पुलस्त्यजी बोले - इस प्रकार तीन नयनवाले भगवान् शिवका वर्षाकाल मेघोंपर बसते हुए ही व्यतीत हो गया । हे मुने ! तत्पश्चात् लोगोंको आनन्द देनेवाली रमणीय शरद ऋतु आ गयी ! इस ऋतुमें नीले मेघ आकाशको और बगुले वृक्षोंको छोड़कर अलग हो जाते हैं । नदियाँ भी तटको छोड़कर बहने लगती हैं । इसमें कमलपुष्प सुगन्ध फैलाते हैं, कौवे भी घोसलोंको छोड़ देते हैं । रुरुमृगोंके श्रृङ्ग गिर पड़ते हैं और जलाशय सर्वथा स्वच्छ हो जाते हैं । इस समय कमल विकसित होते हैं, शुभ्र चन्द्रमाकी किरणें आनन्ददायिनी होकर फैल जाती हैं, लताएँ पुष्पित हो जाती हैं, गौवें हष्ट - पुष्ट होकर आनन्दसे विहरती हैं तथा संतोंको बड़ा सुख मिलता है । तालाबोंमें कमल, गगनमें तारागण, जलाशयोंमें निर्मल जल और दिशाओंके मुखमण्डलके साथ सज्जनोंका चित्त तथा चन्द्रमाकी ज्योति भी सर्वथा स्वच्छ एवं निर्मल हो जाती हैं ॥१- ४॥
ऐसी शरद - ऋतुमें शंकरजी मेघके ऊपर वास करनेवाली सत्तीको साथ लेकर श्रेष्ठ मन्दरपर्वतपर पहुँचे और महातेजस्वी ( महाकान्तिमान् ) भगवान् शंकर मन्दराचलके ऊपरी भागमें एक समतल शिलापर अवस्थित होकर सतीके साथ विश्राम करने लगे । उसके बाद शरद - ऋतुके बीत जानेपर तथा भगवान् विष्णुके जाग जानेपर प्रजापतियोंमें श्रेष्ठ दक्षने एक विशाल यज्ञका आयोजन किया । उन्होंने द्वादश आदित्यों तथा कश्यप आदि ( ऋषियों ) - के साथ ही इन्द्र आदि श्रेष्ठ देवताओंको भी निमन्त्रित कर उन्हें यज्ञका सदस्य बनाया ॥५ - ८॥ 
नारदजी ! उन्होंने अरुन्धतीसहित प्रशस्तव्रतधारी वसिष्ठको, अनसूयासहित अत्रिमुनिको, धृतिके सहित कौशिक ( विश्वामित्र ) मुनिको, अहल्याके साथ गौतमको, अमायाके सहित भरद्वाजको और चन्द्राके साथ अङ्गिरा ऋषिको आमन्त्रित किया । विद्वान् दक्षने इन गुणसम्पन्न वेद - वेदाङ्गपारगामी विद्वान् ऋषियोंको निमन्त्रितकर उन्हें अपने यज्ञमें धर्मको भी उनकी पत्नी अहिंसाके साथ निमन्त्रितकर यज्ञमण्डपका द्वारपाल नियुक्त किया ॥९ - १२॥ 
दक्षने अरिष्टनेमिको समिधा लानेका कार्य सौंपा और भृगुको समुचित मन्त्र - पाठमें नियुक्त किया । फिर दक्षप्रजापतिने रोहिणीसहित ' अर्थशुचि ' चन्द्रमाको कोषाध्यक्षके पदपर नियुक्त किया । इस प्रकार दक्षप्रजापतिने केवल शंकरसहित सतीको छोड़कर अपने सभी जामाताओं, पुत्रियों एवं दौहित्रोंको यज्ञमें आमन्त्रित किया ॥१३ - १५॥
नारदजीने कहा ( पूछा ) - ( पुलस्त्यजी महाराज ! ) लोकस्वामी दक्षने महेश्वरको सबसे बड़े, श्रेष्ठ, वरिष्ठ, सबके आदिमें रहनेवाले एवं समग्र ऐश्वर्योंके स्वामी होनेपर भी ( यज्ञमें ) क्यों नहीं निमन्त्रित किया ? ॥१६॥
पुलस्त्यजीने कहा - ( नारदजी ! ) ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, वरिष्ठ तथा अग्रगणी होनेपर भी भगवान् शिवको कपाली जानकर प्रजापति दक्षने उन्हें ( यज्ञमें ) निमन्त्रित नहीं किया ॥१७॥ 
नारदजीने ( फिर ) पूछा - ( महाराज ! ) देवश्रेष्ठ शूलपाणि, त्रिलोचन भगवान् शंकर किस कर्मसे और किस प्रकार कपाली हो गये, यह बतलायें ॥१८॥ 
पुलस्त्यजीने कहा - नारदजी ! आप ध्यान देकर सुनें ! यह पुरानी कथा आदिपुराणमें अव्यक्तमूर्ति ब्रह्माजीके द्वारा कही गयी है । ( मैं उसी प्राचीन कथाको आपसे कहता हूँ । ) प्राचीन समयमें समस्त स्थावर - जङ्गमात्मक जगत् एकीभूत महासमुद्रमें निमग्न ( डूबा हुआ ) था । चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, वायु एवं अग्नि - किसीका भी कोई ( अलग ) अस्तित्व नहीं था । ' भाव ' एवं ' अभाव ' से रहित जगतकी उस समयकी अवस्थाका कोई ठीक - ठीक ज्ञान, विचार, तर्कना या वर्णन सम्भव नहीं है । सभी पर्वत एवं वृक्ष जलमें निमग्न थे तथा सम्पूर्ण जगत् अन्धकारसे व्याप्त एवं दुर्दशाग्रस्त था । ऐसे समयमें भगवान् विष्णु हजारों वर्षोंकी निद्रामें शयन करते हैं एवं रात्रिके अन्तमें राजस रुप ग्रहणकर वे सभी लोकोंकी रचना करते हैं ॥१९ - २२॥ 
इस चराचरात्मक जगतका स्त्रष्टा भगवान् विष्णुका वह अद्भुत राजस स्वरुप पञ्चमुख एवं वेद - वेदाङ्गोंका ज्ञाता था । उसी समय तमोमय, त्रिलोचन, शूलपाणि, कपदीं तथा रुद्राक्षमाला धारण किया हुआ एक अन्य पुरुष भी प्रकट हुआ । उसके बाद भगवानने अतिदारुण अहंकारकी रचना की, जिससे ब्रह्मा तथा शंकर - वे दोनों ही देवता आक्रान्त हो गये । अहंकारसे व्याप्त शिवने ब्रह्मासे कहा - तुम कौन हो और यहाँ कैसे आये हो ? तुम मुझे यह भी बतलाओ कि तुम्हारी सृष्टि किसने की है ? ॥२३ - २६॥ 
( फिर ) इसपर ब्रह्माने भी अहंकारसे उत्तर दिया - आप भी बतलाइये कि आप कौन हैं तथा आपके माता - पिता कौन हैं ? लोक - कल्याणके लिये कलहको प्रिय माननेवाले नारदजी ! इस प्रकार प्राचीनकालमें ब्रह्मा और शंकरके बीच एक - दूसरेसे दुर्विवाद हुआ । उसी समय आपका भी प्रादुर्भाव हुआ । आप उत्पन्न होते ही अनुपम वीणा धारण किये किलकिला शब्द करते हुए अन्तरिक्षकी ओर ऊपर चले गये । इसके बाद भगवान् शिव मानो ब्रह्माद्वारा पराजित - से होकर राहुग्रस्त चन्द्रमाके समान दीन एवं अधोमुख होकर खड़े हो गये ॥२७ - ३०॥ 
( ब्रह्माके द्वारा ) लोकपति ( शंकर ) - के पराजित हो जानेपर क्रोधसे अन्धे हुए रुद्रसे ( श्रीब्रह्माजीके ) पाँचवें मुखने कहा - तमोमूर्ति त्रिलोचन ! मैं आपको जानता हूँ । आप दिगम्बर, वृषारोही एवं लोकोंको नष्ट करनेवाले ( प्रलयंकारीं ) हैं । इसपर अजन्मा भगवान् शंकर अपने तीसरे घोर नेत्रद्वारा भस्म करनेकी इच्छासे ब्रह्माके उस मुखको एकटक देखने लगे । तदनन्तर श्रीशंकरके श्वेत, रक्त, स्वर्णिम, नील एवं पिंगल वर्णके सुन्दर पाँच मुख समुदभूत हो गये ॥३१ - ३४॥ 
सूर्यके समान दीप्त ( उन ) मुखोंको देखकर पितामहके मुखने कहा - जलमें आघात करनेसे बुदबुद तो उत्पन्न होते हैं, पर क्या उनमें कुछ शक्ति भी होती है ? यह सुनकर क्रोधभरे भगवान् शंकरने ब्रह्माके काठोर भाषण करनेवाले सिरको अपने नखके अग्रभागसे काट डाला; पर वह कटा हुआ ब्रह्माजीका सिर शंकरजीके ही वाम हथेलीपर जा गिरा एवं वह कपाल श्रीशंकरके उस हथेलीपर जा गिरा एवं वह कपाल श्रीशंकरके उस हथेलीसे ( इस प्रकार चिपक गया कि गिरानेपर भी ) किसी प्रकार न गिरा । इसपर अद्भुतकर्मी ब्रह्माजी अत्यन्त क्रुद्ध हो गये । उन्होंने कवच - कुण्डल एवं शर धारण करनेवाले धनुर्धर विशाल बाहुवाले एक पुरुषकी रचना की । वह अव्यय, चतुर्भूज बाण, शक्ति और भारी तरकस धारण किये था तथा सूर्यके समान तेजस्वी दीख पड़ता था ॥३५ - ३९॥
उस नये पुरुषने शिवजीसे कहा - दुर्बुद्धि शूलधारी शंकर ! तुम शीघ्र ( यहाँसे ) चले जाओ, अन्यथा मैं तुम्हें मार डालूँगा । पर तुम पापयुक्त हो; भला, इतने बड़े पापीको कौन मारना चाहेगा ? जब उस महापुरुषने शंकरसे इस प्रकार कहा, तब शिवजी लज्जित होकर हिमालय पर्वतपर स्थित बदरिकाश्रमको चले गये, जहाँ नर - नारायणका स्थान हैं और जहाँ नदियोंमें श्रेष्ठ पवित्र सरस्वती नदी बहती है । वहाँ जाकर और उन नारायणको देखकर शंकरने कहा - भगवन् ! मैं महाकापालिक हूँ । आप मुझे भिक्षा दें । ऐसा कहनेपर धर्मपुत्र ( नारायण ) - ने रुद्रसे कहा महेश्वर ! तुम अपने त्रिशूलके द्वारा मेरी बायीं भुजापर ताड़ना करो ॥४० - ४४॥
शिवजीने नारायणकी बात सुनकर त्रिशूलद्वारा बड़े वेगसे उनकी वाम भुजापर आघात किया । त्रिशूलद्वारा ( भुजापर ) प्रताड़ित मार्गसे जलकी तीन धाराएँ निकल पड़ीं । एक धारा आकाशमें जाकर ताराओंसे मण्डित आकाशगङ्गा हुई; दूसरी धारा पृथ्वीपर गिरी, जिसे तपोधन अत्रिने ( मन्दाकिनीके रुपमें ) प्राप्त किया । शंकरके उसी अंशसे दुर्वासाका प्रादुर्भाव हुआ । तीसरी धारा भयानक दिखायी पड़नेवाले कपालपर गिरी, जिससे एक शिशु उत्पन्न हुआ । वह ( जन्म लेते ही ) कवच बाँधें, श्यामवर्णका युवक था । उसके हाथोंमें धनुष और बाण था । फिर वह वर्षाकालमें मेघ - गर्जनके समान कहने लगा - ' मैं किसके स्कन्धसे सिरको तालफलके सदृश काट गिराऊँ ? ' ॥४५ - ४९॥ 
श्रीनारायणकी बाहुसे उत्पन्न उस पुरुषके समीप जाकर श्रीशंकरने कहा - हे नर ! तुम सूर्यके समान प्रकाशमान, पर कटुभाषी, ब्रह्मासे उत्पन्न इस पुरुषको मार डालो । शंकरजीके ऐसा कहनेपर उस वीर नरने प्रसिद्ध आजगव नामका धनुष एवं अक्षय तूणीर ग्रहणकर युद्धका निश्चय किया । उसके बाद ब्रह्मात्मज और नारायणकी भुजासे उत्पन्न दोनों नरोंमें सहस्त्र दिव्य वर्षोंतक प्रबल युद्ध होता रहा । तत्पश्चात् श्रीशंकरजीने ब्रह्माके पास जाकर कहा - पितामह ! यह एक अद्भुत बात है कि दिव्य एवं अद्भुत कर्मवाले ( मेरे ) नरने दसों दिशाओंमें व्याप्त महान् बाणोंके प्रहारसे ताडित कर आपके पुरुषको जीत लिया । ब्रह्माने उस ईशसे कहा कि इस अजितका जन्म यहाँ दूसरोंद्वारा पराजित होनेके लिये नहीं हुआ है । यदि किसीको पराजित कहा जाना अभीष्ट है तो यह तेरा नर ही है । मेरा पुरुष तो महाबली है - ऐसा कहे जानेपर श्रीशंकरजीने ब्रह्माजीके पुरुषको सूर्यमण्डलमें फेंक दिया तथा उन्हीं शंकरने उस नरको धर्मपुत्र नरके शरीरमें फेंक दिया ॥५० - ५५॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें दूसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥२॥
 

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