पुलस्त्यजी बोले - तत्पश्चात् भीरुओंके लिये भय बढ़ानेवाला समर आरम्भ हो गया । हजार नेत्रोंवाले इन्द्र अपने विशाल धनुषको लेकर बाणोंकी वर्षा करने लगे । अन्धक भी अपने दीप्तिमान् धनुषको लेकर बड़े वेगसे मयूरपंख लगे बाणोंको इन्द्रपर छोड़ने लगा । वे दोनों एक - दूसरेको झुके हुए पर्वोवालें स्वर्णपंखयुक्त तथा महावेगवान् तीक्ष्ण बाणोंसे आहत कर दिये । फिर इन्द्रने क्रुद्ध होकर वज्रको अपने हाथसे घुमाकर उसे अन्धकके ऊपर फेंका । नारदजी ! अंधकने उसे आते देखा । उसने बाणों, अस्त्रों और शस्त्रोंसे उसपर प्रहार किया; पर अग्नि जिस प्रकार वनों, पर्वतों ( या वृक्षों ) - को भस्म कर देती है, उसी प्रकार उस वज्रने उन सभी अस्त्रोंकी भस्म कर डाला ॥१ - ५॥ 
तब बलवानोममें श्रेष्ठ अन्धक अति वेगवान् वज्रको आते देखकर रथसे कूदकर बाहुबलका आश्रय लेकर पृथ्वीपर खड़ा हो गया । वह वज्र, सारथि, अश्व, ध्वजा एवं कूबरके साथ रथको भस्मकर इन्द्रके पास पहुँच गया । उस ( वज्र ) - को वेगपूर्वक आते देख बलवान् अन्धकने मुष्टिसे मारकर उसे भूमिपर गिरा दिया और गर्जन करने लगा ॥६ - ८॥
उसे इस प्रकार गरजते देखकर इन्द्रने उसके ऊपर जोरोंसे बाणोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी । अन्धक भी उनकी निवारित करते हुए इन्द्रके पास पहुँच गया । उसने अपने हाथसे ऐरावत हाथीके सिरपर एवं अपने पैरसे सूँडपर प्रहार कर और घुटनोंसे दाँतोंपर प्रहार कर उन्हें तोड़ डाला । फिर अन्धकने बायीं मुट्ठीसे ऐरावतकी कमरपर शीघ्रतापूर्वक चोट मारकर उसे जर्जर कर गिरा दिया । इन्द्र भी हाथीसे नीचे गिरे जा रहे थे । वे झटस्से कूदकर एवं हाथमें वज्र लेकर अमरावतीमें प्रविष्ट हो गये ॥९ - १२॥ 
इन्द्रके रणसे विमुख हो जानेपर अन्धकने उस विशाल देव - सेनाको पैर, मुट्ठी एवं थप्पड़ों आदिसे मारकर गिरा दिया । नारदजी ! इसके बाद देवश्रेष्ठ यमराज अपना दण्ड घुमाते हुए प्रह्लादको मारनेकी इच्छासे दौड़ पड़े । यमराजको अपनी ओर आते देख प्रह्लादने भी अपने धनुषको चढ़ाकर फुतीसे बाण - समूहोंकी झड़ी लगा दी । यमराजने अपने दण्डके प्रहारसे उस अतुलनीय बाण - वृष्टिको व्यर्थ कर लोकभयकारी दण्ड चला दिया ॥१३ - १६॥ 
धर्मराजके हाथमें स्थित वह दण्ड हवामें ऊपर घूम रहा था । वह ऐसा लगता था मानो तीनों लोकोंको जलानेके लिये कालाग्नि प्रज्वलित हो रही हो । उस प्रज्वलित दण्डको अपनी ओर आते देखकर दैत्यलोग चिल्लाने लगे - हाय ! हाय ! यमराजने प्रह्लादको मार दिया । उस आक्रन्दनको सुनकर हिरण्याक्षके पुत्र अन्धकने कहा - डरो मत । मेरे रहते ये यमराज क्या वस्तु हैं ? नारदजी ! ऐसा कहकर वह वेगसे दौड़ पड़ा और हँसते हुए उस दण्डको बायें हाथसे पकड़ लिया ॥१७ - २०॥
फिर अन्धक उसे लेकर घुमाने लगा और साथ ही वर्षाकालिक मेघके तुल्य वह महानाद करते हुए गर्जन करने लगा । अन्धनके द्वारा यम - दण्डसे प्रह्लादको सुरक्षित देखकर दैत्यों एवं दानवोंके सेनानायक प्रसन्न होकर उसे धन्यवाद देने लगे । मुने ! अपने महादण्डको अन्धकद्वारा घुमाते देख सूर्यतनय यम दैत्यको दुःसह और दुर्धर समझकर अन्तर्धान हो गये । महामुने ! धर्मराजके अन्तर्हित होनेपर अब बली प्रह्लाद भी सभी ओरसे देवसेनाको नष्ट करने लगे ॥२१ - २४॥
वरुणदेव सूँसपर स्थित थे । वे प्रबल असुरोंको अपने पाशोंसे बाँधकर गदाद्वारा विदीर्ण करने लगे । इसपर विरोचनने उनका सामना किया । उसने वज्रतुल्य तोमर, शक्ति, बाण, मुदगर और कणपो ( भल्लों ) - से वरुणदेवपर प्रहार किया । इसपर वरुणने उसके निकट जाकर गदासे मारकर उन्हें पृथ्वीपर गिरा दिया । फिर दौड़कर उन्होंने पाशोंसे उसके मतवाले हाथीको बाँध लिया । पर अन्धकने तुरन्त ही उन पाशोंके सैकड़ों टुकड़े कर दिये । नारदजी ! इतना ही नहीं, उसने वरुणके निकट जाकर उनकी कमर भी पकड़ ली ॥२५ - २८॥
उस हाथीने भी अपने प्रबल दाँतोंसे वरुणको उठाकर फेंक दिया । साथ ही वह वाहनसहित वरुणको अपने पैरोंसे कुचलने लगा । यह देख शीतकिरण चन्द्रमाने हाथीके पास पहुँचकर अपने तेज नुकीले बाणोंसे विद्ध होनेपर अन्धकके हाथीको अत्याधिक पीड़ा हुई । वह अपने पैरोंसे वरुणको तेजीसे बार - बार कुचलने लगा । नारदजी ! वरुणदेवने भी हाथीके दोनों पैरोंको दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया एवं अपने हाथों तथा पैरोंसे भूमिका स्पर्श करते हुए मस्तक उठाकर बलपूर्वक अङ्गुलियोंसे उस हाथीकी पूँछ पकड़ ली और सर्पराज वासुकिसे विरोचनको बाँधकर उसे हाथी और पिलवानके सहित उठाकर आकाशमें फेंक दिया ॥२९ - ३३॥ 
वरुणद्वारा फेंका गया विरोचन आकाशसे हाथीसहित पृथ्वीपर इस प्रकार आ गिरा, जैसे सूर्यद्वारा पहले सुकेशी दैत्यका नगर अट्टालिकाओं, यन्त्रों, अर्गलाओं एवं महलोंके सहित पृथ्वीपर गिराया गया था । उसके बाद वरुण गदा और पाश लेकर दैत्यको मारनेके लिये दौड़े । अब दैत्यलोग मेघ - गर्जन - जैसे जोर - जोरसे रोने लगे - हाय ! हाय ! राक्षस - सेनाके रक्षक वीर विरोचन वरुणद्वारा मारे जा रहे हैं । हे प्रह्लाद ! हे जम्भ ! हे कुजम्भ ! तुम सभी अन्धकके साथ आकर ( उन्हें ) बचाओ । हाय ! बलवान् वरुण दैत्यवीर विरोचनको वाहनसहित चूर्ण करते हुए उन्हें पाशमें बाँधकर गदासे इस प्रकार मार रहे हैं, जैसे अश्वमेध यज्ञमें इन्द्र पशुको मारते हैं । दैत्योंके रुदनको सुनकर जम्भ आदि प्रमुख दैत्यगण वरुणकी ओर शीघ्रतासे ऐसे दौड़े जैसे पतङ्ग प्रज्वलित अग्निकी ओर दौड़ते हैं ॥३४ - ३८॥ 
उन दैत्योंको आया देख वरुण प्रह्लाद - पुत्र ( विरोचन ) - की छोड़ करके पाश फैलाकर और गदा घुमाकर उन जम्भप्रभृति शत्रुओंकी ओर दौड़े । उन्होंने जम्भकी पाशसे, तार - दैत्यको वज्र - तुल्य करतलके प्रहारसे, वृत्राशुरको पैरोंसे, कुजम्भको अपने वेगसे और बल नामक असुरको मुक्केसे मारकर गिरा दिया । देवप्रवर ! वरुणद्वारा मर्दित दैत्य अपने अस्त्र - शस्त्रोंको छोड़कर दसों दिशाओंमें भागने लगे । उसके बाद अन्धक वरुनदेवके साथ युद्ध करनेके लिये बड़ी तेजीसे उनके पास पहुँचा । अपनी ओर आते देख वरुणने उस दैत्यनायक अन्धकको अपने पाशसे बाँधकर गदासे मारा, किंतु दैत्यने उस पाश और गदाको छीनकर वरुणपर ही फेंक दिया ॥३९ - ४२॥ 
उस पाश और गदाको अपनी ओर आते देखकर दाक्षायणीके पुत्र वरुण शीघ्रतासे समुद्रमें पैठ गये । तब अन्धक देवसेनाका मर्दन करने लगा । उसके बाद पवनद्वारा प्रज्वलित अग्निदेव क्रोधदेव असुरोंकी सेनाको दग्ध करने लगे । तब दानवोंका ' विश्वकर्मा ' ( शिल्पिराज ) प्रचण्ड प्रतापी महाबाहु मय उनके सामने आया । नारदजी ! शम्बरके साथ उसे आते देख अग्निदेवने वायुदेवताके साथ शक्तिके प्रहारसे मय और शम्बरके कण्ठमें चोट पहुँचाकर उन दोनोंको ही जोरसे पकड़ लिया । शक्तिसे कवचके फट जानेपर छिन्न - भिन्न शरीरवाला मय पृथ्वीपर गिर पड़ा और शम्बरासुर कण्ठमें प्रदीप्त अग्निके लग जानेसे दग्ध होने लगा । अग्निद्वारा जलते दैत्यने उस समय मुक्त कण्ठसे इस प्रकार रोदन किया, जैसे वनमें सिंहसे आक्रान्त मतवाला हाथी वेदनासे दुःखी होकर करुण चिग्घाड़ करता है ॥४३ - ४७॥
शम्बरके उस शब्दको सुनकर क्रोधसे लल नेत्रोंवाले दैत्येश्वरने कहा - अरे ! यह क्या है ? युद्धमें मय और शम्बरको किसने जीता है ? इसपर दैत्ययोद्धाओंने अन्धकसे कहा - अग्निदेव इनको जला रहे हैं । आप जाकर उनकी रक्षा करें । आपके अतिरिक्त दूसरा कोई भी अग्निको नहीं रोक सकता । नारदजी ! दैत्योंके ऐसा कहनेपर हिरण्याक्षपुत्र शीघ्रतासे परिघ उठाकर ' ठहरो - ठहरो ' - कहता हुआ अग्निकी ओर दौड़ पड़ा । अन्धकके वचनको सुनकर अव्ययात्मा अग्निदेवने अत्यन्त क्रोधसे उस दैत्यको शीघ्र ही उठाकर पृथ्वीपर पटक दिया । उसके बाद अन्धक अग्निके पास पहुँचा ॥४८ - ५१॥
उसने श्रेष्ठ अस्त्रके द्वारा अग्निके सिरपर प्रहार किया । इस प्रकार आहत अग्निदेव शम्बरको छोड़कर तत्काल अन्धककी ओर दौड़े । अन्धकने आते हुए अग्निदेवके सिरपर पुनः परिघसे प्रहार किया । अन्धकद्वारा ताडित अग्निदेव भयभीत हो रणक्षेत्रसे भाग गये । उसके बाद पराक्रमी अन्धक वायु, चन्द्र, सूर्य, साध्य, रुद्र, अश्विनीकुमार, वसु और महानागोंमें जिन - जिनको बाणसे स्पर्श करत था, वे सबी युद्धभूमिसे पराङ्मुख हो जाते थे । इस प्रकार इन्द्र, रुद्र, यम, सोमसहित देवताओंको उग्र सेनाको जीतकर अन्धक श्रेष्ठ दानवोंके द्वारा पूजित होकर पृथ्वीपर आ गया । वहाँ वह बुद्धिमान् दैत्य सभी राजाओंको अपना करद ( सामन्त ) बना करके तथा समस्त चराचर जगतको वशमें कर पातालमें स्थित अपने अश्मक नामक उत्तम नगरमें चला गया । वहाँ उस महासुर अन्धककी सेवा करनेके लिये अप्सराओंके साथ सभी प्रमुख गन्धर्व, विद्याधर एवं सिद्धोंके समूह पातालमें आकर निवास करने लगे ॥५२ - ५७॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें दसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१०॥
 

Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel