पुलस्त्यजी बोले - नारदजी ! उसके बाद समर्थ नारायण ऋषि कामदेवको हँसते हुए देखकर यों बोले - काम ! तुम यहाँ बैठो । काम उनकी उस अक्षुब्धता ( स्थिरता ) - को देखकर चकित हो गया । महामुने ! वसन्तको भी उस समय बड़ी चिन्ता हुई । फिर अप्सराओंकी ओर देखकर स्वागतके द्वारा उनकी पूजा कर भगवान् नारायणने वसन्तसे कहा - आओ बैठो । उसके पश्चात् भगवान् नारायण मुनिने हँसकर एक फूलसे भरी मञ्जरी ली और अपने ऊरुपर एक सुवर्ण अङ्गवाली तरुणीका चित्र लिखकर उसकी सजीव रचना कर दी । नारायणकी जाँघसे उत्पन्न उस सर्वाङ्ग सुन्दरीको देखकर कामदेव मनमें सोचने लगा - क्या यह सुन्दरी मेरी पत्नी रति है ! ॥१ - ५॥ 
इसकी वैसी ही सुन्दर आँखें, भौंह एवं कुटिल अलकें हैं । इसका वैसा ही मुखमण्डल, वैसी सुन्दर नासिका, वैसा वंश और वैसा ही इसका अधरोष्ठ भी सुन्दर है । इसे देखनेसे तृप्ति नहीं होती हैं । रतिके समान ही मनोहर तथा अत्यन्त मग्न चूचुकवाले स्थूल ( मांसल ) स्तन दो सज्जन पुरुषोंके सदृश परस्पर मिले हैं । इस सुन्दरीका वैसा ही कृश, त्रिवलीयुक्त, कोमल तथा रोमावलिवाला उदर भी शोभित हो रहा है । उदरपर नीचेसे ऊपरकी ओर स्तनतटतक जाती हुई इसकी रोमराजि सरोवर आदिके तटसे कमलवृन्दकी ओर जाती हुई भ्रमरमण्डलीके समान सुशोभित हो रही है ॥६ - ९॥ 
इसका करधनीसे मण्डित स्थूल जघन - प्रदेश क्षीरसागरके मन्थनके समयमें वासुकि नागसे वेष्टित मन्दरपर्वतके समान सुशोभित हो रहा है । कदलीस्तम्भके समान ऊर्ध्वमूल ऊरुओंवाली कमलके केसरके समान गौरवर्णकी यह सुन्दरी है । इसके दोनों घुटने, गूढगुल्फ, रोमरहित सुन्दर जंघा तथा अलक्तकके समान कान्तिवाले दोनों पैर अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं । मुने ! इस प्रकार उस सुन्दरीके विषयमें सोचते हुए जब यह कामदेव स्वयमेव कामातुर हो गया तो फिर अन्य पुरुषोंकी तो बात ही क्या थी ॥१० - १३॥ 
नारदजी ! अब वसन्त भी उस उर्वशीको देखकर सोचने लगा कि क्या यह राजा कामकी राजधानी ही स्वयं आकर उपस्थित हो गयी हैं ? अथवा रात्रिका अन्त होनेपर सूर्यकी किरणोंके तापसे भयसे स्वयं चन्द्रिका ही शरणमें आ गयी है । इस प्रकार सोचते हुए अप्सराओंको रोककर वसन्त मुनिके सदृश ध्यानस्थ हो गया । महामुने ! उसके बाद शुभव्रत नारायण मुनिने कामादि सभीको चकित देखकर हँसते हुए कहा - हे काम, हे अप्सराओ, हे वसन्त ! यह अप्सरा मेरी जाँघसे उत्पन्न हुई है । इसे तुम लोग देवलोकमें ले जाओ और इन्द्रको दे दो । उनके ऐसा कहनेपर वे सभी भयसे काँपते हुए उर्वशीको लेकर स्वर्गमें चले गये और उस रुप - यौवनशालिनी अप्सराको इन्द्रको दे दिया । महामुने ! उन कामादिने इन्द्रसे उन दोनों धर्मके पुत्रों ( नर - नारायण ) - के चरित्रको कहा, जिससे इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ । नर और नारायणके इस चरित्रकी चर्चा आगे सर्वत्र बढ़ती गयी तथा वह पाताल, मर्त्यलोक एवं सभी दिशाओंमें व्याप्त हो गयी ॥१४ - २१॥ 
मुने ! एक बारकी बात है । जब भयंकर हिरण्यकशिपु मारा गया तब प्रह्लाद नामक दानव राजगद्दीपर बैठा । वह देवता और ब्राह्मणोंका पूजक था । उसके शासनकालमें पृथ्वीपर राजा लोग विधिपूर्वक यज्ञानुष्ठान करते थे । ब्राह्मण लोग तपस्या, धर्म - कार्य और तीर्थयात्रा, वैश्य लोग पशुपालन तथा शूद्र लोग सबकी सेवा प्रेमसे करते थे ॥२२ - २४॥ 
मुने ! इस प्रकार चारों वर्ण अपने आश्रममें स्थित रहकर धर्म - कार्योंमें लगे रहते थे । इससे देवता भी अपने कर्ममें संलग्न हो गये । उसी समय ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ भार्गववंशी महातपस्वी च्यवन नामक ऋषि नर्मदाके नकुलीश्वर तीर्थमें स्नान करने गये । वहाँ वे महादेवका दर्शनकर नदीमें स्नान करनेके लिये उतरे । जलमें उतरते ही ऋषिको एक भूरे वर्णके साँपने पकड़ लिया । उस साँपद्वारा पकड़े जानेपर ऋषिने अपने मनमें विष्णु भगवानका स्मरण किया । कमलनयन भगवान् श्रीहरिको स्मरण करनेपर वह महान् सर्प विषहीन हो गया ॥२५ - २८॥
फिर उस भयंकर विषरहित सर्पने च्यवन मुनिको रसातलमें ले जाकर छोड़ दिया । सर्पने भार्गवश्रेष्ठ च्यवनको मुक्त कर दिया । फिर वे नागकन्याओंसे पूजित होते हुए चारों ओर विचरण करने लगे । वहाँ घूमते हुए वे दानवोंके विशाल नगरमें प्रविष्ट हुए । इसके बाद श्रेष्ठ दैत्योंद्वारा पूजित प्रह्लादने उन्हें देखा । महातेजस्वी प्रह्लादने भृगुपुत्रकी यथायोग्य पूजा की । पूजाके बाद उनके बैठनेपर प्रह्लादने उनसे उनके आगमनका कारण पूछा ॥२९ - ३२॥
उन्होंने कहा - महाराज ! आज मैं महाफलदायक महातीर्थमें स्नान एवं नकुलीश्वरका दर्शन करने आया था । वहाँ नदीमें उतरते ही एक नागने मुझे बलात् पकड़ लिया । वही मुझे पातालमें लाया और मैंने यहाँ आपको भी देखा । च्यवनकी इस बातको सुनकर सुन्दर वचन बोलनेवाले दैत्योंके ईश्वर ( प्रह्लाद ) - ने धर्मसंयुक्त यह वाक्य कहा ॥३३ - ३५॥
प्रह्लादने पूछा - भगवन् ! कृपा करके मुझे बतलाइये कि पृथ्वी, आकाश और पातालमें कौन - कौनसे ( महान् ) तीर्थ हैं ? ॥३६॥
( प्रह्लादके वचनको सुनकर ) च्यवनजीने कहा - महाबाहो ! पृथ्वीमें नैमिषारण्यतीर्थ, अन्तरिक्षमें पुष्कर, और पातालमें चक्रतीर्थ प्रसिद्ध हैं ॥३७॥
पुलस्त्यजीने कहा - महामुने ! भार्गवकी इसी बातको सुनकर दैत्यराज प्रह्लादने नैमिषतीर्थमें जानेके लिये इच्छा प्रकट की और दानवोंसे यह बात कही ॥३८॥
प्रह्लाद बोले - उठो, हम सभी नैमिषतीर्थमें स्नान करने जायँगे तथा वहाँ पीताम्बरधारी एवं कमलके समान नेत्रोंवाले भगवान् अच्युत ( विष्णु ) - के दर्शन करेंगे ॥३९॥
पुलस्त्यजीने कहा - दैत्यराज प्रह्लादके ऐसा कहनेपर वे सभी दैत्य और दानव रसातलसे बाहर निकले एवं अतुलनीय उद्योगमें लग गये । उन महाबलवान् दितिपुत्रों एवं दानवोंनें नैमिषारण्यमें आकर आनन्दपूर्वक स्नान किया । इसके बाद श्रीमान् दैत्यश्रेष्ठ प्रह्लाद मृगया ( आखेट या शिकार ) - के लिये वनमें घूमने लगे । वहाँ घूमते हुए उन्होंने पवित्र एवं निर्मल जलवाली सरस्वती नदीको देखा । वहीं समीप ही बाणोंसे खचाखच बिंधे बड़ी - बड़ी शाखाओंवाले एक शाल वृक्षको देखा । वे सभी बाण एक - दूसरेके मुखसे लगे हुए थे ॥४० - ४३॥
तब उन अद्भुत आकारवाले नागोपवीत ( साँपोंसे लिपटे ) बाणोंको देखकर दैत्येश्वरको बड़ा क्रोध हुआ । फिर उन्होंने दूरसे ही काले मृगचर्मको धारण किये हुए बड़ी - बड़ी जटाओंवाले तथा तपस्यामें लगे दो मुनियोंको देखा । उन दोनोंके बगलमें सुलक्षण शाङ्ग और आजगव नामक दो दिव्य धनुष एवं दो अक्षय तथा बड़े - बड़े तरकस वर्तमान थे । उन दोनोंको इस प्रकार देखकर दानवराज प्रह्लादने उन्हें दम्भसे युक्त समझा । फिर उन्होंने उन दोनों श्रेष्ठ पुरुषोंसे कहा - ॥४४ - ४७॥ 
आप दोनों यह धर्मविनाशक दम्भपूर्ण कार्य क्यों कर रहे हैं ? कहाँ तो आपकी यह तपस्या और जटाभार, कहाँ ये दोनों श्रेष्ठ अस्त्र ? इसपर नरने उनसे कहा - दैत्येश्वर ! तुम उसकी चिन्ता क्यों कर रहे हो ? सामर्थ्य रहनेपर कोई भी व्यक्ति जो कर्म करता है, उसे वही शोभा देता है । तब दितीश्वर प्रह्लादने उन दोनोंसे कहा - धर्मसेतुके स्थापित करनेवाले मुझ दैत्येन्द्रके रहते यहाँ आप लोग ( सामर्थ्य - बलसे ) क्या कर सकते हैं ? इसपर नरने उन्हें उत्तर दिया - हमने पर्याप्त शक्ति प्राप्त कर ली है । हम नर और नारायण - दोनोंसे कोई भी युद्ध नहीं कर सकता ॥४८ - ५१॥ 
इसपर दैत्येश्वरने क्रुद्ध होकर प्रतिज्ञा कर दी कि मैं युद्धमें जिस किसी भी प्रकार आप नर और नारायण दोनोंको जीतूँगा । ऐसी प्रतिज्ञाकर दैत्येश्वर प्रह्लादने वनकी सीमापर अपनी सेना खड़ी कर दी और धनुषको फैलाकर उसपर डोरी चढ़ायी तथा घोरतर करतलध्वनि की - ताल ठोंकी । इसपर नरने भी आजगव धनुषको चढ़ाकर बहुत - से तेज बाण छोड़े । परंतु प्रह्लादने अनेक स्वर्ण - पुंखवाले अप्रतिम बाणोंसे उन बाणोंको काट डाला । फिर नरने युद्धमें अप्रतिम दैत्येश्वरके द्वारा बाणोंको नष्ट हुआ देख क्रुद्ध होकर अपने महान् धनुषको चढ़ाकर पुनः अन्य अनेक तीक्ष्ण बाण छोड़े ॥५२ - ५५॥
नरके एक बाण छोड़नेपर प्रह्लादने दो बाण छोड़े; नरके तीन बाण छोड़नेपर प्रह्लादने चार बाण छोड़े । इसके बाद पुनः नरने पाँच बाण और फिर दैत्यश्रेष्ठ प्रह्लादने छः तेज बाण छोड़े । विप्र ! नरके सात बाण छोड़नेपर दैत्यने आठ बाण छोड़े । नरके नव बाण छोड़नेपर प्रह्लादने उनपर दस बाण छोड़े । नरके बारह बाण छोड़नेपर दानवने पंद्रह बाण छोड़े । नरके छत्तीस बाण छोड़नेपर दैत्यपतिने बहत्तर बाण चलाये । नरके सौ बाणोंपर दैत्यने तीन सौ बाण चलाये । धर्मपुत्रके छः सौ बाणोंपर दैत्यराजने एक हजार बाण छोड़े । फिर तो उन दोनोंने अत्यन्त क्रोधसे ( एक - दूसरेपर ) असंख्य बाण छोड़े ॥५६ - ५९॥
उसके बाद नरने असंख्य बाणोंसे पृथ्वी, आकाश और दिशाओंको ढक दिया । फिर दैत्यप्रवर प्रह्लादने स्वर्णपुंखवाले बाणोंको बड़े वेगसे छोड़कर उनके बाणोंको काट दिया । तब नर और दानव दोनों वीर बाणों तथा भयंकर श्रेष्ठ अस्त्रोंसे परस्पर युद्ध करने लगे । इसके बाद दैत्यने हाथमें ब्रह्मास्त्र लेकर उस धनुषपर नियोजित कर चला दिया एवं उन पुरुषोत्तमने भी माहेश्वरास्त्रका प्रयोग कर दिया । वे दोनों अस्त्र परस्पर एक - दूसरेसे टक्कर खाकर गिर गये । ब्रह्मास्त्रके व्यर्थ होनेपर क्रोधसे मूर्च्छित हुए प्रह्लाद वेगसे गदा लेकर उत्तम रथसे कूद पड़े ॥६० - ६३॥ 
ऋषि नारायणने उस समय दैत्यको हाथमें गदा लिये अपनी ओर आते देखकर स्वयं युद्ध करनेकी इच्छासे नरको पीछे हटा दिया । नारदजी ! तब प्रह्लादजी गदा लेकर तपोनिधान, शार्ङ्गधनुषको धारण करनेवाले, प्रसिद्ध पुरातन ऋषि, महापराक्रमशाली, लोकपति नारायणकी ओर दौड़ पड़े ॥६४ - ६५॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें सातवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥७॥
 

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