
और पुरोहितजीके द्वारा तेजोवृद्ध होकर स्वर्गपर अपना अधिकार जमा लिया ॥२२॥
इस प्रकार इन्द्रके अपने पदसे गिरकर उसपर फिर आरुढ़ होनेके इस प्रसंगको सुननेसे पुरुष अपने पदसे पतित नहीं होता और उसमें कभी दुष्ट्ता नहीं आती ॥२३॥
( आयुका दुसरा पुत्र ) रम्भ सन्तानहीन हुआ ॥२४॥
क्षत्रवृद्धका पुत्र प्रतिक्षत्र हुआ, प्रतिक्षत्रका सत्र्जय , सत्र्जयका जय, जयका विजय, विजयका कृत, कृतका हर्यधन, हर्यधनका सहदेव, सहदेवका अदिन, अदीनका जयत्सने, जयत्सेनका संस्कृति और संस्कृतिका पुत्र क्षत्रधर्मा हुआ । ये सब क्षत्रवृद्धके वंशज हुए ॥२५-२७॥
अब मैं नहुषवंशका वर्णन करूँगा ॥२८॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेंऽशे नवमोऽध्यायः ॥९॥