सुकेशिने पूछा - हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! इन नरकोंमें लोग किस कर्मसे और कैसे जाते हैं, यह आप लोग बतलायें । इस विषयको जाननेकी मेरी बड़ी उत्सुकता है ॥१॥ 
ऋषिजन बोले - सुकेशिन् ! मनुष्य अपने जिन - जिन कर्मोंके फल भोग करनेके लिये इन नरकोंमें जाते हैं, उन्हें हमसे सुनो । जिन लोगोंने वेद, देवता एवं द्विजातियोंकी सदा निन्दा की है, जो पुराण एवं इतिहासके अर्थोंमें आदरबुद्धि या श्रद्धा नहीं रखते और जो गुरुओंकी निन्दा करते हैं तथा यज्ञोंमें विघ्न डालते हैं, जो दाताको दान देनेसे रोकते हैं, वे सभी उन ( वर्णित हो रहे ) नरकोंमें गिरते हैं । जो अधम व्यक्ति मित्र, स्त्री - पुरुष, सहोदर भाई, स्वामी - सेवक, पिता - पुत्र एवं आचार्य तथा यजमानोंमें परस्पर झगड़ा लगाते हैं तथा जो अधम व्यक्ति एकको कन्या देकर पुनः दूसरेको दे देते हैं, वे सभी यमदूतोंद्वारा नरकोंमें आरासे दो भागोंमें चीरे जाते हैं ॥२ - ६॥
( इसी प्रकार ) जो दूसरोंको संताप देते, चन्दन और खसकी चोरी करते और बालोंसे बने व्यजनोंचँवरोंको चुराते हैं, वे करम्भसिकता नामक नरकमें जाते हैं । जो देवता, अतिथि, अन्य प्राणी, सेवक, बाहरसे आये व्यक्ति, बालक, पिता, अग्नि एवं माताओंको बिना भोजन कराये पहले ही खा लेते हैं, वे अधम पुरुष पर्वततुल्य शरीर एवं सूची - सदृश मुखवाले होकर भूयसे व्याकुल रहते हुए दूषित रक्त एवं पीबका सार भक्षण करते हैं । हे राक्षसराज ! एक ही पङ्क्तिमें बैठे हुए लोगोंको जो समानरुपसे भोजन नहीं कराते, वे विड्भोजन नामक नरकमें जाते हैं ॥११ - १४॥ 
जो लोग एक साथ चलनेवाले किसी बहुत तीव्र चाहवालेको देखते हुए भी उसे अन्न नहीं देते - अकेले भोजन करते हैं, वे श्लेष्मभोजन नामक नरकमें जाते हैं । हे राक्षस ! जो उच्छिष्टावस्थामें ( जूठे रहते हुए ) गाय, ब्राह्मण और अग्निको स्पर्श करते हैं, उनके हाथ भयंकर तप्तकुम्भमें डाले जाते हैं । जो उच्छिष्टावस्थामें स्वेच्छासे सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रको देखते हैं, उनके नेत्रोंमें यमदूत अग्नि जलाते हैं । जो मित्रकी पत्नी, माता, जेठ भाई, पिता, बहन, पुत्री, गुरु और वृद्धोंको पैरसे छुते हैं, उन मनुष्योंके पैर खूब जलते हुए बेड़ीसे बाँधकर उन्हें रौरव - नरकमें डाला जाता है, जहाँ वे घुटनोंतक जलते रहते हैं ॥१५ - १९॥ 
जो बिना विशेष प्रयोजनके खीर, खिचड़ी एवं मांसका भोजन करते हैं, उनके मुँहमें जलता हुआ लोहेका पिण्ड डाला जाता है । जो पापियोंद्वारा की गयी गुरु, देवता, ब्राह्मण और वेदोंकी निन्दाको सुनते हैं, उन नीच मनुष्योंके कानोंमें धर्मराजके किंकर अग्निवर्ण लोहेकी कीलें बार - बार ठोंकते रहते हैं । जो प्याऊ ( पौसार ), देवमन्दिर, बगीचा, ब्राह्मणगृह, सभा, मठ, कुआँ, बावली एवं तडागको तोड़कर नष्ट करते हैं, उन मनुष्योंके विलाप करते रहनेपर भी भयंकर यमकिंकर सुतीक्ष्ण छुरिकाओंद्वारा उनकी चमड़ी उधेड़ते हैं - उनकी देहसे चर्मको काटकर पृथक् करते रहते हैं ॥२० - ४४॥ 
जो गाय, ब्राह्मण, सूर्य और अग्निके सम्मुख मलमूत्रादिका त्याग करते हैं, उनकी गुदासे कौए उनकी आँतोंको नोच - नोचकर काटते हैं । जो दुर्भिक्ष ( अकाल ) एवं विप्लवके समय अकिंचन, पुत्र, भृत्य एवं कलत्र ( स्त्री ) आदि बन्धवर्गको छोड़कर आत्म - पोषण करता है, वह यमदूतोंद्वारा श्वभोजन नामक नरकमें डाला जाता है । जो रक्षाके लिये शरणमें आये व्यक्तिका परित्याग करता है, वह मनुष्य बन्दीगृह - रक्षक यमदुतोंके द्वारा पीटे जाते हुए यन्त्रपीड नामक नरकमें गिरते हैं । जो लोग ब्राह्मणोंको कुकर्मोंमें लगाकर उन्हें क्लेश देते हैं, वे पापी मनुष्य शिलाओंपर पीसे जाते हैं और अग्नि - सूर्य आदिद्वारा शोषित भी किये जाते हैं ॥२५ - २८॥ 
जो धरोहरको चुरा लेते हैं, उन्हें बेड़ी लगाकर भूखसे पीड़ित एवं सूखे तालु और ओठकी अवस्थामें वृश्चिकाशन नामक नरकमें गिराया जाता है । जो पर्वोंमें मैथुन करत तथा परस्त्री - संग करते हैं, उन पापियोंको वह्नितप्त कीलोंवाले शाल्मलिका ( विवशतासे ) आलिङ्गन करना पड़ता है । जो द्विज उपाध्यायको स्वयंकी अपेक्षा निम्नासनपर बैठाकर अध्ययन करता है, उन अधम द्विजों एवं उनके अध्यापकको सिरपर शिला वहन करनी पड़ती है । जो जलमें मूत्र, कफ एवं मलका त्याग करते हैं, उन्हें दुर्गन्धयुक्त विष्टा और पीबसे पूर्ण विण्मूत्रनामक नरकमें गिराया जाता है ॥२९ - ३२॥ 
जो इस संसारमें श्राद्धके अवसरपर अतिथिके निमित्त तैयार किये गये पदार्थको परस्पर भक्षण कर लेते हैं, उन मूर्खोंको परलोकमें एक - दूसरेका मांस खाना पड़ता है । जो वेद, अग्नि, गुरु, भार्या, पिता एवं माताका त्याग करते हैं, उन्हें यमदूत गिरिशिखरके ऊपरसे नीचे गिराते हैं । जो विधवासे विवाह कराते, अविवाहित कन्याको दूषित करते एवं उक्त प्रकारसे उत्पन्न व्यक्तियोंकी सन्तानके यहाँ श्राद्धमें भोजन करते हैं, उन्हें कृमि तथा पिपीलिकाका भक्षण करना पड़ता है । जो ब्राह्मण चाण्डाल और अन्त्यजोंसे दक्षिणा लेते हैं उन्हें तथा उनके यजमानको पत्थरोंमें रहनेवाला स्थूल कीट बनना पड़ता है ॥३३ - ३६॥ 
राक्षस ! जो पीठपीछे शिकायत करते हैं - चुगली करते एवं घूस लेते हैं, उन्हें वृकभक्ष नामक नरकमें डाला जाता है । इसी प्रकार सोना चुरानेवाले, ब्रह्महत्यारे, मद्यपी, गुरुपत्नीगामी, गाय तथा भूमिकी चोरी करनेवाले एवं स्त्री तथा बालकको मारनेवाले मनुष्यों तथा गो, सोम एवं वेदका विक्रय करनेवाले, दम्भी, टेढ़ी भाषामें झूठी गवाही देनेवाले तथा पवित्रताके आचरणको छोड़ देनेवाले और नित्य एवं नैमित्तिक कर्मोंके नाश करनेवाले द्विजोंको महारौरव नामक नरकमें रहना पड़ता है ॥३७ - ४०॥ 
उपर्युक्त प्रकारके पापियोंको दस हजार वर्ष तामिस्त्र नरकमें तथा उतने ही वर्षोतक अन्धतामिस्त्र और असिपत्रवन नामक नरकमें रहनेके बादमें भी - उतने ही वर्षोतक घटीयन्त्र और तप्तकुम्भसें रहना पड़ता है । जिन भयंकर रौरव आदि नरकोंका हमने तुमसे वर्णन किया है, वे सभी लोक - निन्दित कृतघ्नोंकी बारी - बारीसे प्राप्त होते रहते हैं ॥४१ - ४३॥ 
जैसे देवताओंमें श्रीविष्णु, पर्वतोंमें हिमालय, अस्त्रोंमें सुदर्शन, पक्षियोंमें गरुड्च, महान् सर्पोंमें अनन्तनाग तथा भूतोंमें पृथ्वी श्रेष्ठ है; नदियोंमें गङ्गा, जलमें उत्पन्न होनेवालोंमें कमल, देव - शत्रु - दैत्योंमें महादेवके चरणोंका भक्त और क्षेत्रोंमें जैसे कुरुजांगल और तीर्थोंमें पृथूदक है; जलाशयोंमें उत्तरमानस, पवित्र वनोंमें नन्दनवन, लोकोंमें ब्रह्मलोक, धर्म - कार्योंमें सत्य प्रधान है तथा जैसे यज्ञोंमें अश्वमेध, छूनेयोग्य ( स्पर्शसुखवाले ) पदार्थोंमें पुत्र सुखदायक है; तपस्वियोंमें अगस्त्य, आगम शास्त्रोंमें वेद श्रेष्ठ है; जैसे पुराणोंमें मत्स्यपुराण, संहिताओंमें स्वयम्भूसंहिता, स्मृतियोंमें मनुस्मृति, तिथियोंमें अमावास्या और विषुवों अर्थात् मेष और तुला राशिमें सूर्यके संक्रमण संक्रान्तिके अवसरपर किया गया दान श्रेष्ठ होता है; ॥४४ - ४८॥
जैसे तेजस्वियोंमें सूर्य, नक्षत्रोंमें चन्द्रमा, जलाशयोंमें समुद्र, अच्छे राक्षसोंमें आप और निश्चेष्ट करनेवाले पाशोंमें नागपाश श्रेष्ठ है एवं जैसे धानोंमें शालि, दो पैरवालोंमें ब्राह्मण, चौपायोंमें गाय, जंगली जानवरोंमें सिंह, फूलोंमें जाती ( चमेली ), नगरोंमें काञ्ची, नारियोंमें रम्भा और आश्रमियोंमें गृहस्थ श्रेष्ठ हैं; जैसे सप्तपुरियोंमें द्वारका, समस्त देशोंमें मध्यदेश, फलोंमें आम, मुकुलोंमें अशोक और जड़ी - बूटियोंमें हरीतकी सर्वश्रेष्ठ हैं; हे निशाचर ! जैसे मूलोंमें कन्द, रोगोंमें अपच, श्वेत वस्तुओंमें दुग्ध और वस्त्रोंमें रुईके कपड़े श्रेष्ठ हैं ॥४९ - ५२॥
निशाचर ! जैसे कलाओंमें गणितका जानना, विज्ञानोंमें इन्द्रजाल, शाकोंमें मकोय, रसोंमें नमक, ऊँचे पेड़ोंमें ताड़, कमल - सरोवरोंमें पंपासर, बनैले जीवोंमें भालू, वृक्षोंमें वट, ज्ञानियोंमें महादेव वरिष्ठ हैं; जैसे सतियोंमें हिमालयकी पुत्री पार्वती, गौओंमें काली गाय, बैलोंमें नील रंगका बैल, सभी दुःसह कठिन एवं भयंकर नरकोंमें नृपातन वैतरणी प्रधान है, उसी प्रकार हे निशाचरेन्द्र ! पापियोंमें कृतघ्न प्रधानतम पापी होता है । ब्रह्महत्या एवं गोहत्या आदि पापोंकी निष्कृति तो हो जाती है, पर दुराचारी पापी एवं मित्रद्रोही कृतघ्नका करोड़ों वर्षोंमें भी निस्तार नहीं होता ॥५३ - ५६॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें बारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१२॥
 

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