सिद्धाश्रममें शौनकादि महर्षियोंका सूतजीसे प्रश्न तथा सूतजीके द्वारा 
नारदपुराणकी महिमा और विष्णुभक्तिके माहात्म्यका वर्णन
ॐ वेदव्यासाय नमः नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्‌‍। देवीं सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत् ‌‍ ॥१॥
भगवान् ‌ नारायण , नरश्रेष्ठ नर तथा सरस्वतीदेवीको नमस्कार करके भगवदीय उत्कर्षका प्रतिपादन करनेवाले इतिहास - पुराणका पाठ करे। 
वन्दे वृन्दावनासीनमिन्दिरानन्दमन्दिरम्‌। उपेन्द्रं सान्द्रकारुण्यं परानन्दं परात्परम्‌‍ ॥२॥ 
जो लक्ष्मीके आनन्द - निकेतन भगवान् ‌‍ विष्णुके अवतार - स्वरूप है , उस स्त्रेहयुक्त करुणाकी निधि परात्पर परमानन्दस्वरूप पुरुषोत्तम वृन्दावनवासी श्रीकृष्णको मैं प्रणाम करता हूँ। 
ब्रह्यविष्णुमहेशाख्यं यस्यांशा लोकसाधकाः। 
तमादिदेवं चिद्रूपं विशुद्धं परमं भजे ॥३॥ 
ब्रह्या , विष्णु तथा शिव जिसके स्वरूप हैं तथा लोकपाल जिसके अंश हैं , उस विशुद्ध ज्ञानस्वरूप आदिदेव परमात्माकी मैं आराधना करता हूँ। 
नैमिषारण्य नामक विशाल वनमें महात्मा शौनक आदि ब्रह्यवादी मुनि मुक्तिकी इच्छासे तपस्यामें संलग्न थे। उन्होंने इन्द्रियोंको वशमें कर लिया था। उनका भोजन नियमित था। वे सच्चे संत थे और सत्यस्वरूप परमात्माकी प्राप्तिके लिये पुरुषार्थ करते थे। आदिपुरुष सनातन भगवान् ‌‍ विष्णुका वे बड़ी भक्तिसे भक्तिसे यजन - पूजन करते रहते थे। उनमें ईर्ष्याका नाम नहीं था। वे संम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता और समस्त लोकोंपर अनुग्रह करनेवाले थे। ममता और अहङ्कार उन्हें छू भी नहीं सके थे। उनका चित्त निरन्तर परमात्माके चिन्तनमें तत्पर रहता था। वे समस्त कामनाओंका त्याग करके सर्वथा निष्पाप हो गये थे। उनमें शम , दम आदि सद्‌‍गुणोंका सहज विकास था। काले मृगचर्मकी चादर ओढ़े , सिरपर जटा बढ़ाये तथा निरन्तर ब्रह्यचर्यका पालन करते हुए वे महर्षिगण सदा परब्रह्य परमात्माका जप एवं कीर्तन करते थे। सूर्यके समान प्रतापी , धर्मशास्त्रोंका यथार्थ तत्त्व जाननेवाले वे महात्मा नैमिषारण्यमें तप करते थे। उनमेंसे कुछ लोग यज्ञोंद्वारा जज्ञापति भगवान् ‌‍ विष्णुका यजन करते थे। कुछ लोग ज्ञानयोगके साधनोंद्वारा ज्ञानस्वरूप श्रीहरिकी उपासना करते थे और कुछ लोग भक्तिके मार्गपर चलते हुए परा - भक्तिके द्वारा भगवान् ‌‍ नारायणकी पूजा करते थे। 
एक समय धर्म , अर्थ , काम और मोक्षका उपाय जाननेकी इच्छासे उन श्रेष्ठ महात्माओंने एक बड़ी भारी सभा की। उसमें छब्बीस हजार ऊर्ध्वरेता ( नैष्ठिक ब्रह्यचर्यका पालन करनेवाले ) मुनि सम्मिलित हुए थे। उनके शिष्य - प्रशिष्योंकी संख्या तो बतायी ही नहीं जा सकती। पवित्र अन्तःकरणवाले वे महातेजस्वी महर्षि लोकोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही एकत्र हुए थे। उनमें राग और मात्सर्यका सर्वथा अभाव था। वे शौनकजीसे यह पूछना चाहते थे कि इस पृथ्वीपर कौन - कौन - से पुण्यक्षेत्र एवं पवित्र तीर्थ हैं। त्रिविध तापसे पीड़ित चित्तवाले मनुष्योंको मुक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है। लोगोंको भगवान् ‌‍ विष्णुकी अविचल भक्ति कैसे प्राप्त होगी तथा सात्त्विक , राजस और तामस - भेदसे तीन प्रकारके कर्मोंका फल किसके द्वारा प्राप्त होता है। उन मुनियोंको अपनेसे इस प्रकार प्रश्न करनेके लिये उद्यत देखकर उत्तम बुद्धिवाले शौनकजी विनयसे झुक गये और हाथ जोड़कर बोले।
शौनकजीने कहा -- 
महार्षियो ! पवित्र सिद्धाश्रम - तीर्थमें पौराणिकोंमें श्रेष्ठ सूतजी रहते हैं। वे वहाँ अनेक प्रकारके यज्ञोंद्वारा विश्वरूप भगवान् ‌‍ विष्णुका यजन किया करते हैं। महामुनि सूतजी व्यासजीके शिष्य हैं। वे यह सब विषय अच्छी तरह जानते हैं। उनका नाम रोमहर्षण है। वे बड़े शान्त स्वभावके हैं और पुराणसंहिताके वक्ता हैं। भगवान् ‌‌ मधुसूदन प्रत्येक युगमें धर्मोंका ह्रास देखकर वेदव्यास - रूपसे प्रकट होते और एक ही वेदके अनेक विभाग करते हैं। विप्रगण ! हमने सब शास्त्रोंमें यह सुना है कि वेदव्यास मुनि साक्षात् ‌ भगवान् ‌‍ नारायण ही हैं। उन्हीं भगवान् ‌ व्यासने सूतजीको पुराणोंका उपदेश दिया है। परम बुद्धिमान् ‌ वेदव्यासजीके द्वारा भलीभाँति उपदेश पाकर सूतजी सब धर्मोंके ज्ञाता हो गये हैं। संसारमें उनसे बढ़कर दूसरा कोई पुराणोंका ज्ञाता नहीं है ; क्योंकि इस लोकमें सूतजी ही पुराणोंके तात्त्विक अर्थको जाननेवाले , सर्वज्ञ और बुद्धिमान् ‌‍ हैं। उनका स्वभाव शान्त है। वे मोक्षधर्मके ज्ञाता तो हैं ही , कर्म और भक्तिके विविध साधनोंको भी जानते हैं। मुनीश्वरो ! वेद , वेदांग और शास्त्रोंका जो सारभूत तत्त्व है , वह सब मुनिवार व्यासने जगत्‌के हितके हितके लिये पुराणोंमें बता दिया है और ज्ञानसागर सूतजी उन सबका यथार्थ तत्त्व जाननेमें कुशल हैं , इसलिये हमलोग उन्हींसे सब बातें पूछें।
इस प्रकार शौनकजीने मुनियोंसे जब अपना अभिप्राय निवेदन किया , तब वे सब महर्षि विद्वानोंमें श्रेष्ठ शौनकजीको आलिंगन करके बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें साधुवाद देने लगे। तदनन्तर सब मुनि वनके भीतर पवित्र सिद्धाश्रमतीर्थमें गये और वहाँ उन्होंने देखा कि सूतजी अग्रिष्टोम यज्ञके द्वारा अनन्त अपराजित भगवान् ‌ नारायणका यजन कर रहे हैं। सूतजीने उन विख्यात तेजस्वी महात्माओंका यथोचित स्वागत - सत्कार किया। तत्पश्चात् ‌‍ उनसे नैमिषारण्यनिवासी मुनियोंने इस प्रकार पूछा --
ऋषि बोले --
उत्तम व्रतका पालन करनेवाले सूतजी ! हम आपके यहाँ अतिथिरूपमें आये हैं , अतः आपसे आतिथ्य - सत्कार पानेके अधिकारी हैं। आप ज्ञान - दानरूपी पूजन - सामग्रीके द्वारा हमारा पूजन कीजिये। मुने ! देवतालोग चन्द्रमाकी किरणोंसे निकला हुआ अमृत पीकर जीवन धारण करते हैं ; परंतु इस पृथ्वीके देवता ब्राह्यण आपके मुखसे निकले हुए ज्ञानरूपी अमृतको पीकर तृप्त होते हैं। तात ! हम यह जानना चाहते हैं कि यह सम्पूर्ण जगत् ‌ किससे उत्पन्न हुआ ? इसका आधार और स्वरूप क्या है ? यह किसमें स्थित है और किसमें इसका लय होगा ? भगवान् ‌ विष्णु किस साधनसे प्रसन्न होते हैं ? मनुष्योंद्वारा उनकी पूजा कैसे की जाती है ? भिन्न - भिन्न वर्णों और आश्रमोंका आचार क्या है ! अतिथिकी पूजा कैसे की जाती है , जिससे सब कर्म सफल हो जाते हैं ? वह मोक्षका उपाय मनुष्योंको कैसे सुलभ है , पुरुषोंको भक्तिसे कौन - सा फल प्राप्त होता है और भक्तिका स्वरूप क्या है ? मुनिश्रेष्ठ सूतजी ! ये सब बातें आप हमें इस प्रकार समझाकर बतावें कि फिर इनके विषयमें कोई संदेह न रह जाय , आपके अमृतके समान वचनोंको सुननेके लिये किसके मनमें श्रद्धा नहीं होगी ?
सूतजीने कहा --
महर्षियो ! आप सब लोग सुनें। आप लोगोंको जो अभीष्ट है , वह मैं बतलाता हूँ। सनक़ादि मुनीश्वरोंने महात्मा नारदजीसे जिसका वर्णन किया था , वह नारदपुराण आप सुनें। यह वेदार्थसे परिपूर्ण है -- इसमें वेदके सिद्धान्तोंका ही प्रतिपादन किया गया है। यह समस्त पापोंकी शान्ति तथा दुष्ट ग्रहोंकी बाधाका निवारण करनेवाला है। दुःस्वप्नोंका नाश करनेवाला , धर्मसम्मत तथा भोग एवं मोक्षको देनेवाला है। इसमें भगवान् ‌‍ नारायणकी पवित्र कथाका वर्णन है। यह नारदपुराण सब प्रकारके कल्याणकी प्राप्तिका हेतु है। धर्म , अर्थ , काम एवं मोक्षका भी कारण है। इसके द्वारा महान् ‌‍ फलोंकी भी प्राप्ति होती है , यह अपूर्व पुण्यफल प्रदान करनेवाला है। आप सब लोग एकाग्रचित्त होकर इस महापुराणको सुनें। महापातकों तथा उपपातकोंसे युक्त मनुष्य भी महर्षि व्यासप्रोक्त इस दिव्य पुराणका श्रवण करके शुद्धिको प्राप्त होते हैं। इसके एक अध्यायका पाठ करनेसे अश्वमेध यज्ञका और दो अध्यायोंदे पाठसे राजसूय यज्ञका फल मिलता है। ब्राह्यणो ! ज्येष्ठके महीनेमें पूर्णिमा तिथिको मूल नक्षत्रका योग होनेपर मनुष्य इन्द्रिय - संयमपूर्वक मथुरापुरीकी यमुनाके जलमें स्नान करके निराहार व्रत रहे और विधिपूर्वक भगवान् ‌‍ श्रीकृष्णका पूजन करे तो इससे उसे जिस फलकी प्राप्ति होती है , उसीको वह इस पुराणके तीन अध्यायोंका पाठ करके प्राप्त कर लेता है। इसके दस अध्यायोंका भक्तिभावसे श्रवण करके मनुष्य निर्वाण मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यह पुराण कल्याण - प्राप्तिके साधनोंमें सबसे श्रेष्ठ है। पवित्र ग्रन्थोंमें इसका स्थान सर्वोत्तम है। यह बुरे स्वप्रोंका नाशक और परम पवित्र है। ब्रह्यर्षियो ! इसका यत्नपूर्वक श्रवण करना चाहिये। यदि मनुष्य श्रद्धापूर्वक इसके एक श्लोक या आधे श्लोकका भी पाठ कर ले तो वह महापातकोंके समूहसे तत्काल मुक्त हो जाता है।
साधु पुरुषोंके समश ही इस पुराणका वर्णन करना चाहिये ; क्योंकि यह गोपनीयसे भी अत्यन्त गोपनीय है। भगवान् ‌ विष्णुके समक्ष , किसी पुण्य क्षेत्रमें तथा ब्राह्यण आदि द्विजातियोंके निकट इस पुराणकी कथा बाँचनी चाहिये। जिन्होंने काम - क्रोध आदि दोषोंको त्याग दिया है , जिनका मन भगवान् ‌‍ विष्णुकी भक्तिमें लगा है तथा जो सदाचारपरायण हैं , उन्हींको यह मोक्षसाधक पुराण सुनाना चाहिये। भगवान् ‌ विष्णु सर्वदेवमय हैं। वे अपना स्मरण करनेवाले भक्तोंकी समस्त पीड़ाओंका नाश कर देते हैं। श्रेष्ठ भक्तोंपर उनकी स्त्रेह - धारा सदा प्रवाहित होती रहती है। ब्राह्यणो ! भगवान् ‌‍ विष्णु केवल भक्तिसे ही संतुष्ट होते हैं , दूसरे किसी उपायसे नहीं। उनके नामका बिना श्रद्धाके भी कीर्तन अथवा श्रवण कर लेनेपर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो अविनाशी विकुण्ठ धामको प्राप्त कर लेता है। भगवान् ‌ मधुसूदन संसाररूपी भयङ्कर एवं दुर्गम वनको दग्ध करनेके लिये दावानलरूप हैं।महर्षियो ! भगवान् ‌‍ श्रीहरि अपना स्मरण करनेवाले पुरुषोंके सब पापोंका उसी क्षण नाश कर देते हैं। उनके तत्त्वका प्रकाश करनेवाले इस उत्तम पुराणका श्रवण अवश्य करना चाहिये। सुनने अथवा पाठ करनेसे भी यह पुराण सब पापोंका नाश करनेवाला है। ब्राह्यणो ! जिसकी बुद्धि भक्तिपूर्वक इस पुराणके सुननेमें लग जाती है , वही कृतकृत्य है। वही सम्पूर्ण शास्त्रोंका मर्मज्ञ पण्डित है तथा उसीके द्वारा किये हुए तप और पुण्यको मैं सफल मानता हूँ ; क्योंकि बिना तप और पुण्यके इस पुराणको सुननेमें प्रेम नहीं हो सकता। जो संसारका हित करनेवाले साधु पुरुष हैं , वे ही उत्तम कथाओंके कहने - सुननेमें प्रवृत्त होते हैं। पापपरायण दुष्ट पुरूष तो सदा दूसरोंकी निन्दा और दूसरोंके साथ कलह करनेमें ही लगे रहते हैं। द्विजवरो ! जो नराधम पुराणोंमें अर्थवाद होनेकी शङ्का करते हैं , उनके किये हुए समस्त पुण्य नष्ट हो जाते हैं। विप्रवरो ! मोहग्रस्त मानव दूसरे - दूसरे कार्योंके साधनमें लगे रहते हैं , परंतु पुराणश्रवणरूप पुण्यकर्मका अनुष्ठान नहीं करते हैं। श्रेष्ठ ब्राह्यणो ! जो मनुष्य बिना किसी परिश्रमके यहाँ अनन्त पुण्य प्राप्त करना चाहता हो , उसको भक्तिभावसे निश्चय ही पुराणोंका श्रवण करना चाहिये। जिस पुरुषकी चित्तवृत्ति पुराण सुननेमें लग जाती है , उसके पूर्वजन्मोपार्जित समस्त पाप निस्संदेह नष्ट हो जाते हैं। जो मानव सत्यङ्र , देवपूजा , पुराणकथा और हितकारी उपदेशमें तत्पर रहता है , वह इस देहका नाश होनेपर भगवान् ‌‍ विष्णुके समान तेजस्वी स्वरूप धारण करके उन्हींके परम धाममें चला जाता है। अतः विप्रवरो ! आपलोग इस परम पवित्र नारदपुराणका श्रवण करें। इसके श्रवण करनेसे मनुष्यका मन भगवान् ‌‍ विष्णुमें संलग्न होता है और वह जन्म - मृत्यु तथा जरा आदिके बन्धनसे छूट जाता है।
आदिदेव भगवान् ‌ नारायण श्रेष्ठ , वरणीय , वरदाता तथा पुराणपुरुष हैं। उन्होंने अपने प्रभावसे सम्पूर्ण लोकोंको व्याप्त कर रखा है। वे भक्तजनोंके मनोवाञ्छित पदार्थको देनेवाले हैं। उनका स्मरण करके मनुष्य मोक्षपदको प्राप्त कर लेता है। ब्राह्यणो ! जो ब्रह्या , शिव तथा विष्णु आदि भिन्न - भिन्न रूप धारण करके इस जगत्‌की सृष्टि , संहार और पालन करते हैं , उन आदिदेव परम पुरूष परमेश्वरको अपने ह्रदयमें स्थापित करके मनुष्य मुक्ति पा लेता है। जो नाम और जाति आदिकी कल्पनाओंसे रहित हैं , सर्वश्रेष्ठ तत्त्वोंसे भी परम उत्कृष्ट हैं , परात्पर पुरुष हैं , उपनिषदोंके द्वारा जिनके तत्त्वका ज्ञान होता है तथा जो अपने प्रेमी भक्तोंके समक्ष ही सगुण - साकार रूपमें प्रकट होते हैं , उन्हीं परमेश्वरकी समस्त पुराणों और वेदोंके द्वारा स्तुति की जाती है। अतः जो सम्पूर्ण जगत्‌के ईश्वर , मोक्षस्वरूप , उपासनाके योग्य , अजन्मा , परम रहस्यरूप , उपासनाके योग्य , अजन्मा , परम रहस्यरूप तथा समस्त पुरुषार्थोंके हेतु हैं , उन भगवान् ‌ विष्णुका स्मरण करके मनुष्य भवसागरसे पार हो जाता है। धर्मात्मा , श्रद्धालु , मुमुक्षु , यति तथा वीतराग पुरुष ही यह पुराण सुननेके अधिकारी हैं। उन्हींको इसका उपदेश करना चाहिये। पवित्र देशामें , देवमन्दिके सभामण्डपमें , पुण्यक्षेत्रमें , पुण्यतीर्थमें तथा देवताओं और ब्राह्यणोंके समीप पुराणका प्रवचन करना चाहिये। जो मनुष्य पुराण - कथाके बीचमें दुसरेसे बातचीत करता है , वह भयङ्कर नरकमें पड़्ता है। जिसका चित्त एकाग्र नहीं है , वह सुनकर भी कुछ नहीं समझता। अतः एकचित्त होकर भगवत्कथामृतका पान करना चाहिये। जिसका मन इधर - उधर भटक रहा हो , उसे कथा - रसका आस्वादन कैसे हो सकता है ? संसारमें चञ्चल चित्तवाले मनुष्यको क्या सुख मिलता है ? अतः दुःखकी साधनभूत समस्त कामनाओंका त्याग करके एकाग्रचित्त हो भगवान् ‌ विष्णुका चिन्तन करना चाहिये। जिस किसी उपायसे भी यदि अविनाशी भगवान् ‌‍ नारायणका स्मरण किया जाय तो वे पातकी मनुष्यपर भी निस्संदेह प्रसन्न हो जाते हैं। सम्पूर्ण जगत्‌‍के स्वामी तथा सर्वत्र व्यापक अविनाशी भगवान् ‌ विष्णुमें जिसकी भक्ति है , उसका जन्म सफल हो गया और मुक्ति उसके हाथमें है। विप्रवरो ! भगवान् ‌ विष्णुके भजनमें संलग्न रहनेवाले पुरुषोंको धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष -- चारों पुरुषार्थ प्राप्त होते हैं।
 

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