बलिके द्वारा देवताओंकी पराजय तथा अदितिकी तपस्या
नारदजीने कहा -
भाईजी ! यदि मैं आपकी कृपाका पात्र होऊँ तो भगवान् विष्णुके चरणोंके अग्रभावसे उप्तन्न हुई जो गंगा बतायी जाती हैं , उनकी उत्पत्तिकी कथा मुझसे कहिये।
श्रीसनकजी बोले -
निष्पाप नारदजी ! मैं गंगाकी उत्पत्ति बताता हूँ , सुनिये। वह कथा कहने और सुननेवालेके लिये भी पुण्यदायिनी है तथा सब पापोंका नाश करनेवाली है। कश्यप नामसे प्रसिद्ध एक मुनि हो गये हैं। वे ही इन्द्र आदि देवताओंके जनक हैं। दक्ष -पुत्री दिति और अदिति -ये दोनों उनकी पत्नियाँ हैं। अदिति देवताओंकी माता है और दिति दैत्योंकी जननी। ब्रह्यन् ! उन दोनोंके दो पुत्र हैं , वे सदा एक -दूसरेको जीतनेकी इच्छा रखते हैं। दितिका पुत्र आदिदैत्य हिरण्यकशिपु बड़ा बलवान् था। उसके पुत्र प्रह्लाद हुए। वे दैत्योंमें बड़े भारी संत थे। प्रह्लादका पुत्र विरोचन हुआ , जो ब्राह्यणभक्त था। विरोचनके पुत्र बलि हुए , जो अत्यन्त तेजस्वी और प्रतापी थे। मुने ! बलि ही दैत्योंके सेनापति हुए। वे बहुत बड़ी सेनाके साथ इस पृथ्वीका राज्य भोगते थे। समूची पृथ्वीको जीतकर स्वर्गको भी जीत लेनेका विचार कर वे युद्धमें प्रवृत्त हुए। उन्होंने विशाल सेनाके साथ देवलोकको प्रस्थान किया। देवशत्रु बलिने स्वर्गलोकमें पहुँचकर सिंहके समान पराक्रमी दैत्योंद्वारा इन्द्रकी राजधानीको घेर लिया। तब इन्द्र आदि देवता भी युद्धके लिये नगरसे बाहर निकले। तदनन्तर देवताओं और दैत्योंमें घोर युद्ध छिड़ गया। दैत्योंने देवताओंकी सेनापर बाणोंकी झड़ी लगा दी। इसी प्रकार देवता भी दैत्यसेनापर बाणवर्षा करने लगे। तदनन्तर दैत्यगण भी देवताओंपर नाना प्रकारके अस्त्र -शस्त्रोंद्वारा घातक प्रहार करने लगे। पत्थर , भिन्दिपाल , खङ्र , परशु , तोमर , परिघ , क्षुरिका , कुन्त , चक्र , शङ्कु , मूसल , अङ्कुश , लाङ्रल , पट्टिश , शक्ति , उपल , शतघ्नी , पाश , थप्पड़ , मुक्के , शूल नालीक , नाराच , दूरसे फेंकनेयोग्य अन्यान्य अस्त्र तथा मुद्ररसे वे देवताओंको मारने लगे। रथ , अश्व , गज और पैदल सेनाओंसे खचाखच भरा हुआ वह युद्ध निरन्तर बढ़ने लगा। देवताओंने भी दैत्योंपर अनेक प्रकारके अस्त्र चलाये। इस प्रकार एक हजार वर्षोंतक वह युद्ध चलता रहा। अन्तमें दैत्योंका बल बढ़ जानेके कारण देवता परास्त हो गये और सब -के -सब भयभीत हो स्वर्गलोक छोड़कर भाग गये। वे मनुष्योंके रूपमें छिपकर पृथ्वीपर विचरने लगे। विरोचनकुमार बलि भगवान् नारायणकी शरण ले लव्याहत ऐश्वर्य , बढ़ी हुई लक्ष्मी और महान् बलसे सम्पन्न हो त्रिभुवनका राज्य भोगने लगे। उन्होंने भगवान् विष्णुकी प्रीतिके लिये तत्पर होकर अनेक अश्वमेध जज्ञ किये। बलि स्वर्गमें रहकर इन्द्र और दिक्पाल -दोनों पदोंका -उपभोग करते थे। देवमाता अदिति अपने पुत्रोंकी यह दशा देखकर बहुत दुःखी हुईं। उन्होंने यह सोचकर कि अब मेरा यहाँ रहना व्यर्थ है , हिमालयको प्रस्थान किया। वहाँ इन्द्राका ऐश्वर्य तथा दैत्योंकी पराजय चाह्ती हुई वे भगवान विष्णुके ध्यानमें तत्पर हो अत्यन्त कठोर तपस्या करने लगीं। कुछ कालतक वे निरन्तर बैठी हि रहीं। उसके बाद दीर्घकालतक दोनों पैरोंसे खड़ी रहीं। तदनन्तर बहुत समयतक एक पैरसे और फिर उस एक पैरकी अँगुलियोंके ही बलपर खड़ी रहीं। फिर सूखे पत्ते खाकर रहने लगीं। उसके बाद बहुत दिनोंतक जल पीकर रहीं , फिर वायुके आहारपर रहने लगीं और अन्तमें उन्होंने सर्वथा आहार त्याग दिया। नारदजी ! अदिति अपने अन्तःकरणद्वारा सच्चिदानन्दघन परमात्माका ध्यान करती हुई एक हजार दिव्या वर्षोंतक तपस्यामें लगी रहीं।
तदनन्तर दैत्योंने अदितिको ध्यानसे विचलित करनेके लिये अपनी दाड़ोंके अग्रभागसे अग्रि प्रकट की , जिसने उस वनको क्षणभरमें जला दिया। उसका विस्तार सौ योजन था और वह नाना प्रकारके जीव -जन्तुओंसे भरा हुआ था। जो दैत्य अदितिका अपमान करनेके लिये गये थे , वे सब उसी अग्रिसे जलकर भस्म हो गये। केवल देवमाता अदिति ही जीवित बची थीं , क्योंकि दैत्योंका विनाश और स्वजनोंपर अनुकम्पा करनेवाले भगवान् विष्णुके सुदर्शन चक्रने उनकी रक्षा की थी।