सनन्दन उवाच
ज्यौतिषाङ्गं प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ब्रह्मणा पुरा ।
यस्य विज्ञानमात्रेण धर्मसिद्धिर्भवेन्नृणाम्‌ ॥१॥
त्रिस्कन्धं ज्यौतिषं शास्त्रं चतुर्लक्षमुदाह्रतम्‌ ।
गणितं जातकं विप्र संहितास्कन्धसंज्ञितम्‌ ॥२॥
गणिते परिकर्माणि खगमध्यस्फुटक्रिये ।
अनुयोगश्चन्द्रसूर्यग्रहणं चोदयास्तकम्‌ ॥३॥
छाया श्रृङ्गोन्नतियुती पातसाधनमीरितम्‌ ।
श्रीसनन्दनजी कहते हैं --- देवर्षे ! अब मैं ज्यौतिष नामक बेदाङ्गका वर्णन करूँगा , जिसका पूर्वकालमें साक्षात ब्रह्माजीने उपदेश किया है तथा जिसके विज्ञानमात्रसे मनुष्योंके धर्मकी सिद्धि हो सकती है ॥१॥ ब्रह्मन्‌ ! ज्यौतिषशास्त्र चार लाख श्लोकोंका बताया गया है । उसके तीन स्कन्ध हैं , जिनके नाम ये हैं - गणि ( सिद्धान्त ), जातक ( होरा ) और संहिता ॥२॥ गणितमें परिकर्म , ग्रहोंके मध्यम एवं स्पष्ट करनेकी रीतियाँ बतायै गयी हैं । इसके सिवा अनुयोग ( देश , दिशा और कालका ज्ञान ), चन्द्रग्रहण , सूर्यग्रहण , उदय , अस्त , छायाधिकार , चन्द्र - श्रृङ्गोन्नति , ग्रहयुति ( ग्रहोंका योग ) तथा पात ( महापात सूर्य - चन्द्रमाके क्रान्तिसाम्य )- का साधन - प्रकार कहा गया है॥३ . १ / २॥
जातके राशिभेदाश्च ग्रहयोनिवियोनिजे ॥४॥
निषेकजन्मारिष्टानि ह्यायुर्दायो दशाक्रम : ।
कर्माजीवं चाष्टवर्गो राजयोगाश्च नाभसा : ॥५॥
चन्द्रयोगा : प्रव्रज्याख्या राशिशीलं च दृक्फलम्‌ ।
ग्रहभावफलं चैवाश्रययोगप्रकीर्णके ॥६॥
अनिष्टयोगा : स्त्रीजन्मफलं निर्याणमेव च ।
नष्टजन्मविधानं च तथा द्रेष्काणलक्षणम्‌ ॥७॥
जातकस्कन्धमें राशिभेद , ग्रहयोनि , ( ग्रहोंकी जाति , रूप और गुण आदि ) वियोनिज ( मानवेतर - जन्मफल ), गर्भाधान , जन्म , अरिष्ट , आयुर्दाय , दशाक्रम , कर्माजीव ( आजीविका ), अष्टकवर्ग . राजयोग , नाभसयोग , चन्द्रयोग , प्रवज्यायोग , राशिशील , ग्रहदृष्टिफल , ग्रहोंके भावफल , आश्रययोग , प्रकीर्ण , अनिष्टयोग , स्त्रीजातक - फल , निर्याण ( मृत्युविषयक विचार ), नष्ट - जन्म - विधान ( अज्ञात जन्म - कालको जाननेका प्रकार ) तथा द्रेष्काणों के स्वरूप - इन सब विषयोंका वर्णन है ॥४ - ७॥
संहिताशास्त्ररूपं च ग्रहचारोऽब्दलक्षणम्‌ ।
तिथिवासरनक्षत्रयोगतिथ्यर्द्धसंज्ञका : ॥८॥
मुहूर्तोपग्रहा : सूर्यसंक्रान्तिर्गोचर : क्रमात्‌ ।
चन्द्रताराबलं चैव सर्वलग्नार्तवाह्वय : ॥९॥
आधानपुंससीमन्तजातनामात्रभुक्तय : ।
चौलं कर्णच्छिदा मौञ्जी क्षुरिकाबन्धनं तथा ॥१०॥
समावर्तनवैवाहप्रतिष्ठासद्‌मलक्षणम्‌ ।
यात्रा प्रवेशनं सद्योवृष्टि : कर्मविलक्षणम्‌ ॥११॥
उत्पत्तिलक्षणं चैव सर्व संक्षेपतो ब्रुवे ।
अब संहितास्कन्धके स्वरूपका परिचय दिया जाता है । उसमें ग्रहचार ( ग्रहोंकी गति ), वर्षलक्षण , तिथि , दिन , नक्षत्र , योग , करण , मुहूर्त , उपग्रह , सूर्य - संक्रन्ति , ग्रहगोचर , चन्द्रमा और ताराका बल , सम्पूर्ण लग्नों तथा ऋतुदर्शनका विचार , गर्भाधान , पुंसवन , सीमन्तोन्नयन , जातकर्म , नामकरण , अन्न - प्राशन , चूडाकरण , कर्णवेध , उपनयन , मौञ्जीबन्धन ( वेदारम्भ ), क्षुरिकाबन्धन , समावर्तन , विवाह , प्रतिष्ठा , गृहलक्षण , यात्रा , गृहप्रवेश , तत्काल वृष्टिज्ञान , कर्मवैलक्षण्य तथा उत्पत्तिका लक्षण - इन सब विषयोंका संक्षेपसे वर्णन करूँगा ( ११ . १ / २॥
एकं दश शतं चैव सहस्रायुतलक्षकम्‌ ॥१२॥
प्रयुतं कोटिसंज्ञा चार्बुदमब्जं च खर्वकम्‌ ।
निखर्वं च महापद्यं शङ्कुर्जलधिरेव च ॥१३॥
अन्त्यं मध्यं परार्द्धं च संज्ञा दशगुणोत्तरा : ।
क्रमादुत्क्रुमतो वापि योग : कार्योऽन्तरं तथा ॥१४॥
हन्याद्रुणेन गुण्यं स्यात्‌ तेनैवोपान्तिमादिकान्‌ ।
शुद्धयेद्धरो युदुणश्च भाज्यान्त्यात्‌ तत्फलं मुने ॥१५॥
[ अब गणितका प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है - ] एक ( इकाई ), दश ( दहाई ), शत ( सैकडा ), सहस्त्र ( हजार ), अयुत ( दस हजार ), लक्ष ( लाख ), प्रयुत ( दस लाख ), कोटि ( करोड ), अर्बुद ( द्स करोड ), अब्ज ( अरब ), खर्व ( दस अरब ), निखर्व ( खर्व ), महापद्म ( दस खर्व ), शङ्कु ( नील ), जलधि ( दस नील ), अन्त्य ( पद्म ), मध्य ( दस पद्म ), परार्ध ( शङ्ख ) इत्यादि संख्याबोधक संज्ञाएँ उत्तरोत्तर दसगुनी मानी गयै हैं । यथास्थानीय अङ्कोंका योग या अन्तर क्रम या व्युत्क्रमसे करना चाहिये ॥१२ - १४॥
गुण्यके अन्तिम अङ्को गुणकसे गुणना चाहिये । फिर उसके पार्श्ववर्ती अङ्कको भी उसी गुणकसे गुणना चाहिये । इस तरह आदि अङ्कतक गुणन करनेपर गुणनफल प्राप्त हो जता है , मुने ! इसी प्रकार भागफल जाननेके लिये भी यत्न करे । जितने अङ्कसे भाजकके साथ गुणा करनेपर भाज्यमेंसे घट जाय , वही अङ्क लब्धि अथवा भागफल होता है ॥१५॥
समाङ्कघातो वर्ग : स्यात्‌ तमेवाहु : कृतिं बुधा : ।
अन्त्यात्तु विषमात्त्यक्त्वा कृतिं मूलं न्यसेत्पृथक्‌ ॥१६॥
द्विगुणेनामुना भक्ते फलं मूले न्यसेत्‌ क्रमात्‌ ।
तत्कृतिं च त्यजेद्विप्र मूलेन विभजेत्‌ पुन : ॥१७॥
एवं मुहुर्वर्गमूलं जायते च मुनीश्वर ।
दो समान अङ्कोंके गुणनफलको वर्ग कहा गया है । विद्वान्‌ पुरुष उसीको कृति कह्ते हैं । ( जैसे४ का वर्ग ४ * ४ = १६ और ९ का वर्ग ९ * ९ = ८१ होता है ) [ वर्गमूल जाननेके लिये दाहिने अङ्कसे लेकर बायें अङ्कतक अर्थात्‌ आदिसे अन्ततक विषम और समका चिह्न कर देना चाहिये । खडी लकीरको विषमका और पडीको समका चिह्न माना गया है ] । अन्तिम विशममें जितनें वर्ग घट सकें उतने घटा देना चाहिये । उस वर्गका मूल लेना और उसे पृथक्‌ रख देना चाहिये ॥१६॥ फिर द्विगुणित मूलए सम अङ्कमें भाग दे और जो लब्धि आवे उसका वर्ग विषममें घटा दे , फिर उसे दूना करके पङक्तिमें रख दे । मुनीश्वर ! इस प्रकार बार - बार करनेसे पङक्तिका आधा वर्गमूल होता है ॥१७ . १ / २॥
समत्र्यङ्कहति : प्रोक्तो घनस्तत्र विधि : पदे ॥१८॥
प्रोच्यते विषमं त्वाद्यं समे द्वे च तत : परम्‌ ।
विशोध्यं विषमादन्त्याद्‌घनं तन्मूलमुच्यते ॥१९॥
त्रिनिघ्याप्तं मूलकृत्या समं मूले न्यसेत्‌ फलम्‌ ।
तत्कृतिञ्चान्त्यनिहतान्त्रिघ्नीं चापि विशोधयेत्‌ ॥२०॥
घनं च विषमादेवं घनमूलं मुहुर्भवेत्‌ ।
समान तीन अङ्कोंके गुणनफलको ‘ घन ’ कहा गया है । अब घनमूल निकालनेकी विधि बतायी जाती है - दाहिनेके प्रथम अङकपर घन या विषमका चिह्न ( खडी लकीरके रूपमें ) लगावे , उसके वामभागमें पार्श्ववर्ती दो अङ्कोंपर ( पडी लकीरके रूपमें ) अघन या समका चिह्न लगावे । इसी प्रकार अन्तिम अङ्कतक एक घन ( विषम ) और दो अघन ( सम )- के चिह्न लगाने चाहिये । अन्तिम या विषम घनमें जितने घन घट सकें उतने घटा दे । उस घनको अलग रखें । उसका घनमूल ले और उस घनमूलका वर्ग करे , फिर उसमें तीनसे गुणा करे । उससे आदि अङ्कमें भाग दे , लब्धिको अलग लिख ले . उस लब्धिका वर्ग करे और उसमें अन्त्य ( प्रथम मूलाङ्क ) एवं तीनसे गुणा करे , फिर उसेक बादके अङ्कमें उसे घटा दे तथा अलग रखी हुई लम्धिके घनको अगले घन अङ्कमें घटा दे , इस प्रकार बार - बार करनेसे घनसूल सिद्ध होता है ॥२० . १ / २॥
अन्योन्यहारनिहतौ हरांशौ तु समच्छिदा ॥२१॥
लवा लवघ्नाश्च हरा हरघ्ना हि सवर्णनम्‌ ।
भागप्रभागे विज्ञेयं मुने शास्त्रार्थचिन्तकै : ॥२२॥
अनुबन्धेऽपवाहे चैकस्य चेदधिकोनक : ।
भागास्तलस्थहारेण हारं स्वांशाधिकेन तान्‌ ॥२३॥
ऊनेन चापि गुणयेद्धनर्णं चिन्तयेत्‌ तथा ।
कार्यस्तुल्यहरांशानां योगश्चाप्यन्तरो मुने ॥२४॥
अहारराशौ रूपं तु कल्पयेद्धरमप्यथ ।
अंशाहतिश्छेदघातहृद्भिन्नगुणने फलम्‌ ॥२५॥
छेदं चापि लवं विद्वन्‌ परिवर्त्य हरस्य च ।
शेष : कार्यो भागहोर कर्तव्यो गुणनाविधि : ॥२६॥
भिन्न अङ्कोंके परस्पर हरसे हर ( भाजक ) और अंश ( भाज्य ) दोनोंको गुण देनेसे सबके नीचे बराबर हर हो जाता है । भागप्रभागमें अंशको अंशसे और हरको हरसे गुणा करना चाहिये । भागानुबन्ध एवं भागापवाहमें यदि एक अङ्क अपने अंशसे अधिक या ऊन होवे तो तलस्थ हरसे ऊपरवाले हरको गुण देना चाहिये । उसके बाद अपने अंशसे अधिक ऊन किये हुए हरसे ( अर्थात्‌ भागनुबन्धमें हर अंशका योग करके और भागापवाहमें हर अंशका अन्तर करके ) अंशको गुण देना चाहिये । ऐसा करनेसे भागानुबन्ध और भागापवाहका फल सिद्ध होगा । जिसके नीचे हर न हो उसके नीचे एक हरकी कल्पना करनी चाहिये । भिन्न गुणन - साधनमें अंश - अंशका गुणन करना और हर - हरके गुणनसे भाग देना चाहिये । इससे भिन्न गुणनमें फलकी सिद्धि होगी । ( यथा २ / ७ * ३ / ८ यहाँ २ और ३ अंश हैं और ७ , ८ हर हैं , इनमें अंश - अंशसे गुणा करनेपर २ * ३ = ६ हुआ और हर - हरके गुणनसे ७ * ८ = ५६ हुआ । फिर ६ * ५६ करनेसे ६ / ५६ जिसे दोसे काटनेपर ३ / २८ उत्तर हुआ ) ॥२१ - २५॥ विद्वन्‌ ! भिन्न संख्याके भागमें भाजकके हर और अंशको परिवर्तित कर ( हरको अंश और अंशको हर बनाकर ) फिर भाज्यके हर - अंशके साथ गुणन - क्रिया करनी चाहिये , इससे भागफल सिद्ध होता है । ( यथा ३ / ८ ४ / ५ में हर और अंशके परिवर्तनसे ३ / ८ * ५ / ४ = १५ * ३२ यही भागफल हुआ ) ॥२६॥
हरांशयो : कृती वर्गे घनौ घनविधौ मुने ।
पदसिद्धयै पदे कुर्यादथो खं सर्वतश्च खम्‌ ॥२७॥
भिन्नङ्के वर्गादि - साधनमें यदि वर्ग करना हो तो हर और अंश दोनोंका वर्ग करे तथा घन करना हो तो दोनोंका घन करे । इसी प्रकार वर्गमूल निकालना हो तो दोनोंका वर्गमूल और चनमूल निकालना हो तो भी दोनोंका घनमूल निकालना चाहिये । ( यथा - ३ / ७ का वर्ग हुआ ९ / ४९ और मूल हुआ ३ / ७ , इसी प्रकार ३ / ७ का घन हुआ २७ / ३४३ और मूल हुआ ३ / ७ ) ॥२७॥
छेदं गुणं गुं छेदं वर्गं मूलं पदं कृतिम्‌ ।
ऋणं स्वं स्वमृणं कुर्याददृश्ये राशिप्रसिद्धये ॥२८॥
अथ स्वांशाधिकोने तु लवाढयोनो हरो हरा।
अंशस्त्वविकृतस्तत्र विलोमे शेषमुक्तवत्‌ ॥२९॥
विलोमविधिसे राशि जाननेके लिये दृश्यमें हरको गुणक , गुणकको हर , वर्गको मूल , मूलको वर्ग , ऋणको धन और धनको ऋण बनाकर अन्तमें उलटी क्रिया करनेसे राशि ( इष्ट संख्या ) सिद्ध होती है । विशेषता यह है कि जहाँ अपना अंश जोडा गया हो वहाँ हरमें अंशको जोडकर और जहाँ अपना अंश घटाया गया हो , वहाँ हरमें अंशको घटाकर हर कल्पना करे और अंश ज्यों - का - त्यों रहे । फिर दृश्य राशिमें विलोम क्रिया उक्त रीतिसे करे तो राशि सिद्ध होती है ॥२८ - २९॥
उद्दिष्टराशि : संक्षुण्णो हृतोंऽशैं रहितो युत : ।
इष्टघ्नदृष्टमेतेन भक्तं राशिरितीरितम्‌ ॥३०॥
अभीष्ट संख्या जाननेक लिये इष्ट राशिकी कल्पना करनी चाहिये । फिर प्रश्रकर्ताके कथनानुसार उस राशिको गूणा करे या भाग दे । कोई अंश घटानेको कहा गया हो तो घटावे और जोडनेको कहा गया हो तो जोड दे अर्थात्‌ प्रश्रमें जो - जो क्रियाएँ कही गयी हों , वे इष्टराशिमें करके फिर जो राशि निष्पन्न हो , उससे कल्पित इष्ट - गुणित दृष्टमें भाग दे , उसमें जो लब्धि हो , वही इष्ट राशि है१ ॥३०॥
योगोऽन्तरेणोनयुर्तोऽर्धितो राशी तु संक्रमे ।
राश्यन्तरह्रतं वर्गान्तरं योगस्ततश्व तौ ॥३१॥
संक्रमण - गणितमें ( यदि दो संख्याओंका योग और अन्तर ज्ञात हो तो ) योगको दो जगह लिखकर एक जगह अन्तरको जोडकर आधा करे तो एक संख्याका ज्ञान होगा और दूसरी जगह अन्तरको घटाकर आधा करे तो दूसरी संख्या ज्ञात होगी - इस प्रकार दोनों राशियाँ ( संख्याएँ ) ज्ञात हो जाती है । वर्गसंक्रमणमें ( यदि दो संख्याओंका वर्गान्तर तथा अन्तर ज्ञात हो तो ) वर्गान्तरमें अन्तरसे भाग देनेपर जो लब्धि आती है , वही उनका योग है ; योगका ज्ञान हो जानेपर फिर पूर्वोक्त प्रकारसे दोनों संख्याओंका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ॥३१॥
गजघ्नीष्टकृतिर्व्येका दलिता चेष्टभाजिता ।
एकोऽस्य वर्गो दलित : सैको राशि : परो मत : ॥३२॥
द्विगुणेष्टहृतं रूपं सेष्टं प्राग्रूपकं परम्‌ ।
वर्गयोगान्तरे व्येके राश्योर्वर्गौ स्त एतयो : ॥३३॥
इष्टवर्गकृतिश्चेष्टघनोऽष्टघ्नौ च सैकक : ।
आद्य : स्यातामुभे व्यक्ते गणितेऽव्यक्त एव च ॥३४॥
वर्गकर्मगणितमें४ इष्टका वर्ग करके उसमें आठसे गुणा करे , फिर एक घटा दे , उसका आधा करे । तत्पश्चात्‌ - उसमें इष्टसे भाग दे तो एक राशि ज्ञात होगी । फिर उसका वर्ग करके आधा करे और उसमें एक जोड दे तो दूसरी संख्या ज्ञात होगी५ ॥३२॥
अथवा कोई इष्ट - कल्पना करके उस द्विगुणित इष्टसे १ में भाग देकर लब्धिमें इष्टको जोडे तो प्रथम संख्या होगीऔर दूसरी संख्या १ होगी । ये दोनों संखाएँ वे ही होंगी , जिनके वर्गोंके योग और अन्तरमें एक घटानेपर भी वर्गाङ्क ही शेष रहता है ॥३३॥ किसी इष्टके वर्गका वर्ग तथा पृथक्‌ उसीका घन करके दोनोंको पृथक्‌ - पृथक्‌ आठसे गुणा करे । फिर पहलेमें एक जोडे तो दोनों संख्याएँ ज्ञात होंगी । यह विधि व्यक्त और अव्यक्त दोनों गणितोंमें उपयुक्त है ॥३४॥
गुणघ्नमूलोनयुते सगुणार्धकृते : पदम्‌ ।
दृष्टस्य च गुणर्धोनयुतं वर्गीकृतं गुण : ॥३५॥
यदा लवोनयुग्राशिर्दृश्यं भागोनयुग्भुवा ।
भक्तंतथा मूलगुणं ताभ्यां साध्योऽथ व्यक्तवत्‌ ॥३६॥
गुणकर्म अपने इष्टङ्कुगुणित मूलसे ऊन या युक्त होकर यदि कोई संख्या दृश्य हुई हो तो मूल गुणकके आधेका वर्ग दृश्य - संख्यामें जोडकर मूल लेना चाहिये । उसमें क्रमसे मूल गुणकके आधा जोडना और घटाना चाहिये । ( अर्थात जहाँ इष्टगुणितमूलसे ऊन होकर दृश्य हो वहाँ गुणकार्धको जोडना तथा यदि इष्टगुणितमूलयुक्त होकर दृश्य हो तो उक्त मूलमें गुणकार्ध घटाना चाहिये ) फिर उसका वर्ग कर लेनेसे प्रश्रकर्ताकी अभीष्ट राशि ( संख्या ) सिद्ध होती है । यदि राशि मूलोन या मूलयुक्त होकर पुन : अपने किसी भागसे भी ऊन या युत होकर दृश्य होती हो तो उस भागको१ में ऊन या युत कर यदि भाग ऊन हुआ हो तो घटा करके और ( यदि युत हुआ हो तो जोड करके ) उसके द्वारा पृथक्‍ - प्रुथक्‌ दृश्य और मूल गुणकमें भाग दे ; फिर इस नूतन दृश्य और मूलगुणकसे पूर्ववत्‌ राशिका साधन करना चाहिये ॥३५ - ३६॥
प्रमाणेच्छे सजातीये आद्यन्ते मध्यगं फलम्‌ ।
इच्छाघ्नमाद्यह्रत्स्वेष्टं फलं व्यस्ते विपर्ययात्‌ ॥३७॥
( त्रैराशिकमें ) प्रमाण और इच्छा ये समान जातिके होते है , इन्हें आदि और अन्तमें रखे , फल भिन्न जातिका है , अत : उसे मध्यमें स्थापित करे । फलको इच्छासे गुणा करके प्रमाणके द्वारा भाग देनेसे लब्धि इष्टफल होती है । ( यह क्रम त्रैराशिक बताया गया है । ) व्यस्त त्रैराशिकमें इससे विपरीत क्रिया करनी चाहिये । अर्थात्‌ प्रमाण - फलको प्रमाणसे गुणा करके इच्छासे भाग देनेपर लब्धि इष्टफल होती है । ( प्रमाण , प्रमाण - फल और इच्छ - इन तीन राशियोंको जानकर इच्छाफल जाननेकी क्रियाको त्रैराशिक कहते हैं । ) ॥३७॥
पञ्चराश्यादिकेऽन्योपक्षं कृत्वा फलच्छिदाम्‌ ।
बहुराशिवधे भक्ते फलं स्वल्पवधेन च ॥३८॥
इष्टकर्मविधेर्मूलं च्युतं मिश्रात्‌ कलान्तरम्‌ ।
मानघ्नकालश्चातीतकालघ्नफलसंहृता : ॥३९॥
स्वयोगभक्ता मिश्रघ्ना : सम्प्रयुक्तदलानि च ।
पञ्चराशिक , सप्तराशिक ( नवराशिक , एकादशराशिक ) आदिमें फल और हरोंको परस्पर पक्षमें परिवर्तन करके ( प्रमाण - पक्षवालेको इच्छा - पक्षमें और इच्छा - पक्षवालेको प्रमाण - पक्षमें रखकर ) अधिक राशियोंके घातमें अल्पराशिके घातसे भाग देनेपर जो लब्धि आवे , वही इच्छाफल है ॥३८॥ मिश्रधनको इष्ट मानकर इष्टकर्मसे मूलधनका ज्ञान करे , उसको मिश्रधनमें घटानेसे कलान्तर ( सूद ) समझना चाहिये । अपने - अपने प्रमाण धनसे अपने - अपने कालको गुणा करना , उसमें अपने - अपने व्यतीत काल और फलके घात ( गुणा )- से भाग देना , लब्धिको पृथक्‌ रहने देना , उन सबमें उन्हींके योगका पृथक्‌ - पृथक्‌ भाग देना तथा सबको मिश्रधनसे गुणा कर देना चाहिये । फिर क्रमसे प्रयुक्त व्यापारमें लगाये हुए धनखण्डके प्रमाण ज्ञात होते हैं ॥३९ . १ / २॥
बहुराशिफलात्‌ स्वल्पराशिमासफलं बहु ॥४०॥
चेद्राशिजफलं मासफलाहतिहृतं चय : ।
पञ्चराशिकादिमें फल और हरको अन्योन्य पक्षनयन करनेसे इच्छा - पक्षमें फलके चले जानेसे इच्छापक्ष बहुराशि और प्रमाण - पक्ष स्वल्पपराशि माना गया है । इसी गणितके उदाहरणमें जब इच्छाफल जानकर मूलधन जानना होगा तो फलोंको परस्पर पक्षमें परिवर्तन करनेसे प्रमाण - पक्ष ( स्वल्पराशि ) का फल ही बहुराशि ( इच्छापक्ष )- से अधिक होगा । यहाँ राशिजफलको इष्टमास और प्रमाण - फलके गुननसे भाग देनेपर मूलधन होता है ॥४० . १ / २॥
क्षेपा मिश्रहता : क्षेपयोगभक्ता : फलानि चा ॥४१॥
भजेच्छिदोंऽशैस्तैर्मिश्रै रूपं कालश्च पूर्तिकृत्‌ ।
प्रक्षेप ( पूँजीके टुकडे )- को पृथक्‌ - मिश्रधनसे गुण देना और उसमें प्रक्षेपके योगसे भाग देना चाहिये । इससे पृथक्‌ - पृथक्‌ फल ज्ञात होते हैं । वापी आदि पूरणके प्रश्रमें - अपने - अपने अंशोंसे हरमें भाग देना , फिर उस सबके योगसे १ में भाग देनेपर वापीके भरनेके समयका ज्ञान होता है२ ॥४१ . १ / २॥
गुणो गच्छेऽसमे व्येके समे वर्गोऽर्धितेऽन्तत : ॥४२॥
यद्‌ गच्छान्तफलं व्यस्तं गुणवर्गभवं हि तत्‌ ।
व्येकं व्येकगुणाप्तं च प्राग्घ्नं मानं गुणात्तरे ॥४३॥
( द्विगुणचयादि - वृद्धिमें फलका साधन )- ( जहाँ द्विगुण - त्रिगुण आदि चय हो वहाँ ) पद यदि विषम संख्य ( ३ , ५ , ७ आदि ) हो तो उसमें १ घटाकर गुणक लिखे । यदि पद सम हो तो आधा करके वर्गचिह्न लिखे । इस प्रकार एक घटाने और आधा करनेमें भी जब विषमाङ्क हो तब गुणकचिह्न , जब समाङ्क हो तब वर्गचिह्न करना एवं जबतक पदकी कुल संख्या समाप्त न हो जाय तबतक करते रहना चाहिये । फिर अन्त्य चिह्नसे उलटा गुणज और वर्गफल साधन करके आद्य चिह्नतक जो फल हो , उसमें १ घटाकर शेषमें एकोन गुणकसे भाग देना चाहिये । लब्धिको आदि अङ्कसे गुणा करनेपर सर्वधन होता है ॥४२ - ४३॥
भुजकोटिकुतेर्योगमूलं कर्णश्च दोर्भवेत्‌ ।
श्रुतिकोटिकृतेरन्त : पदं दो : कर्णवर्गयो : ॥४४॥
विवराद्‌ यत्पदं कोटि : क्षेत्रे त्रिचतुरस्त्रके ।
राश्योरन्तरवर्गेण द्विघ्ने घाते युते तयो : ॥४५॥
वर्गयोगोऽथ योगान्तर्हतिर्वर्गान्तरं भवेत्‌ । 
( क्षेत्रव्यवहार - प्रकरण )- भुज और कोटिके वर्गयोगका मूल कर्ण होता है , भुज और कर्णके वर्गान्तरका मूल कोटि होता है तथा कोटि एवं कर्णके वर्गान्तरका मूल भुज होता है - यह बात त्रिभुज अथवा चतुर्भुज क्षेत्रके लिये कही गयी है । अथवा राशिके अन्तरवर्गमें उन्हीं दोनों राशियोंका द्विगुणित घात ( गुणनफल ) जोड दें तो वर्गयोग होता है अथवा उन्हीं दोनों राशियोंके योगान्तरका घात वर्गान्तर होता है ॥४५ . १ / २॥
व्यास आकृतिसंक्षुण्णोऽद्रयाप्त : स्यात्‌ परिधिर्मुने ॥४६॥
ज्याव्यासयोगविवराहतमूलोनितोऽर्धित : ।
व्यास : शर : शरोनाच्च व्यासाच्छरगुणात्‌ पदम्‌ ॥४७॥
द्विघ्नं जीवाथ जीवार्धवर्गे शरहृते युते ।
व्यासो वृत्ते भवेदेवें प्रोक्तं गणितकोविदै : ॥४८॥
मुने ! व्यासको २२ से गुण देना और ७ से भाग देना चाहिये , इससे स्थूल परिधिका ज्ञान होता है ॥४६॥ ज्या ( जीवा ) और व्यासका योग एक जगह रखना और अन्तरको दूसरी जगह रखना चाहिये । फिर इन दोनोंका घात ( गुणा ) करना चाहिये । उस गुणका मूल लेना और उसको व्यासमें घटा देना चाहिये । फिर उसका आधा करे , वही ‘ शर ’ होगा । व्यासमें शरको घटाना , अन्तरको शरसे गुण देना , उसका मूल लेना और उसे दूना करना चाहिये तो ‘ जीवा ’ हो जायगी । जीवाका आधा करके उसका वर्ग करना , शरसे भाग देना और लब्धिमें शरको जोड देना चाहिये , तो व्यासका मान होगा ॥४७ - ४८॥
चापोननिघ्न : परिधि : प्रागाख्य : परिधे : कृते : ।
तुर्त्यांशेन शरघ्नेनाद्योनेनाद्यं चतुर्गुणम्‌ ॥४९॥
व्यासघ्नं प्रभजेद्विप्र ज्यका संजायते स्फुटा ।
ज्याङघ्नीषुघ्नोवृत्तवर्गोऽब्धिघ्नव्यासाढयामौर्विहृत्‌ ॥५०॥
लब्धोनवृत्तवर्गाङ्घ्रे : पदेऽर्धात्‌ पतिते धनु : ।
परिधिसे चापको घटाकर शेषमें चापसे ही गुणा करनेपर गुणनफल ‘ प्रथम ’ कहलाता है । परिधिका वर्ग करना , उसका चौथा भाग लेना , उसे पाँचसे गुणा करना और उसमें ‘ प्रथम ’ को घटा देना चाहिये । यह भाजक होगा । चतुर्गुणित व्यासको प्रथमसे गुण देना , यह भाज्य हुआ । भाज्यमें भाजकसे भाग देना , यह जीवा हो जायगी२ ॥४९ . १ / २॥ व्यासको चारसे गुणा करके उसमें जीवाको जोड देना , यह भाजक हुआ । परिधिके वर्गको जीवाकी चौथाई औ पाँचसे गुण देना , यह भाज्य हुआ । भाजकसे भाज्यमें भाग देना , जो लब्धि आवे , उसे परिधिवर्गके चतुर्थांशमें घटा देना और शेषका मूल लेना , उसे वृत्त ( परिधि ) के आधेमें घटा देनेपर तो धनु ( चाप ) होगा ॥५० . १ / २॥
स्थूलमध्याण्वन्नवेधो वृत्ताङ्काशेशभागिक : ॥५१॥
वृभाङ्गांशकृतिर्वेधनिघ्नी घनकरा मितौ ।
वारिव्यासहतं दैर्घ्यं वेधाङ्गुलहतं पुन : ॥५२॥
खखेन्दुरामविहृतं मानं द्रोणदि वारिण : ।
विस्तारयामवेधानामङ्गुल्योऽन्योन्यताडिता : ॥५३॥
रसाङ्काभ्राब्धिभिर्भक्त धान्ये द्रोणादिका मिति : ।
उत्सेधव्यासदैर्घ्याणामङ्गुलान्यश्मनो द्विज ॥५४॥
मिथोघ्नानि भजेत्‌ खाक्षेशैर्द्रोणदिमितिर्भवेत्‌ ।
विस्ताराद्यडगुलान्येवं मिथोघ्नान्ययसां भवेत्‌ ॥५५॥
बाणेभमार्गणैर्लब्धं द्रोणाद्यं मानमादिशेत्‌ ।
( अन्नादि राशि - व्यवहार ) राशि - व्यवहारमें स्थूल , मध्यम , सूक्ष्म , अन्नराशियोंमें क्रमश : उनकी परिधिका नवमांश , दशमांश और एकादशांश वेध होता है । परिधिका षष्ठांश लेकर उसका वर्ग करना और उसे वेधसे गुण देना चाहिये । उसका नाम ‘ घनहस्त ’ होगा । जलके व्यास ( चौडाई )- से लंबाईको गुण देना , फिर उसीको गहराईके अंगुल - मानसे गुण देना तथा ३१०० से भाग देना चाहिये । इससे जलका द्रोणात्मक मान ज्ञात होगा ॥५२ . १ / २॥ चौडाई , गहराई और लंबाईके अंगुलात्मक मानको परस्पर गुण देना और उसमें ४०९६ से भाग देना तो अन्नका द्रोणादि मान होगा । ऊँचाई , व्यास ( चौडाई ) और लंबाईके अंगुलात्मक मानको परस्पर गुण देना और ११५० से भग देना चाहिये ; वह पत्थरका द्रोणात्मक मान होगा । विस्तार आदिके अंगुलात्मक मानको परस्पर गुणा करना चाहिये और ५८५ से भाग देना चाहिये , तो लब्धि लोहेके द्रोणात्मक मानका सूचक होती है ॥५५ . १ / २॥
दीपशङ्कुतलच्छिघ्न : शङ्कुर्भा भवेन्मुने ॥५६॥
नरोनदीपकशिखौच्यभक्तो ह्यथ भोद्धते ।
शङ्कु नृदीपाधश्छिद्र्घ्ने दीपौच्च्यं नरान्विते ॥५७॥
विशङ्कुदीपौच्चगुणा छाया शङ्कुद्धता भवेत्‌ ।
दीपशङेक्वेन्त चाथच्छायाग्रविवरघ्नभा ॥५८॥
मानान्तरहृता भूमि : स्यादथो भूनराहति : ।
प्रभाप्त जायते दीपशिखौच्च्यं स्यात्‌ त्निराशिकात्‌ ॥५९॥
एतत्‌संक्षेपत : प्रोक्तं गणिते परिकर्मकम्‌ ।
ग्रहमध्यादिकं वक्ष्ये गणिते नातिविस्तरात्‌ ॥६०॥
छाया - साधनमें प्रदीप और शङ्कुतलका जो अन्तर हो उससे शङ्कुको गुण देना और दीपककी ऊँचाईमें शङ्कुको घटाकर उससे उस गुणित शङ्कुमें भाग देना तो छायाका मान होगा । शङ्कु और दीपतलके अन्तरसे शङ्कुको गुण देना और छायासे भाग देना ; फिर लब्धिमें शङ्कुको जोड देना तो दीपककी ऊँचाई हो जायगी । शङ्कुसे भाग देना और तो शङ्कु तथा दीपकका अन्तर ज्ञात होगा । छायाग्रके अन्तरसे छायाको गुण देना छायाके प्रमाणान्तरसे भाग देना तो ‘ भू ’ होगी । ‘ भू ’ और शङ्कुका घाण ( गुणा ) करना और छायासे भाग देना तो दीपककी ऊँचाई होगी । उपर्युक्त सब बातोंका ज्ञान त्रैराशिकसे ही होता है । यह परिकर्मगणित मैंने संक्षेपसे कहा । अब ग्रहका मध्यादिक गणित बताता हूँ . वह भी अधिक विस्तारसे नहीं ॥५६ - ६०॥
युगमानं स्मृतं विप्र खचतुष्करदार्णवा : ।
तद्दशांशास्तु चत्त्वार : कृताख्यं पदमुच्यते ॥६१॥
त्रयस्त्रेता द्वापरो द्वौ कलिरेक : प्रकीर्तित : ।
मनु : कृताब्दसहिता युगानामेकसप्तति : ॥६२॥
विधेर्दिने स्युर्विप्रेन्द्र मनवस्तु चतुर्दश ।
तावत्येव निशा तस्य विप्रेन्द्र परिकीर्तिता ॥६३॥
स्वयम्भुव : सृष्टिगतानब्दान्‌ सम्पिण्डय नारद ।
खचरानयनं कार्यमथवेष्टयुगादित : ॥६४॥
विप्रवर ! चारों युगोंका सम्मिलित मान तैंतालीस लाख बीस हजार वर्ष बतलाया गया है । उसके दशांशमें चारका गुणा करनेपर सत्ययुग नामक पाद होगा । ( उसका मान १७ लाख २८ हजार वर्ष है ) । दशांशमें तीनका गुणा करनेपर ( १२९६००० वर्ष ) है । त्रेता नामक पाद होता है । दशांशमें दोखा गुणा करनेपर ( ८६४००० वर्ष ) द्वापर नामक पाद होता है और उक्त दशांशको एकगुना ही रखनेपर ( ४३२००० वर्ष ) कलियुग नामक पाद कहा गया है । कृताब्दसहित ( एक सत्ययुग अधिक ) इकहत्तर चतुर्युगका एक मन्वन्तर होता है ॥६१ - ६२॥ ब्रह्मन्‌ ! ब्रह्माजीके एक दिनमें चौदह मनु होते हैं और उतने ही सगयकी उनकी एक रात्रि होती है ॥६३॥ नारद ! ब्रह्माजीके वर्तमान कल्पमें जितने वर्ष बीत गये हैं . उन्हें एकत्र करके ग्रहानयन ( ग्रह - साधन ) करना चाहिये । अथवा इष्ट युगादिसे ग्रह - साधन करे ॥६४॥
युगे सूर्यज्ञशुक्राणां खचतुष्करदार्णवा : । 
कुजार्किगुरुशीघ्राणां भगणा : पूर्वयायिनाम्‌ ॥६५॥
इन्दो रसाग्नित्रित्रीषुसप्तभूधरमार्गणा : ।
दस्त्रत्र्यष्टरसाङ्काक्षिलोचनानि कुजस्य तु ॥६६॥
बुधशीघ्रस्य शून्यर्तुखाद्रित्र्यङ्कनगेन्दव : ।
बृहस्पते : खदस्राक्षिवेदषडवह्नयस्तथा ॥६७॥
सितशीघ्रस्य षटसप्तत्रियमाश्चिखभूधरा : ।
शनेर्भुजङ्गषटपञ्चरसवेदनिशाकरा : ॥६८॥
चन्द्रोच्चस्याग्निशून्याश्विवसुसर्पार्णवा युगे ।
वामं पातस्य वस्वग्नियमाश्विशिखिदस्रका : ॥६९॥
एक युगमें पूर्व दिशाकी ओर चलते हुए सूर्य , बुध और शुक्रके ४३२०००० ‘ भगण ’ होते हैं । तथा मङ्गल , शनि और बृहस्पतिके शीघ्रोच्च भगण भी उतने ही होते हैं ॥६५॥ एक युगमें चन्द्रमाके भगण ५७७५३३३६ होते हैं। भौमके २२९६८३२ , बुधके शीघ्रोच्चके १७९३७०६० , बृहस्पतिके ३६४२२० , शुक्रके शीघ्रोच्चके ७०२२३७६ , शनिके १४६५६८ तथा चन्द्रमाके उच्चके भगण ४८८२०३ होते हैं। चन्द्रमाके पातकी वामगतिसम्बन्धी भगणोंकी संख्या २३२२३८ है ॥६६ - ६९॥
उदयादुदयं भानोर्भूमिसावनवासरा : ।
वसुद्वयष्टाद्रिरूपाङ्कसप्ताद्रितिथयो युगे ॥७०॥
षडवह्नित्रिहुताशाङ्कतिथयश्चाधिमासका : ।
तिथिक्षया यमार्थाश्विद्वयष्टव्योमशराश्विन : ॥७१॥
खचतुष्कसमुद्राष्टकुपञ्च रविमासका : ।
षट्‌त्र्यग्नित्रयवेदाग्निपञ्च शुभ्रांशुमासका : ॥७२॥
प्राग्गते : सूर्यमन्दस्य कल्पे सप्ताष्टवह्नय : ।
कौजस्य वेदखयमा बौधस्याष्टर्तुबह्नय : ॥७३॥
खखरन्ध्राणि जैवस्य शौक्रस्यार्थगुणेषव : ।
गोऽग्नय : शनिमन्दस्य पातानामथ नामत : ॥७४॥
मनुदस्रास्तु कौजस्य बौधस्याष्टाष्टसागरा : ।
कृताद्रिचन्द्रा जैवस्य शौक्रस्याग्निखनन्दका : ॥७५॥
शनिपातस्य भगणा : कल्पे यमरसर्वत : ।
सूर्यके एक उदयसे दूसरे उदयपर्यन्त जो दिनका मान होता है , उसे भौमवासर या सावन वासर कहते हैं । वे एक महायुग ( चतुर्युग )- में १५७७९१७८२८ होते हैं । ( चान्द्र दिवस १६०३००००८० होते हैं ) । अधिमास १५९३३३६ होते हैं तथा तिथिक्षय २५०८२२५२ होते हैं ॥७० - ७१॥ रविमासोंकी संख्या ५१८४०००० है । चान्द्र मास ५३४३३३३६ होते हैं ॥७२॥ पूर्वाभिमुख गतिके क्रमसे एक कल्पमें सूर्यके मन्दोच्च भगण ३८७ , मङ्गलके मन्दोच्च भगण , २०४ , बुधके मन्दोच्च ३६८ , गुरुके मन्दोच्च ९०० , शुक्रके मन्दोच्च ५३५ तथा शनिके मन्दोच्च भगण ३९ होते हैं । अब मङ्गल आदि ग्रहोंके पातोंकी विलोमगति ( पश्चिम - गमन )- के अनुसार एक कल्पमें होनेवाले भगण बताये जात हैं ॥७३ - ७४॥ भौमपातके भगण २१४ , बुधपातके भगण ४८८ , गुरुपातके भगण १७४ , भृगुपातके भगण ९०३ तथा शनिपातके भगण ६६२ होते हैं ॥७५ . १ / २॥
वर्तमानयुगे याता वत्सरा भगणाभिधा : ॥७६॥
मासीकृता युता मासैर्मधुशुक्लादिभिर्गतै : ।
पृथक्स्थास्तेऽधिमासघ्ना : सूर्यमासविभाजिता : ॥७७॥
लब्धाधिमासकैर्युक्ता दिनीकृत्य दिनान्विता ।
द्विष्ठास्तिथिक्षयाभ्यसताश्चान्द्रवासरभाजिता : ॥७८॥
लब्धोनरात्रिरहिता लङ्कायामार्धरात्रिक : ।
सावनो द्युगण : सूर्याद‌ दिनमासाब्दपास्तत : ॥७९॥
सप्तभि : क्षयित : शेष : सूर्याद्यो वासरेश्वर : ।
मासाब्ददिनसंख्याप्तं द्वित्रिघ्नं रूपसंयुतम्‌ ॥८०॥
सप्तोद्धृतावशेषौ तौ विज्ञेयौ मासवर्षपौ ।
वर्तमान युग ( जिस युगमें , जिस समयके अहर्गण या ग्रहादिका ज्ञान करना हो उस समय )- में सृष्टयादि काल या युगादिकालसे अबतक जितने वर्ष बीत चुके हों , वे सूर्यके भगण होते हैं । भगणको बारहसे गुणा करके मास बनाना चाहिये । उसमें ‘ वर्तमान वर्षके ’ चैत्र शुक्ल प्रतिपदासे लेकर वर्तमान मासतक जितने मास बीते हों , उनकी संख्या जोडकर योगफलको दो स्थानोंमें रखना चाहिये । द्वितीय स्थानमें रखे हुए मासगणको युगके उपर्युक्त अधिआसोंकी संख्यासे गुणा करके गुननफलमें युगके सूर्यसासोंकी संख्यासे भाग दे । फिर जो लब्धि हो , उसे अधिमासकी संख्या माने और उसको प्रथम स्थानस्थित मासगणमें जोडे । ( योगफल बीते हुए चान्द्रमासोंकी संख्याका सूचक होता है ) उस संक्याको तीससे गुणा करे ( तो गुणनफल तिथि - संक्याका सूचक होता है ), उसमें वर्तमान मासकी शुक्ल प्रतिपदासे इष्टतिथितककी संख्या जोडे ( जोडनेसे चान्द्र दिनकी संख्या ज्ञात होती है ) इसको भी दो स्थानोंमें रखे । दूसरे स्थानमें स्थित संख्याको युगके लिये कथित तिथिक्षय - संख्यासे गुणा करे । गुणनफलमें युगकी चान्द्र दिन ( तिथि ) संख्याके द्वारा भाग दे । जो लब्धि हो , वही तिथिक्षय - संख्या है , उसको प्रथम स्थानमें स्थित चान्द्र दिन - संख्यामेंसे घटा दे तो अभीष्ट दिनका लंकार्धरात्रिकालिक सावन दिनगण ( अहर्गण ) होता है । इससे दिनपति , मासपति और वर्षपतिका ज्ञान करे ॥७६ - ७९॥ यथा - दिनगणमें ७ से भाग देनेपर शेष बचे हुए १ आदि संख्याके अनुसार रवि आदि वारपति चाहिये । तथा दिनगणमें ३० से भाग देकर लब्धिको २ से गुणा करके गुणनफलमें १ जोड दे । फिर उसमें ७ से भाग देकर १ आदि शेष होनेपर रवि आदि मासपत्ति समझे । इसी प्रकार दिनगणमें ३६० से भाग देकर लब्धिको ३ से गुणा करके गुणनफलमें १ जोडे , फिर उसमें ७ से भाग देनेपर १ आदि शेष संख्याके सनुसार रवि आदि ‘ वर्तमान ’ वर्षपति होते हैं ॥८० . १ / २॥
ग्रहस्य भगणाभ्यस्तो दिनराशि : कुवासरै : ॥८१॥
विभाजितो मध्यगत्या भगणादिर्ग्रहो भवेत्‌ ।
एवं स्वशीघ्रमन्दोच्चा ये प्रोक्ता : पूर्वयायिन : ॥८२॥
विलोमगतय : पातास्तद्वच्चक्राद्‌ विशोधिता : ।
( मध्यमग्रहज्ञान ) ---  युगके लिये कथित भगणकी संख्यासे दिनगणको गुणा करे । गुणनफलमें युगकी कुदिन ( सावनदिन )- संख्यासे भाग देनेपर भगणादि ग्रह लंकार्धरात्रिकालिक होता है । इसी प्रकार पूर्वाभिमुख गतिवाले जो शीघ्रोच्च और मन्दोच्च कहे गये हैं , उनके भगणके द्वारा उनका भी साधन होता है । विलोम ( पश्चिमाभिमुख ) गतिवाले जो ग्रहोंके पातभगण कहे गये हैं , उनके द्वारा इसी प्रकार जो पात सिद्ध हों , उनको १२ राशिमें घटानेसे शेषको मेषादि - क्रमसे राश्यादिपात समझना चाहिये४ ॥८२ . १ / २॥
योजनानि शतान्यष्टौ भूकर्णो द्विगुणानि तु ॥८३॥
तद्वर्गतो दशगुणात्‌ पदं भूपरिधिर्भवेत्‌ ।
लम्बज्याघ्नस्व्रिजीवाप्त : स्फुटो भूपरिधि : स्वक : ॥८४॥
( भूपरिधिप्रमाण ) ---  पृथ्वीका व्यास १६०० योजन है । इस ( १६०० )- के वर्गको १० से गुणा करके गुणुनफलका मूल भूमध्यपरिधि होता है ; अर्थात्‌ वर्गमूलकी जो संख्या हो , उतने योजनकी पृथ्वीकी परिधि जाननी चाहिये । इस भूमध्य - परिधिकी संख्याको अपने - अपने लम्बांश - ज्यासे गुणा करके उसमें त्रिज्या ( ३४३८ )- से भाग देकर जो लब्धि हो , वह स्पष्ट भूपरिधिकी योजन - संख्या होती है ॥८३ - ८४॥ 
तेन देशान्तराभ्यस्ता ग्रहभुक्तिर्विभाजिता । 
कलादि तत्फलं प्राच्यां ग्रहेभ्य : परिशोधयेत्‌ ॥८५॥
रेखाप्रतीचीसंस्थाने प्रक्षिपेत्‌ स्यु : स्वदेशजा : ।
राक्षसालयदेवौक : शैलयोर्मध्यसूत्रगा : ॥८६॥
अवन्तिकारोहितकं यथा सन्निहितं सर : ।
वारप्रवृत्ति : प्राग्देशे क्षपार्धेऽभ्यधिके भवेत्‌ ॥८७॥
तद्देशान्तरनाडीभि : पश्चादूने विनिर्दिशेत्‌ ।
( ग्रहोंमें देशान्तर - संस्कार ) ---  ग्रहकी कलादि मध्यम गतिको देशान्तर - योजन ( रेखादेशसे जितने योजन पूर्व या पश्चिम अपना स्थान ओह उस )- से गुणा करके गुणनफलमें ‘ स्पष्टभूपरिधि - योजन ’ के द्वारा भाग देनेपर जो लब्धि हो , वह कला आदि है । उस लब्धिको रेखासे पूर्व देशमें पूर्वसाधित ग्रहमें घटानेसे और पश्चिम देशमें जोडनेसे स्वस्थानीय अर्धरात्रिकालिक ग्रह होता है ॥८५ . १ / २॥
( रेखा - देश ) --- लङ्कासे सुमेरुपर्वतपर्यन्त याम्योत्तर - रेखामें जो - जो देश ( स्थान ) हैं , वे रेखा - देश कहलाते हैं। जैसे उज्जयिनी , रोहितक , कुरुक्षेत्र आदि ॥८६ . १ / २॥
( वार - प्रवृत्ति ) --- भूमध्यरेखासे पूर्वदेशमें रेखा - देशीय मध्यरात्रिसे , देशान्तर घटीतुल्य पीछे और रेखासे पश्चिम देशमें मध्यरात्रिसे देशान्तर घटीतुल्य पूर्व ही वार - प्रवृत्ति ( रवि - आदि वारोंका आरम्भ ) होती है ॥८७ - १ - २॥
इष्टनाडीगुणा भुक्ति : षष्टया भक्ता कलादिकम्‌ ॥८८॥
गते शोद्धयें तथा योज्यं गम्ये तात्कालिको ग्रह ।
भचक्रलिप्ताशीत्यंशं परमं दक्षिणोत्तरम्‌ ॥८९॥
विक्षिप्यते स्वपातेन स्वक्रान्त्यन्तादनुष्णगु : ।
तन्नवांशं द्विगुणितं जीव्वस्त्रिगुणितम कुज : ॥९०॥
बुधशुक्रार्कजा : पातैर्विक्षिप्यन्ते चतुर्गुणम्‌ ।
( इष्टकालमें मध्यम ग्रह जाननेकी विधि ) ---  मध्यरात्रिसे जितनी घडी बाद ग्रह बनाना हो , उस संखासे ग्रहकी कलादि गतिको गुणा करके गुणनफलमें ६० से भाग देकर लब्धितुल्य कलादि फलको पूर्वसाधित ग्रहमें जोडनेसे तथा जितनी घडी मध्यरात्रिसे पूर्व ग्रह बनाना हो , उतनी संख्यासे गतिको गुणा करके गुणनफलमें ६० से भाग देकर कलादि फलको पूर्वसाधित ग्रहमें घटानेसे इष्टकालिक ग्रह होता है३ ॥८८ . १ / २॥
( चन्द्रादि ग्रहोंके परम विक्षेप ) --- भचक्रकला ( २१६०० )- के ८० वाँ भाग ( २७० ) कलापर्यन्त क्रान्तिवृत्त ( सूर्यके मार्ग )- से परम दक्षिण और उत्तर चन्द्रमा विक्षिप्त होता ( हटता ) है । एवं गुरु ६० कला , मङ्गल ९० कला , बुध , शुक्र और शनि - ये तीनों १२० कलापर्यन्त क्रान्तिवृत्तसे दक्षिण और उत्तर हटते रहते हैं ॥९० . १ / २॥
राशिलिप्ताष्टमो भाग : प्रथमं ज्यार्द्धमुच्यते ॥९१॥
तत्तद्‌ विभक्तलब्धोनमिश्रितं तद्‌ द्वितीयकम्‌ ।
आद्ये नैवं क्रमात्‌ पिण्डान्‌ भक्त्वा लब्धोनसंयुता : ॥९२॥
खण्डका : स्युश्चतुर्विंशाज्यार्द्धपण्डा : क्रमादमी ।
परमापक्रामज्या तु सप्तरन्ध्रगुणेन्दव : ॥९३॥
तद्रुणा ज्या त्रिजीवाप्ता तच्चापं क्रान्तिरुच्यते ।
अभीष्ट जीवासाधनके लिये उपयोगी २४ जीवासाधन ) --- १ राशि - कला १८०० का आठवाँ भाग ( २२५ कला ) प्रथम जीवाध होता है । उस ( प्रथम जीवार्ध ) से प्रथम जीवार्धमें भाग देकर लब्धिको प्रथम जीवार्धमें ही घटाकर शेष ( प्रथमखण्ड ) को प्रथम जीवार्धमें ही जोडनेसे द्वितीय जीवार्ध होता है । इसी प्रकार प्रथम जीवासे ही द्वितीय जीवामें भाग देकर लब्धिको द्वितीय खण्डमें घटाकर शेषको द्वितीय जीवार्धमें जोडनेसे तृतीय जीवार्ध होता है । इसी तरह आगे भी क्रिया करनेसे क्रमश : २४ जीवार्ध सिद्ध३ होते हैं ॥९२ . १ / २॥
इस प्रकार सूर्यकी परमक्रान्तिज्या १३९७ होती है । इस ( परमक्रान्तिज्या )- से ग्रहकी ज्या ( भुजज्या ) को गुणाकरके त्रिज्याके द्वारा भाग देनेसे ‘ इष्टक्रान्ति - ज्या ’ होती है । उसका चाप बनानेसे ‘ इष्ट्क्रान्ति ’ ( मध्यमा ) कहलाती है ॥९३ . १ / २॥
ग्रहं संशोध्य मन्दोच्चात्‌ तथा शीघ्राद्विशोध्य च ॥९४॥
शेषं केन्द्रपदं तस्माद्भुजज्या कोटिरेव च ।
गताद्भुजज्याविषमे गम्यात्‌ कोटि : पदे भवेत्‌ ॥९५॥
युग्मे तु गम्याद्वहुच्या कोटिज्या तु गताद्‌ भवेत्‌ ।
लिप्तास्तत्त्वयमैर्भक्ता लब्धं ज्यापिण्डकं गतम्‌ ॥९६॥
गतगम्यान्तराभ्यस्तं विभजेत्तत्त्वलोचनै : ।
तदवाप्तफलं योज्यं ज्यापिण्डे गतसंज्ञके ॥९७॥
स्यात्क्रमज्या विधिरयमुत्क्रमज्यास्वपि स्मृत : ।
ज्यां प्रोह्य शेषं तत्त्वाश्विहतं तद्विवरोद्धृतम्‌ ॥९८॥
संख्यातत्त्वाश्विसंवर्गे संयोज्य धगुरुच्यते ।
( ‘ भुजज्या ’ और ‘ कोटिज्या ’ बनानेकीरीति---)  ग्रहोंको अपने - अपने मन्दोच्चमें घटानेसे शेष उस ग्रहका ‘ मन्द केन्द्र ’ तथा शीघ्रोच्चमें घटानेसे शेष उस ग्रहका ‘ शीघ्र केन्द्र ’ कहलाता है । उस राश्यादि केन्द्रकी ‘ भुजज्या ’ और ‘ कोटिज्या ’ बनानी चाहिये । विषम ( १ , ३ ) पदमें ‘ गत ’ चपकी जीवा भुजज्या और ‘ गम्य ’ चापकी जीवा कोटिज्या कहलाती है । सम ( २ , ४ ) पदमें ‘ गम्य ’ चापकी जीवा ‘ भुजज्या ’ और ‘ गत ’ चापकी जीवा ‘ कोट्ज्या ’ होती है२ ॥९५ . १ / २॥ 
( इष्टज्या - साधन - विध ) --- जितने राश्यादि चापकी जीवा बनाना हो , उसकी कला बनाकर उसमें २५५ से भाग देकर जो लब्धि हो , उतनी संख्या ( सिद्ध २४ ज्या - पिण्डमें ) गत ज्यापिण्डकी संख्या समझे । शेष कलाको ‘ गत ज्या ’ और ‘ गम्य ज्या ’ के अन्तरसे गुणा करके २२५ से भाग देकर लब्ध कलादिको ‘ गत ज्या \- पिण्डमें जोडनेसे ‘ अभीष्ट ज्या ’ होती है। ‘ उत्क्रमज्या ’ भी इसी विधिसे बनायी जाती है ॥९७ . १ / २॥
( जीवासे चाप बनानेकी विधि ) --- इष जीवाकी कलामें सिद्ध जीवापिण्डोंमेंसे जितनी संख्यायावाली जीवा घटे , उसको घटाना चाहिये । शेष कलाको २२५ से गुणा करके गुणनफलमें गत , गम्य जीवाके अन्तरसे भाग देकर जो लब्धि कलादि हो , उसको घटायी हुई सिद्ध - वी - संख्यासे गुणित २२५ में जोडनेसे इज्याला चाप होता है४ ॥९८ . १ / २॥ 
रवेर्मन्दपरिध्यंशा मनव : शीतगो रदा : ॥९९॥
युग्मान्ते विषमान्ते तु नखलिप्तोनितास्तयो : ।
युग्मान्तेऽर्थाद्रय : खाग्निसुरा : सूर्या नवार्णवा : ॥१००॥
ओजे द्वयगा वसुयमा रदा रुद्रा गजाब्धय ।
कुजादीनामत : शैघ्न्या युग्मान्तेऽर्थाग्निदस्त्रका : ॥१०१॥
गुणाग्निचन्द्र खनगा द्विरसाक्षीणि गोऽग्नय : ।
ओजान्ते द्वित्रियमला द्विविश्वे यमपर्वता : ॥१०२॥
खर्तुदस्त्रा वियद्वेदा : शीघ्रकर्मणि कीर्तिता : ।
ओजयुग्मान्तरगुणा भुजज्या त्रिज्ययोद्धृता ॥१०३॥
युग्मवृत्ते धरर्णं स्यादोजादूनाधिके स्फुटम्‌ ।
( रवि और चन्द्रमाके मन्दपरिध्यंश ) --- समपदके अन्तमें सूर्यक १४ अंश और चन्द्रमाके ३२ अंश मन्दपरिधि मान होते हैं और विषमपदके अन्तमें २० कला कम अर्थात्‌ सूर्यके १३।४० और चन्द्रमाके ३१।४० मन्दपरिध्यंश हैं ॥९९ . १ / २॥
( मङ्गलादि ग्रहोंकी मन्द और शीघ्र परिधि ) ---  समपदान्तमें मङ्गलके ७५ , बुधके ३० गुरुके ३३ , शुक्रके १२ और शनिके ४९ तथा विषमपदान्तमें मङ्गलके ७२ , बुधके २८ . गुरुके ३२ , शुक्रके ११ और शनिके ४८ मन्द परिध्यंश हैं। इसी प्रकार समपदके अन्तमें मङ्गलके २३५ , बुधके १३३ , गुरुके ७० , शुक्रके २६० और शनिके ४० शीघ्र परिध्यंश कहे गये हैं ॥१०२ . १ / २॥
( अभीष्ट स्थानमें परिधिसाधन ) --- अभीष्ट स्थानमें मन्द या शीघ्र परिधि बनानी हो तो उस ग्रहकी भुजज्याको विषम - समपदान्त - परिधिके अन्तरसे गुणा करके गुणनफलमें त्रिज्या ( ३४३८ )- से भाग देकर जो अंशादि लब्धि हो . उसको समपदान्त - परिधिमें जोडने या घानेसे ( विषमपदान्तसे समपदान्त कम हो तो जोडने अन्यथा घटानेसे ) इष्टस्थानमें स्पष्ट मन्द या शीघ्र परिध्यंश होते हैं१ ॥१०३ . १ / २॥
तद्नुणे भुजकोटिज्ये भगणांशविभाजिते ॥१०४॥
तद्भुजज्याफलधनुर्मान्दं लिप्तादिकं फलम्‌ ।
शैघ्यं कोटिफलं केन्द्रे मकरादौ धनं स्मृतम्‌ ॥१०५॥
संशोघ्रयं तुत्रिजीवायां कर्क्यादौ कोटिजं फलम्‌ ।
तद्वाहुफलवर्गैक्यान्मूलं कर्णश्वलाभिध : ॥१०६॥
त्रिज्याभ्यस्तं भुजफलं चलकर्णविभाजितम्‌ ।
लब्धस्य चापं लिप्तादिफलं शैघ्रयमिदं स्मृतम्‌ ॥१०७॥
एतदाद्ये कुजादीनां चतुर्थे चैव कर्मणि ।
मान्दं कर्र्मैकमर्केन्द्वोर्भौमादीनामथोच्यते ॥१०८॥
शैघ्य्रं मान्दं पुनर्मान्दं शैघ्य्रं चत्वार्यनुक्रमात्‌ ।
( भुजफल - कोटिफल - साधन ) --- इस प्रकार साधित स्पष्ट परिधिसे ग्रहकी ‘ भुजज्या ’ और ‘ कोटिज्या ’ को पृथक - पृथक्‌ गुणा करके भगणांश ( ३६० )- से भाग देकर लब्ध ( भुजज्यासे ) भुजफल और ( कोटिज्यासे ) कोटिफल होते हैं । एवं मन्द परिधिद्वारा मन्दफल और शीघ्र परिधिद्वारा शीघ्र - फल समझने चाहिये । यहाँ मन्द परिधिवश भुजज्याद्वारा जो भुजफल आवे , उसका चाप बनानेसे मन्द कलादि फल होता है ॥१०४ . १ / २॥
( शीघ्र कर्णसाधन---)  पूर्वविधिसे शीघ्र परिधिद्वारा जो कोटिफल आवे , उसको मकरादि केन्द्र हो तो त्रिज्या ( ३४३८ )- में जोडे । कर्कादि केन्द्र हो तो घटावे । जोड या घटाकर जो फल हो , उसके वर्गमें शीघ्र भुजफलके वर्गको जोड दे । फिर उसका मूल लेनेसे शीघ्र कर्ण होता है ॥१०५ - १०६॥
( शीघ्र फलसाधन---)  पूर्वविधिसे साधित शीघ्र भुजफलको त्रिज्यासे गुणा करके शीघ्र कर्णके द्वारा भाग देनेपरजो कलादि लब्धि हो , उसके चाप बनानेसे शीघ्र ‘ भुजफल ’ होता है । यह शीघ्रफल मङगलादि ५ ग्रहोंमें प्रथम और चतुर्थ कर्ममें संस्कृत ( धन या ऋण ) किया जाता है ॥१०७ . १ / २॥
रवि और चन्द्रमामें केवल एक ही मन्दफलका संस्कार ( धन या ऋण ) किया जाता है । मुने ! अब मङ्गलादि५ ग्रहोंके संस्कारका वर्णन करता हूँ । उनमें प्रथम शीघ्रफलका , द्वितीय मन्दफलका , तृतीय भी मन्दफलका और चतुर्थ शीघ्रफलका संस्कार किया जाता है ॥१०८ . १ / २॥
अजादिकेन्द्रे सर्वेषां शैघ्य्रे मान्दे च कर्मणि ॥१०९॥
धनं ग्रहाणां लिप्तादि तुलादावृणमेव तत्‌ ।
अर्कबाहुफलाभ्यस्ता ग्रहभुक्तिर्विभाजिता ॥११०॥
भचक्रकलिकाभिस्तु लिप्ता : कार्या ग्रहेऽर्कवत्‌ ।
( संस्कारविधि---)  शीघ्र या मन्द केन्द्र मेषादि ( ६ राशिके भीतर ) हो तो शीघ्रफल और मन्दफल जोडे जाते हैं । यदि तुलादि केन्द्र ( ६ राशिसे ऊपर ) हो तो घटाये जाते हैं ॥१०९ . १ / २॥
( रविभुजफल - संस्कार---)  प्रत्येक ग्रहकी गतिकलाको पृथक्‌ - पॄथक्‌ सूर्यके मन्द भुजफल - कलासे गुणा करके उसमें २१६०० के द्वारा भग देनेसे जो कलादि लब्धि हो , उसको पूर्वसाधित उदयकालिक ग्रहोंमें रविमन्दफलवत्‌ संस्कार ( मन्दफल धन हो तो धन , ऋण हो तो ऋण ) करना चाहिये । इससे स्पष्ट सूर्योदयकालिक ग्रह होते हैं ॥११० . १ / २॥
स्वमन्दभुक्तसंशुद्भेर्मध्यभुक्तेर्निशापते : ॥१११॥
ग्रहभुक्ते : फलं कार्यं ग्रहवन्मन्दकर्मणि ।
दोर्ज्योन्तरगुणा भुक्तिस्तत्त्वनेत्रोद्भृता पुन : ॥११२॥
स्वमन्दपरिधिक्षुण्णा भगणांशोद्भृता : कला : ।
कर्कादौ तु धनं तत्र मकरादावृणं स्मृतम्‌ ॥११३॥
मन्दस्फुटीकृतां भुक्तिं प्रोज्झय शीघ्रोच्च भुक्तित : ।
तच्छेषं विवरेणाथ हन्यात्त्रिज्यान्त्यकर्णयो : ॥११४॥
चलकर्णहृतं भुक्तौ कर्णे त्रिज्याधिके धनम्‌ ।
ऋणमूनेऽधिके प्रोज्झय शेषं वक्रगतिर्भवेत्‌ ॥११५॥
( स्पष्टग्रहगतिसाधनार्थगतिफल---)  चन्द्रमध्यगतिमें चद्रमन्दोच्चगतिको घटाकरौससे ( अर्थात्‌ चन्द्रकेन्द्र - गतिसे ) तथा अन्य ग्रहोंकी ( स्वल्पान्तरसे ) अपनी - अपनी गतिसे ही मन्दस्पष्टगतिसाधनमें फल साधन करे । यथा - उक्त गति ( चन्द्रकी केन्द्रगति और अन्य ग्रहोंकी गति ) को दोर्ज्यान्तर ( गम्यज्या और गतज्योके अन्तर )- से गुना करके उसको २२५ के द्वारा भाग देकर लब्धिको अपनी - अपनी मन्दपरिधिसे गुणा करके भगणांश ( ३६० )- के द्वारा भाग देनेसे जो कलादि फल लब्धि , हो , उसको कर्कादि ( ३ से ऊपर ९ राशिके भीतर ) केन्द्र हो तो मधगतिमें धन करने ( जोडने ) तथा मकरादि ( ९ राशिसे ऊपर ३ राशितक ) केन्द्र हो तो घटानेसे मन्दस्पष्ट गति होती है । पुन : इस मन्दस्पष्ट गतिको अपनी शीघ्रोच्च गतिमें घटाकर शेषको त्रिज्या तथा अन्तिम शीघ्रकर्णके अन्तरसे गुणा करके पूर्वकसाधित शीघ्रकर्णके द्वारा भाग देनेसे जो लब्धि ( कलादि ) हो , उसको यदि कर्ण त्रिज्यासे अधिक हो तो मन्दस्पष्ट गतिमें धन करने ( जोडने ) और अल्प हो तो घटानेसे स्पष्ट गति होती है । यदि साधित ऋणगतिफल मन्दस्पष्ट गतिसे अधिक हो तो उसी ( ऋणगतिफल )- में मन्दस्पष्ट गतिको घटाकर जो बचे , वह वक्र - गति होती है । इस स्थितिमें वह ग्रह वक्र - गति रहात है ॥१११ - ११५॥
कृतर्तुचन्द्रैर्वेदेन्द्रै : शून्यत्र्येकैर्गुणाष्टिभि : ।
शतरुद्रैश्चतुर्थेषु केन्द्रांशैर्भूसुतादय : ॥११६॥
वक्रिणश्चकरशुद्धैस्तैरंशैरुज्झन्ति वक्रताम्‌ ।
क्रान्तिज्या विषवद्भाघ्नी क्षितिज्या द्वादशोद्धृता ॥११७॥
त्रिज्यागुणा दिनव्यासभक्ता चापं सरासव ।
तत्कार्मुकमुदक्क्रान्तौ धनहीने पृथक्‌ स्थिते ॥११८॥
स्वाहोरात्रचतुर्भागे दिनरात्रिदले स्मृते ।
याम्यक्रान्तौ विपर्यस्ते द्विगुणे तु दिनक्षपे ॥११९॥
( ग्रहोंकी वक्र केन्द्रांश - संख्या---)  मङ्गल अपने चतुर्थ शीघ्रकेन्द्रांश १६४ में , बुध १४४ केन्द्रांशमें , गुरु १३० केन्द्रांशमें , शुक्र १६२ केन्द्रांशमें और शनि ११५ शीघ्रकेन्द्रांशमें वक्रगति होता है । अपने - अपने वक्रकेन्द्रांशको ३६० में घटानेसे शेषके तुल्य केन्द्रांश होनेपर फिर वह मार्ग - गति होता है२ ॥११६ . १ / २॥
( कालज्ञान---)  रवि - क्रान्तिज्याको पलभा३ से गुणा करके गुणनफलमें १२ से भाग देनेपर लब्धि ‘ कुज्या ’ होती है। उस ( कुज्या )- को त्रिज्यासे गुना करके द्युज्या ( क्रान्तिकी कोटिज्या ) से भाग देकर लब्धि ( चरज्या )- के चाप बनानेसे चरासु४ होते हैं । उस चर - चापको यदि उत्तर क्रान्ति हो तो १५ घटीमें जोडनेसे दिनार्ध और १५ घटीमें घटानेसे रात्र्यर्ध होता है । दक्षिणक्रान्ति हो तो विपरीत ( यानी १५ घटीमें घटानेसे दिनार्ध और जोडनेसे रात्र्यर्ध ) होता है । दिनार्धको दूना करनेसे दिनमान और रात्र्यर्धको दूना करनेसे रात्रिमान होता है ॥११७ - ११९॥
भभोगोऽष्टशतीलिप्ता : खाश्विशैलास्तथा तिथे : ।
ग्रहलिप्ता भभोगाप्ता भानि भुक्त्या दिनादिकम्‌ ॥१२०॥
रवीन्दुयोगलिप्ताभ्यो योगा भभोगभाजिता : ।
गतगम्याश्च षष्टिघ्न्यो भुक्तियोगाप्तनाडिका : ॥१२१॥
अर्कोनचन्द्रलिप्ताभ्यस्तिथयो भोगभाजिता : ।
गता गम्याश्च षष्टिघ्न्यो नाडयो भुक्त्यन्तरोद्धृता : ॥१२२॥
( पञ्चाङ्ग - साधन---)  ८०० कला एक - एक नक्षत्रका और ७२० कला एक - एक तिथिका भोगमान होता है । ( अत : ग्रह किस नक्षत्रमें हैं , यह जानना हो तो ) राश्यादि ग्रहको कलात्मक बनाकर उसमें भभोग ( ८०० ) के द्वारा भाग देनेसे जो लब्धि हो , उसके अनुसार अश्विनी आदि गत नक्षत्र समझने चाहिये । शेष कलादिसे ग्रहकी गतिके द्वारा उसकी गत और गम्यघटीको समझना चाहिये ॥१२०॥ 
उदयकलिक स्पष्टरवि और चन्द्रका योग करके उसकी कलामें भभोग ( ८०० )- के द्वारा भाग देकर लब्धि - गत विष्कुम्भ आदि योग होते हैं । शेष वर्तमान योगकी गतकला है । उसको ८०० में घटा देनेसे गम्यकला होती है । उस गत और गम्यकलाको ६० से गुणा करके उससे रवि और चन्द्रकी गति - कलाके योगसे भाग देनेपर गत और गम्यघटी होती है ॥२१२॥
स्पष्टचन्द्रमें स्पष्टसूर्यको घटाकर शेष राश्यादिकी कला बनाकर उसमें तिथिभोग ( ७२० )- से भाग देनेपर लब्धि गतिथि - संख्या होती है । शेष वर्तमान तिथिकी गतकला है । उसको ( ७२० ) में घटानेसे गम्यकला होती है । गत और गम्यकलाको पृथक्‌ ६० से गुणाकर चन्द्र और रविके स्पष्ट गत्यन्तरसे भाग देकर लब्धि - क्रमसे भुक्त ( गत ) और गम्य घटी होती हैं । ( पञ्चाङ्गमें वर्तमान तिथिके आगे गम्यघटी लिखी जाती है ) ॥१२२॥
तिथय : शुक्लप्रतिपदो याता द्विघ्ना नगोद्धृता : ।
शेषं बवो बालवश्च कौलवस्तैतिलो गर : ॥१२३॥
वणिजश्च भवेद्विष्टि : कृष्णभूतापरार्द्धत : ।
शकुनिर्नागश्च चतुष्पद ; किंस्तुघ्नमेव च ॥१२४॥
( तिथिमें करण जाननेकी रीति---)  शुक्लपक्षकी प्रतिपदादि गत - तिथि -- संख्याको दूना करके ७ के द्वारा भाग देनेसे १ आदि शेषमें क्रमसे १ बव , २ बालव , ३ कौलव , ४ तैतिल , ५ गर , ६ वणिज , ७ विष्टि ( भद्रा )- ये करण वर्तमान तिथिके पूर्वार्धमें होते हैं । ये ७ करण शुक्ल प्रतिपदाके उत्तरार्धसे कृष्ण १४ के पूर्वार्धतक ( २८ )‘ तिथियोंमें ८ आवृत्ति कर आते हैं। इसलिये ये ७ चर करण कहलाते हैं । कृष्णपक्ष १४ के उत्तरार्धसे शुक्ल प्रतिपदाके पूर्वार्धतक , क्रमसे १ शकुनि , २ नाग , ३ चतुष्पद और ४ किंस्तुघ्न - ये चार स्थिर करण होते हैं ॥१२३ - १२४॥
शिलातलेऽम्बुसंशुद्धे वज्रलेपेऽपि वा समे ।
तत्र शङ्कवङ्गुलैरिष्टै : समं मण्डलमालिखेत्‌ ॥१२५॥
तन्मध्ये स्थापयेच्छाङंकु कल्पनाद्वादशाङ्गुलम्‌ ।
तच्छायाग्रं स्पृशेद्यत्र वृत्ते पूर्वापरार्द्धयो : ॥१२६॥
तत्र विन्दुं विधायोभौ वृत्ते पूर्वापराभिधौ ।
तन्मध्ये तिमिना रेखा कर्तव्या दक्षिणोत्तरा ॥१२७॥
याम्योत्तरदिशोर्मध्ये तिमिना पूर्वपश्चिमा ।
दिङ्मध्यमत्स्यै : संसाध्या विदिशस्तद्वदेव हि ॥१२८॥
चतुरस्त्रं बहि : कुर्यात सूत्रैर्यध्याद्विनि : सृतै : ।
भुजसूत्राङ्गुलैस्तत्र दत्तैरिष्टप्रभा स्मृता ॥१२९॥
प्राक्‌पश्चिमाश्रिता रेखा प्रोच्यते सममण्डले ।
उन्मण्डले च विषुवन्मण्डले परिकीर्त्यते ॥१३०॥
रेखा प्राच्यपरा साध्या विषुवद्भाग्रगा तथा ।
इष्टच्छायाविषुवतोर्मध्यमग्राभिधीयते ॥१३१॥
( दिक्‌साधन---)  जलसे संशोधित ( परीक्षित ) शिलातल या वज्रलेप ( सीमेंट ) से सम बनाये हुए भूतलमें जिस अङ्गुलमानसे शङ्कु बनाया गया हो , उसी अङ्गुलमानसे अभीष्ट त्रिज्याङ्गुलसे वृत्त बनाकर उसके मध्य ( केन्द्र )- में समान द्वादश विभाग ( कल्पित अङ्गुल )- से बने हुए शङ्कुकी स्थापना करे । उस शङ्कुकी छायाका अग्र भाग दिनके पूर्वार्धमें जहाँ वृत्त - परिधिमें स्पर्श करे , वहाँ पश्चिम बिन्दु जाने और दिनके उत्तरार्धमें फिर उसी शङ्कुकी छायाका अग्रभाग जहाँ वृत्तपरिधिको स्पर्श करे , वहाँ पूर्व बिन्दु समझे । इस प्रकार पूर्व और पश्मिम बिन्दुका ज्ञान करे । अर्थात्‌ उन दोनों बिन्दुओंमें एक सरल रेखा खींचनेसे पूर्वापर - रेखा होगी । उस पूर्वापर रेखाके दोनों अग्रोंको केन्द्र मानकर दो वृत्तार्ध बनानेसे मत्स्याकार होगा। उसके मुख एवं पुच्छमें रेखा करनेसे दक्षिणोत्तर - रेखा होगी । यह दक्षिणोत्तररेखा केन्द्रबिन्दुमें होकर जाती है । यह रेखा जहाँ वृत्तमें स्पर्श करे , वहाँ दक्षिण तथा उत्तर दिशाके बिन्दु समझे । फिर इस दक्षिणोत्तर - रेखापर पूर्व - युक्तिसे मत्स्योत्पादनद्वारा पूर्वापर - रेखा बनावे तो यह रेखा केन्द्रबिन्दुमें होकर ठीक पूर्व और पश्चिम - बिन्दुक वृत्तमें स्पर्श करेगी । इस प्रकार चार दिशाओंको जानकर पुन : दो - दोदिशाओंके मध्यबिन्दुसे मत्स्योत्पादनद्वारा विदिशाओं कोणों - का ज्ञान करना चाहिये ॥ १२५ - १२८॥
( इस प्रकार वृत्तमें दिशाओंका ज्ञान होनेपर ) वृत्तके बाहर चारों दिशाओंके बिन्दुओंसे स्पर्शरेखाद्वारा चतुरस्त्र ( चतुर्भुज ) बनावे । वृत्तके मध्यकेन्द्रसे भुजाङ्गुलतुल्य ( भुजकी दिशामें उत्तर या दक्षिण ) बिन्दुपर छायारेखा होती है । उस छायारेखाको पूर्वापर - रेखाके समानान्तर बनावे । पूर्वापर - रेखा , पूर्वापर - वृत्त , उन्मण्डल और नाडी वृत्तके धरातलमें होती है । इसलिये क्षितिज धरातलगत वृत्तके केन्द्रसे पूर्वापर रेखा खींचकर फिर पलभाग्र बिन्दुगत पूर्वापरके समानान्तर रेखा बनावे। इस प्रकार इष्ट - छायाग्रगत तथा पलभा रेखाके बीच ( अन्तर )- को ‘ अग्रा ’ कहते हैं ॥१२९ - १३१॥
शङ्कुच्छायाकृतियुतेर्मूलं कर्णोऽस्य वर्गत : ।
प्रोज्झय शङ्कुकृतिं मूलं छाया शङ्कुर्विपर्ययात्‌ ॥१३२॥
शङ्कु ( १२ )- के वर्गमें छायाके वर्गको जोडकर मूल लेनेसे छायाकर्ण होता है और छायाकर्णके वर्गमें शङ्कुके वर्गको घटानेसे मूल छाया होती है तथा छायाके - घटानेसे मूल शङ्कु होता है ॥१२३२॥
त्रिंशत्कृत्वो युगे भानां चक्रं प्राक्‌ परिलम्बते ।
तद्नुणाद्भूदिनैर्भक्ताद्‌ द्युगणाद्यदवाप्यते ॥१३३॥
तद्दोस्त्रिघ्नाद्दशाप्तांशा विज्ञेया अयनाभिधा : ।
तत्संस्कृताद्रहात्क्रान्तिच्छायाचरदलादिकम्‌ ॥१३४॥
( अयनांश - साधन---)  एक युगमें राशिचक्र सृष्टयादि स्थानसे पूर्व और पश्चिमको ६०० बार चलित होता है । जो उसके भगण कहलाते हैं । इसलिये अहर्गणको ६०० से गुणा करके युगके कुदिनसे भाग देकर राश्यादि - फलसे भुज बनावे । उस भुजको ३ से गुणा करके १० के द्वारा भाग दे तो लब्धि अयनांश होती है । इस अयनांशको अहर्गणद्वारा साधित ग्रहमें जोडकर क्रान्ति , छाया और चरखण्ड आदि बनाने चाहिये ॥१३३ - १३४॥
शङ्कुच्छायाहते त्रिज्ये विषुवत्कर्णभाजिते ।
लम्बाक्षज्ये तयोश्चापे लम्बाक्षौ दक्षिणौ सदा ॥१३५॥
स्वाक्षार्कापक्रमयुतिर्दिक्याम्येऽन्तरमन्यथा ।
शेषा नतांशा : सूर्यस्य तद्वाहुज्या च कोटिजा ॥१३६॥
शङ्कुमानाङ्गलाभ्यस्ते भुजन्निज्ये यथाक्रमम्‌ ।
कोटिज्यया विभज्याप्ते छायाकर्णावहर्दले ॥१३७॥
( लम्बांश और अक्षांस - साधन---)  शङ्कु ( १२ ) और पलभाको पृथक्‌ त्रिज्यासे गुणा करके उसमें पलकर्णसे भाग देनेपर लब्धि क्रमश : ‘ लम्बज्या ’ और ‘ अक्षज्या ’ होती है । दोनोंके चाप बनानेसे ‘ लम्बांश ’ और ‘ अक्षांश ’ होते हैं । इनकी दिशा सर्वदा दक्षिण समझी जाती है२ ॥१३५॥
( सूर्य - ज्ञानसे मध्याह्न - छाया - साधन---)  अपने अक्षांश और सूर्यके क्रान्त्यंश दोनों एक दिशाकी ओर हों तो योग करनेसे और यदि भिन्न दिशाके हों तो दोनोंको अन्तर करनेसे शेष सूर्यका ‘ नतांश ’ होता है । उस ‘ नतांश ’ की ‘ भुजज्या ’ और ‘ कोटिज्या ’ बनावे । भुजज्या और त्रिज्याको पृथक्‌ - पृथक्‌शङ्कुमान ( १२ ) से गुणा करके उसमें कोटिज्यासे भाग दनेपर लब्धि क्रमश : मध्याह्नकालमें छाया और छायाकर्णके मानका सूचक होती हैं३ ॥१३६ - १३७॥
स्वाक्षार्कनतभागानां दिक्साम्येऽन्तरमन्यथा ।
दिग्भेदे पक्रम : शेषस्तस्य ज्या त्रिज्यया हता ॥१३८॥
परमापक्रमज्याप्ता चापं मेषादिगो रवि : ।
कर्क्यादौप्रोज्झयचक्रार्द्धात्तु लादौ भार्धसंयुतात्‌ ॥१३९॥
मृगादौ प्रोज्झय चक्रात्तु मध्याह्नेऽर्क : स्फुटो भवेत्‌ ।
तन्मान्दमसकृद्वामं फलं मध्यो दिवाकर : ॥१४०॥
( मध्याह्न - छायासे - सूर्यसाधन---)  अपने ‘ अक्षांश ’ और मध्याह्नकालिक सूर्यक ‘ नतांश ’ दोनों एक दिशाके हों तो अन्ता करनेसे और यदि भिन्न दिशाके हों तो योग करनेसे जो फल हो , वह सूर्यकी ‘ क्रान्ति ’ होती है । ‘ क्रान्तिज्या ’ की ‘ त्रिज्या ’ से गुणा करके उसमें ‘ परमक्रान्तिज्या ’ ( १३९७ )- से भाग देनेपर लब्धि सूर्यकी ‘ भुजज्या ’ होती है। उसके चाप बनाकर मेषादि ३ राशिमें सूर्य हों तो वही स्पष्त सूर्य होता है । ककर्दादि ३ रशिमें हों तो उस चापको ६ राशिमें घटानेसे , 
तुलादि ३ राशिमें हों तो ६ राशिमें जोडनेसे और मकरादि ३ राशिमें हों तो १२ राशिमें घटानेसे जो योग या अन्तर हो , वह मध्याह्नमें स्पष्ट सूर्य होता है । उस स्पष्ट सूर्यसे विपरीत क्रियाद्वारा मन्दफलसाधन कर बार - बार संस्कार करनेसे मध्यम सूर्यका ज्ञान होता है ॥१३८ - १४०॥
ग्रहोदयाप्राणहता खखाष्टैकोद्धृआ गति : ।
चक्रासवो लब्धयुता : स्वाहोरात्रासव : स्मृता : ॥१४१॥
( ग्रहोंके अहोरात्र - मान --- ) जिस राशिमें तत्काल ग्रहो हो , उस राशिके उदयमानसे उस ग्रहकी गतिको गुणा करके उसमें १८०० से भाग देकर लब्ध असुको ‘ अहोरात्रासु ’ ( २१६०० )- में जोडनेपर उस ग्रहका अहोरात्रमान होता है। असुसे पल और घडी बना लेनी चाहिये । ॥१४१॥
त्रिभद्युकर्णार्द्धगुणा : स्वाहोरात्रार्द्धभाजिता : ।
क्रमादेकद्वित्रिभज्यास्तच्चापानि पृथक पृथक्‌ ॥१४२॥
स्वाधोऽध : प्रविशोध्याथ मेषाल्लङ्कोदयासव : ।
खागाष्टयोऽर्थगोऽगैका : शरत्र्यङ्कहिमांशव : ॥१४३॥
स्वदेशचरखण्डोना भवन्तीष्टोदयासव : ।
वस्ता व्यस्तैर्युता : स्वै : स्वै : कर्कटाद्यास्ततस्वय : ॥१४४॥
उत्क्रमेण षडेवैते भवन्तीष्टास्तुलादय : ।
राशियोंके उदयमान --- १ १राशि , २ राशि , ३ राशिकी ज्याको पृथक्‌ - पृथक ‘ परमाल्पद्युज्या ’ ( परसक्रान्तिकी कोटिज्या )- से गुणा करके उसमें अपनी - अपनी द्युज्या ( क्रान्तिकोटिज्या ) से भाग देकर लब्धियोंके चाप बनावे । उनमें प्रथम चाप मेषका उदय ( लङ्कोदय )- मान होता है । प्रथाम चापको द्वितीय चापमें घटानेपर शेष वृषका उदयमान होता है एवं द्वितीय चापको तृतीय चापमें घटाकर जो शेष रहे , वह मिथुनका लङ्कोदयमान होता है । यथा - १६७० असु मेषका , १७९५ वृषका तथा १९३५ मिथुनका सिद्ध लङ्कोदयमान है । इन तीनोंमें क्रमसे अपने देशीय तीनों चरखण्डोंको घटावे तो क्रमश : तीनों अपने देशके मेष आदि तीन रासियोंके उदयमान होते हैं । पुन : उन्हीं तीनों लङ्कोदयमानोंको उत्क्रमसे रखकर - इन तीनोंमें अपने देशके तीनों चरखण्डोंको उत्क्रमसे जोडनेपर कर्क आदि ३ रासियोंके स्वदेशोदयमान होते हैं एवं मेषादि कन्यापर्यन्त ६ राशियोंके उदयमान सिद्ध होते हैं । पुन : ये ही उत्क्रमसे तुलादि ६ राशियोंके मान होते हैं ॥१४४ . १ / २॥
गतभोग्यासव : कार्या : सायनात्‌ स्वेष्टभास्करात्‌ ॥१४५॥
स्वोदयासुहता भुक्तभोग्या भक्ता : खवह्निभि : ।
अभीष्टघटिकासुभ्यो भोग्यासून्प्रविशोधयेत्‌ ॥१४६॥
तद्वदेवैष्यलग्नासूनेवं यातांस्तथोत्क्रमात्‌ ।
शेषं चेत्‌ त्रिंशताभ्यस्तमशुद्धेन विभाजितम्‌ ॥१४७॥
भागयुक्तं च हीनं च व्ययनांशं तनु : कुजे ।
लग्न - साधन --- इष्टकालिक सायनांश सूर्यके भुक्तांश और भोग्यांशद्वारा ‘ भुक्तासु ’ और ‘ भोग्यासु ’ का साधन करना चाहिये । ( यथा - भुक्तांशको सायन सूर्यके स्वदेशोदयमानसे गुणा करके ३० का भाग देनेपर लब्धि ‘ भुक्तासु ’ और भोग्याशको स्वदेशोदयमानसे गुणा करके उसमें ३० के द्वारा भाग देनेपर लब्धि ‘ भोग्यासु ’ होते हैं । इष्ट घटीके ‘ असु ’ बनाकर उसमें ‘ भोग्यासु ’ को घटावे , घटाकर जो शेष बचे , उसमें अग्रिम राशियोंमेंसे जितनेके स्वदेशोदयमान घटें , उतने घटावे । ( अथवा ) इसी प्रकार ‘ इष्टासु ’ में ‘ भुक्तासु ’ घटाकर शेषमें , गत राशियोंके उत्क्रमसे उनके जितने स्वदेशोदयमान घटें , घटावे । जिस राशितकका मान घट जाय , वहाँतक ‘ शुद्ध ’ और जिसका मान नहीं घटे , वह ‘ अशुद्ध ’ संज्ञक होती है । बचे हुए ‘ इष्टासु ’ को ३० से गुणा करके ‘ अशुद्ध ’ राशिके उदयमानसे भाग देकर लब्ध अंशादिको ( भोग्य - क्र्म - विधि हो तो ) शुद्ध राशिसंख्यामें जोडने और ( भुक्त - उत्क्रम - विधि हो तो ) अशुद्ध राशिकी संख्यामें घटानेसे ‘ सायन लग्न ’ होता है । उसमें अयनांश घटानेसे फलकथनोपयुक्त उदयलग्न होता है ॥१४७ . १ / २॥
प्राक्‌ पश्चान्नतनाडीभिस्तद्वल्लङ्कोदयासुभि : ॥१४८॥
भानौ क्षयधने कृत्वा मध्यलग्नं तदा भवेत्‌ ।
भोग्यासूनूनकस्याथा भुक्तासूनधिकस्य च ॥१४९॥
सपिण्डयान्तरलग्नासूनेवं स्यात्कालसाधनम्‌ ।
( मध्य - दशम लग्न - साधन --- ) इसी प्रकार पूर्व ‘ नतकालासु ’ से लङ्कोदयद्वारा अंशादि साधन करके उसको सूर्यमें घटानेसे तथा पश्चिम ‘ नतकालासु ’ और लङ्कोदयद्वारा ( त्रैराशिकसे ) अंशादि साधन करके सूर्यमें जोडनेसे मध्य ( दशम = आकाशमध्य ) लग्न होता है ॥१४८ . १ / २॥
( लग्न और स्पष्ट - सूर्यको जानकर इष्टकाल - साधन --- ) लग्न और सूर्य इन दोनोंमें जो ऊन पीछे हो , उसके ‘ भोग्यांश ’ द्वारा ‘ भोग्यासु ’ और जो अधिके ( आगे ) हो उसके भुक्तांशद्वारा ‘ भुक्तासु ’ साधनकर दोनोंको जोडे तथा उसमें उन दोनों ( लग्न और सूर्य )- के बीचमें जो राशियाँ हों , उनके उदयासुओंको जोडे तो ‘ इष्टकालासु ’ होते हैं ॥१४९ . १ / २॥
विराह्नर्कभुजांशाश्चेदिन्द्राल्पा : स्याद्नहो विधो : ॥१५०॥
तेंऽशा : सिवघ्ना : शैलाप्ता व्यग्वर्काश : शरोऽङ्गुलै : ।
अर्कं विधुर्विधुं भूभा छादयत्यथा छन्नकम्‌ ॥१५१॥
छाद्यच्छादकमानार्धं शरोनं ग्राह्यवर्वितम्‌ ।
तत्‌ खच्छन्नं च मानैक्यार्धं शराढयं दशाहतम्‌ ॥१५२॥
छन्नघ्नमस्मान्मूलं तु स्वाङ्गोनं ग्लौवपुर्हृतम्‌ ।
स्थित्यर्द्धं घटिकादि स्याद्‌ व्यगुवाह्वंशसंमितै : ॥१५३॥
इष्टै : पलैस्तदूनाढयं व्यगावूनेऽर्कषडगृहात्‌ ।
तदन्यथाधिके तस्मिन्नेवं स्पष्टे मुखान्त्यगे ॥१५४॥
( ग्रहण - साधन --- ) पर्वान्त कालमें स्पष्ट सूर्य , चन्द्र और राहुका साधन करे । सूर्यमें राहुको घटाकर जो शेष बचे , उसके भुजांश यदि १४ से अल्प हो तो चन्द्रग्रहण की सम्भावना समझे ॥१५०॥ उन भुजाशोंको ११ से गुणा कर ७ से भाग देनेपर लब्धि - अङ्क अङ्गुलादि ‘ शर ’ होता है ॥१५० . १ / २॥
सूर्यको चन्द्रमा और चन्द्रमाको भूभा ( पृथिवीकी छाया ) छादित करती है । इसलिये सूर्यग्रहणमें सूर्य छाद्य उर चन्द्रमा छादक तथा चन्द्रग्रहणमें चन्द्रमा छाद्य , भूभा छादक ( ग्रहणकर्त्री ) है - ऐसा समझना चाहिये । अब छन्न ( ग्रास ) मान कहते हैं - छाद्य और छेदकके विम्बमानका योग करके उसके आधेमें ‘ शर ’ घटानेसे ‘ छन्न ’ ( ग्रास ) मान होता है । यदि ग्रासमान ग्राह्य ( छाद्य )- से अधिक हो तो उसमें छाद्यको घटाकर जो शेष बचे , उतना खच्छन्न ( खग्रास ) समझना चाहिये ।
मानैक्यार्ध ( छाद्य - छादकके विम्ब - योगार्ध ) में शर जोडकर १० से गुणा करे । फिर ग्रासमानसे गुणा करके गुणनफलका जो मूल हो उसमें अपना षष्ठांश घटाकर शेषमें चन्द्र - विम्बसे भाग देनेपर लब्दि - प्राप्त घटी आदिको स्थित्यर्ध समझे । इस स्थित्यर्धको दो स्थानों में रखे । व्यगु ( व्यग्वर्क - राहु घटाया हुआ सूर्य ) यदि ६ या १२ राशिसे ऊन हो तो द्विगुणित व्यगु भुजांशतुल्य पलको प्रथम स्थानगत स्थित्यर्धमें घटावे और द्वितीय स्थानवालेमें जोडे । यदि व्यगु ६ या १२ से अधिक हो तो विपरीत क्रमसे ( प्रथम स्थानमें जोडने और द्वितीय स्थानमें घटानेसे ) स्पर्श और मोक्षकालिक स्पष्ट स्थित्यर्ध होते हैं ॥१५१ - १५४॥
ग्रासे नखाहते छाद्यमानासे स्युर्विशोपक : ।
पूर्णान्तं मध्यमत्र स्याद्दर्शान्तेऽङ्गं त्रिभोनकम्‌ ॥१५५॥
पृथक्‌ तत्क्रान्त्यभागसंस्कृतौ स्युर्नतांशका : ।
तद्‌ द्विद्वयंशकृतिर्द्विघ्नी द्वयूनार्धार्कयुता हर : ॥१५६॥
त्रिभोनाङ्गार्कविश्लेषांशाशोनघ्ना : पुरन्दरा : ।
हराप्ता लम्बनं स्वर्णं वित्रिभेऽर्काधिकोनके ॥१५७॥
विश्वघ्नलम्बनकलाढयोनस्तु तिथिवद्‌ व्यगु : ।
शरोऽतो लम्बनें षड्‌घ्नं तल्लवाढयोनवित्रिभात्‌ ॥१५८॥
नतांशास्तद्दशांशोनघ्ना धृत्यस्तद्विवर्जितै : ।
साष्टेन्देलिप्तै : षडिभस्तु भक्त नतिर्नतांशदिक्‌ ॥१५९॥
तयोनाढयो हि भिन्नैकदिक्‌ शर : स्फुटतां व्रजेत्‌ ।
ततश्छन्नस्थितिदले साध्ये स्थित्यर्धषडढति : ॥१६०॥
अंशास्तैर्वित्रिभं द्विष्टं रहितं सहितं क्रमात्‌ ।
विधाय ताभ्यां संसाध्ये लम्बने पूर्ववत्तयो : ॥१६१॥
पूर्वोक्ते संस्कृते ताभ्यां स्थित्यर्द्धे भवत : स्फुटे ।
ताभ्यां हीनयुतो मध्यदर्श : कालौ मुखान्तगौ ॥१६२॥
( ग्रहणका विंशोपक बिस्वा फल --- )  अङ्गुलादि ग्रासमानको २०से गुणा करके गुणनफलमें अङ्गुलात्मक छाद्यमानसे भाग दे , जो लब्धि आवे , वह विंशोपक फल होता है ।
( सूर्यग्रहणमें विशेष लम्बन - घटी - साधन --- ) पर्वान्तकालमें ग्रहणका मध्य होता है । सूर्यग्रहणमें दर्शान्त कालिक लग्न बनाकर उसमें तीन राशि घटानेसे ‘ वित्रिभ ’ या ‘ त्रिभोन ’ लग्न कहलाता है । उसको पृथक रखकर उसकी क्रान्ति और अक्षांशके संस्कार ( एक दिशामें योग , भिन्न दिशामें अन्तर ) करनेसे ‘ नतांश ’ होता है । उसका २२ वाँ भाग करके वर्ग करना चाहिये । यदि २ से कम हो तो उसीमें , यदि २ से अधिक हो जाय तो २ घटाकर शेषके आधेको उसी ( वर्ग )- में जोडकर पुन : १२ में जोडनेसे ‘ हार ’ होता है । ‘ त्रिभोन ’ लग्न और सूर्यके अन्तरांशके दशमांशको १४ में घटाकर शेषको उसी दशमांशसे गुणा करे । उसमें पूर्वसाधित हारसे भाग देनेपर लब्धितुल्य घटयादि लम्बन होता है । यह ( लम्बन ) यदि वित्रिभ सूर्यसे अधिक हो तो धन , अल्प हो तो ऋण होता है । अर्थात्‌ साधित दर्शान्तकालमें इस लम्बनको जोडने - घटानेसे पृष्ठस्थानीय दर्शान्तकाल होता है ॥१५५ - १५७॥
घटयादि लम्बनको १३ से गुणा करनेपर गुणनफल कलादि होता है । उसको व्यग्वर्कमें जोड या घटाकर ‘ शर ’ बनावे तो ( पृष्ठीय दर्शान्तकालिक ) शर ( स्पष्ट ) होता है । तथा घटयादि लम्बनको ६ से गुणा करके गुणनफलको अंशादि मानकर वित्रिभमें जोड या घटाकर नतांश - साधन करे । नतांशके दशमांशको १८ में घटाकर शेषको उसी दशमांशसे गुणा करे : गुणनफलको ६ अंश १८ कलामें घटाकर जो शेष बचे , उससे गुणनफलमें ही भाग देनेसे लब्धि अङ्गुलादि नतांशकी दिशाकी ही नति होती है । इस नति और पूर्व साधित शर दोनोंके संस्कार ( भिन्न दिशा हो तो अन्तर , एक दिशा हो तो योग )- से स्पष्ट शर होता है । सूर्यग्रहणमें उसी शरसे और स्थित्यर्थ बनावे । स्थित्यर्धको ६ से गुणा करके अंशादि गुणनफलको वित्रिभमें घटावे और दूसरे स्थानमें जोडे । इन दोनों परसे पूर्वविधिसे पृथक्‌ लम्बनसाधन करके क्रमश : पूर्वविधिसे साधित स्पर्श और मोक्षकालमें संस्कार करनेसे स्पष्ट पृष्ठस्थानीय स्पर्श और मोक्षकाल होते है ॥१५८ - १६२॥
अर्का घना विश्व ईशा नवपञ्चदशांशका : ।
कालांशास्तैरूनयुक्ते रवौ ह्यस्तोदयौ विधो : ॥१६३॥
दृष्ट्वा ह्यादौ खेटविम्बं दृगौच्यं लम्बमेक्ष्य च।
तल्लम्बपातबिम्बान्तर्दृगौच्याप्तरविघ्रभा ॥१६४॥
( ग्रहोंके उदयास्तकालांश --- ) १२ , १७ , १३ , ११ , ९ , १५ , ये क्रमसे चन्द्र , मङ्गल , बुध , गुरु , शुक्र और शनिके कालांश हैं । अपने - अपने कालांशतुल्य सूर्यसे पीछे ग्रह होते हैं तो अस्त और कालांशतुल्य सूर्यसे आगे होते हैं तो उदय होता है । ( अर्थात्‌ ग्रह अपने - अपने कालांशके भीतर सूर्यसे पीछे या आगे जबतक रहते हैं , तबतक सूय सान्निध्यवश अस्त ( अदृश्य ) रहते हैं ) ॥१६३॥
( ग्रहोंके प्रतिविम्बद्वारा छायासाधन --- ) सम भूमिमें रखे हुए दर्पण आदिमें ग्रहोंके प्रतिविम्बको देखकर दृष्टिस्थानसे भूमिपर्यन्त लम्ब पातकर दृष्टिकी ऊँचाईका मान समझे । लम्बमूल और प्रतिबिम्बके अन्तर - प्रमाणको दृष्टिकी ऊँचाईसे भाग देकर लब्धिको १२ से गुणा करनेपर उस समय उस ग्रहकी छायाका प्रमाण होता है ॥१६४॥
अस्ते सावयवा ज्ञेया गतैष्यास्तिथयो बुधै : ।
शरेन्द्वाप्तोत्तराशा सा संस्कृतार्कापमैर्विधो : ॥१६५॥
षोडशघ्नतिथिर्हीना स्वघ्नतिथ्याक्शभाहृता ।
व्यस्तेषु क्रान्तिभागैश्व द्विघ्नतिथ्या हृता स्फुटम्‌ ॥१६६॥
संस्कारदिक्कं वलनमङ्गुलाद्यं प्रजायते ।
स्वेष्वंशोना : सितं तिथ्यो वलनाशोन्नतं विधो : ॥१६७॥
श्रृङ्गमन्यन्नतं वाच्यं वलनाङ्गुललेखनात्‌ ।
( चन्द्रश्रृङ्गोन्नति - ज्ञान --- ) सूर्यास्त - समयमें सावयव गत और एष्य तिथिका साधन करे । उस सावयव तिथिको १६ से गुणा करके उसमें तिथिके वर्गको घटाकर शेषको स्वदेशीय पलभासे गुणा करे । गुणनफलमें १५ से भाग देकर लब्धि ( फल )- की दिशा उत्तर समझे । उसमें सूर्यकी क्रान्तिका यथोक्त संस्कार ( एक दिशामें योग , भिन्न दिशामें अन्तर ) करे । तथा चन्द्रमाके शर और क्रान्तिका विपरीत संस्कार करके जो फल हो उसमें द्विगुणित तिथिसे भाग देनेपर जितनी लब्धि हो , उतना अङ्गुल संस्कार - दिशाका वलन होता है । चन्द्रमासे जिस दिशामें सूर्य रहता है , वही संस्कारकी दिशा समजी जाती है । तिथिमें अपना पञ्चमांश घटानेसे शुक्ल ( चन्द्रके श्वेत भाग )- का अङ्गुलादि मान होता है । वलनकी जो दिशा होती है . उस दिशाका चन्द्रश्रृङ्ग उन्नत और अन्य दिशामें नत होता है । तदनुसार परिलेख करना चाहिये१ ॥१६७ . १ / २॥
पञ्चर्त्वगाङ्गवशिखा : कर्णशेषहता : पृथक्‌ ॥१६८॥
प्रकृत्यार्काङगसिद्धाग्निभक्ता : लब्धोनसंयुता : ।
त्रिज्याधिकोने श्रवणे वपूंषि त्रिहृता : कुजात्‌ ॥१६९॥
ऋज्वोरनृज्वोर्विवरं गत्यन्तरविभाजितम्‌ ।
वक्रर्ज्वोर्गतियोगाप्तं गम्येऽतीते दिनादिकम्‌ ॥१७०॥
स्वनत्या संस्कृतौ स्वेषू दिक्साम्येऽन्येऽन्तरं युति : ।
याम्योदक्‌खेटविवरं मानैक्यार्धाल्पकं यदा ॥१७१॥
तदा भेदो लम्बनाद्यं स्फुटार्थं सूर्यपर्ववत्‌ ।
( ग्रहयुति - ज्ञानार्थ मङ्गलादि पाँच ग्रहोंके विम्बसाधन --- ) मङ्गलादिके ५ , ६ , ७ , ९ , ५ , इस मध्यमविम्बमानोंको क्रमसे मङ्गलादि ग्रहोंके कर्णशेष ( त्रिज्या और अपने - अपने शीघ्र कर्णके अन्तर )- से गुणा करके गुणनफलको २ स्थानोंमें रखे । एक स्थानमें क्रमसे मङ्गलादि ग्रहके २१ , १२ , ६ , २४ , और ३ का भाग देकर लब्धिको द्वितीय स्थानमें स्थित गुणनफलमें , यदि कर्ण त्रिज्यासे२ अधिक हो तो घटावे , यदि त्रिज्यासे अल्प हो तो जोडे फिर उसमें ३ से भाग देनेपर क्रमश : मङ्गलादि ग्रहोंके विम्ब - प्रमाण होते हैं ।
( ग्रहोंकी युतिके गत - गम्य दिन - साधन --- )  जिन दो ग्रहोंके युतिकालका ज्ञान करना हो , वे दोनों मार्गी हों , अथवा दोनों वक्री हों तो दोनों ग्रहोंकी अन्तर - कलामें दोनोंकी गत्यन्तर - कलासे भाग देना चाहिये । यदि एक वक्र और एक मार्गी हो तो दोनोंकी गति - योगकलासे भाग देना चाहिये । फिर जो लब्धि आवे , वह ग्रहयुतिके गत या गम्य दिनादि है ।
( ग्रहोंकी युतिमें भेद - ज्ञान --- ) जिन दो ग्रहोंकी युति होती हो , उन दोनोंके अपनी - अपनी नतिसे संस्कृत शार ( भॄपृष्ठस्थानाभिप्रायिक शर ) एक दिशाके हों तो अन्तर , यदि भिन्न दिशाके हों तो योग करनेसे दोनों ग्रहोंका अन्तर ( दक्षिणोत्तरान्तर ) होता है । यह अन्तर यदि दोनोंके विम्बमान - योगार्धसे अल्प हो तो उनके योगमें भेद ( एकसे दूसरा आच्छादित ) होता है । इसलिये इनमें नीचेवालेको छादक और ऊपरवालेको छाद्य मानकर सूर्यग्रहणके समान ही लम्बन , ग्रासमान आदि साधन करना चाहिये ॥१७१ . १ / २॥
एकायनगतौ स्यातां सूर्याचन्द्रमसौ यदा ।
तद्युते मण्डले क्रान्त्योस्तुल्यत्वे वैधृताभिध : ॥१७२॥
विपरीतायनगतौ चन्द्राकौं क्रान्तिलिप्तिका : ।
समास्तदा व्यतीपातो भगणार्द्धे तयोर्युतौ ॥१७३॥
भास्करेन्द्वोर्भचक्रान्तश्चक्रार्धावधि संस्थयो : ।
दृक्‌तुल्यसाधितांशादियुक्तयो : स्वावपक्रमौ ॥१७४॥
अथौजपदगस्येन्दो : क्रान्तिर्विक्षपेसंस्कृता ।
यदि स्यादधिका भानो : क्रान्ते : पातो गतस्तदा ॥१७५॥
न्य़ूना चेत्स्यात्तदा भावी वामं युग्मपदस्य च ।
पदान्यत्वं विधो : क्रान्तिर्विक्षेपाच्चेद्‌ विशुद्धयति ॥१७६॥
क्रान्त्योर्ज्ये त्रिज्ययाभ्यस्ते परमापक्रमोद्धृते ।
तच्चापातरमर्द्धं वा योज्यं भाविनि शीतगौ ॥१७७॥
शोध्यं चन्द्राद्नते पाते तत्सूर्यगतिताडितम्‌ ।
चन्द्रभुक्त्या हृतं भानौ लिप्तादि शशिवत्फलम्‌ ॥१७८॥
तद्वच्छशाङ्कपातस्य फलं देयं विपर्ययात्‌ ।
कर्मैतदसकृत्तावत्क्रान्ती यावत्सेमे तयो : ॥१७९॥
( पाताधिकार - पातकी संज्ञा --- ) जब सूर्य और चन्द्रमा दोनों एक ही अयन ( याम्यायन - दक्षिणायन अथवा सौम्यायन - उत्तरायण )- में हों तथा उन दोनोंके राश्यादि योग १२ राशि हो तो उस स्थितिमें दोनोंके क्रान्तिसाम्य होनेपर वैधृति नामका पात कहलाता है । तथा जब दोनों भिन्न ( पृथक्‌ - पृथक ) अयनमें हों और दोनोंका योग ६ राशि हो तो उस स्थितिमें दोनोंके दोनोंके क्रान्तिसाम्य होनेपर व्यतीपात नामक पात होता है ।
जब सूर्य - चन्द्रका अन्तर चक्र ( ० ) या ६ राशि हो , उस समयमें तात्कालिक अयनांसादिसे युक्त सूर्य और चन्द्रमाकी अपनी - अपनी क्रान्तिका साधन करे । यदि शर - संस्कृत चन्द्रमाकी क्रान्ति ( स्पष्ट क्रान्ति ) तात्कालिक सूर्यकी क्रान्तिसे अधिक हो तथा चन्द्रमा यदि विषम पदमें हो तो पातकालको गत ( बीता हुआ ) समझना चाहिये । यदि विषमपदस्थ चन्द्रमाकी शर - संस्कृत क्रान्तिसे अल्प हो तो पातकालको भावी ( होनेवाला ) समझना चाहिये । यदि चन्द्रमा समपदमें हो तो इससे विपरीत ( सूर्यकी क्रान्तिसे चन्द्रमाकी स्पष्ट क्रान्ति अधिक हो तो भावी , अल्प हो तो गत ) पातकाल समझे । यदि स्पष्ट क्रान्ति बनानेमें चद्रमाके शरमें क्रान्ति घटायी जाय तो इस स्थितिमें चन्द्रमा - के विम्ब और स्थानमें पदकी भिन्नता होती है ।
( स्फुट - क्रान्ति - साम्य - ज्ञान - प्रकार --- ) सूर्य और चन्द्रमा दोनोंकी ‘ क्रान्तिज्या ’ को त्रिज्यासे गुणा करके उसमें परम क्रान्तिज्यासे भाग देकर जो लब्धियाँ हों , उन दोनोंके चाप बनाये । उन दोनों चापोंका जो अन्तर हो उसको सम्पूर्ण या अर्ध ( कुछ न्यून ) करके गम्य पात हो तो चन्द्रमामें जोडे : गतपात हो तो घटावे । पुन : उपर्युक्त चापके अन्तर या उसके खण्डको सूर्यकी गतिसे गुणा करके गुणनफलमें चन्द्रगतिसे भाग देकर जो लब्धि ( कलादि ) हो , उसको चन्द्रमाके समान ही सूर्यमें संस्कार करे ( गम्यपात हो तो जोडे , गतपात हो तो घटावे ) । इसी प्रकार ( सूर्य फलवत्‌ = उक्त चापान्तरको चन्द्रपातकी गतिसे गुणा करके उसमें चन्द्रगतिसे भाग देकर ) लब्धिरूप चन्द्रपातके कलादि फलको चन्द्रपात ( राहु )- में विपरीत संस्कार करे ( गत - पातमें जोडे , गम्य पातमें घटावे ) तो पातकालासन्न समयके सूर्य , चन्द्रमा और चन्द्रपात होते हैं । फिर इन तीनों ( रवि , चन्द्र और चन्द्रपात ) के द्वारा उपर्युक्त क्रियाको तबतक बार - बार करता रहे जबतक दोनोंकी क्रान्ति सम न हो जाय ॥१७२ - १७९॥
क्रान्त्यो : समत्वे पातोऽथ प्रक्षिप्तांशोनिते विधौ ।
हीनेऽर्द्धरात्रिकाद्यातो भावी तात्कालिकेऽधिके ॥१८०॥
स्थिरीकृतार्द्धरात्रेन्द्वोर्द्वयोर्विवरलिप्तिका : ।
षष्टिघ्यश्चभुक्त्याप्ता : पातकालस्य नाडिका : ॥१८१॥
इस प्रकार क्रान्ति - साम्य होनेपर पात समझना चाहिये । यदि उपर्युक्त क्रियाद्वारा प्राप्त अंशादिसे युक्त या हीन किया हुआ चन्द्रमा अर्धरात्रिकालिक साधित चन्द्रमासे अल्प ( पीछे ) हो तो पातकालको ‘ गत ’ समझे और यदि अधिक ( आगे ) हो तो पातकालको भावी समझे ।
( अर्धरात्रिसे गत , गम्य पातकालका ज्ञान --- )  उपर्युक्त क्रियाद्वारा स्थिरीकृत ( पातकालिक ) चन्द्रमा और अर्धरात्रिकालिक चन्द्रमा जो हों - इन दोनोंकी अन्तरकलाको ६० से गुणा करके गुणनफलमें चन्द्रकी गति - कलासे भग देनेपर जो लब्धि हो , उतनी घटी अर्धरात्रिसे पीछे या आगे ( गत पातमें पीछे , गम्य पातमें आगे ) तक पातकालकी घडी समझी जाती है ॥१८० - १८१॥
रवीन्द्वोर्मानयोगार्द्धं षष्टया संगुण्य भाजयेत्‌ ।
तयोर्भुक्त्यन्तरेणाप्तं स्थित्यर्धं नाडिकादि तत्‌ ॥१८२॥
पातकाल : स्फुटो मध्य : सोऽपि स्थित्यर्द्धवर्जित : ।
तस्य सम्भवकाल : स्यात्तत्संयुक्तोऽन्त्यसंज्ञित : ॥१८३॥
आद्यन्तकालयोर्मध्य : कालो ज्ञेयोऽतिदारुण : ।
प्रज्वलज्ज्वलनाकार : सर्वकर्मसु गर्हित : ॥१८४॥
इत्येतद्नणिते किञ्चित्प्रोक्तं संक्षेपतो द्विज ।
जातकं वच्मि समयाद्राशिसंज्ञापुर : सरम्‌ ॥१८५॥
( पातके स्थितिकाल , आरम्भ तथा अन्तकालका साधन --- )  सूर्य तथा चन्द्रमाके विम्बयोगार्धको ६० से गुणा करके गुणनफलमें सूर्य - चन्द्रकी गत्यन्तरकलासे भाग देकर जो लब्धि हो वह पातकी स्थित्यर्ध घडी होती है । इसको पातके स्पष्ट मध्यकालमें घटानेसे पातका आरम्भकाल होता है और जोडनेसे अन्तकाल होता है । पातके आरम्भकालसे अन्तकालतक जो मध्यका काल है , वह प्रज्वलित अग्निके समान अत्यन्त दारुण ( भयानक ) होता है । जो सब कार्यमें निषिद्ध है । ब्रह्मन्‌ ! इस प्रकार मैंने गणितस्कन्धमें संक्षेपसे कुछ ( उपयोगी ) विषयोंका प्रतिपादन किया है । अब ( अगले अधायमें ) राशियोंके संज्ञादि कथनपूर्वक जातकका वर्णन करूँगा ॥१८२ - १८५॥
॥ इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने द्वितीयपादे ज्यौतिषगणितवर्णनं नाम 
चतु : पञ्चाशत्तमोऽध्याय : ॥५४॥ 
 

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