लोमहर्षणने कहा - इस प्रकार स्तुति किये जानेपर समस्त प्राणियोंके दृष्टि - पथमें न आनेवाले भगवान् वासुदेव उसके सामने प्रकट हुए और उससे ( इस प्रकार ) बोले - ॥१॥ 
श्रीभगवान् बोले - धर्मज्ञे ( धर्मके मर्मको जाननेवाली ) अदिति ! तुम मुझसे जिन मनचाही कामनाओंकी पूर्ति चाहती हो, उन्हें तुम मेरी कृपासे प्राप्त करोगी, इसमें कोई संदेह नहीं । महाभागे ! सुनो, तुम्हारे मनमें जिन वरोंकी इच्छा है, उन्हें तुम मुझसे माँगो; क्योंकि मेरे दर्शन करनेका फल कभी व्यर्थ नहीं होता । तुम्हारे इस ( अदिति ) वनमें रहकर जो तीन रातोंतक निवास करेगा, उसकी सभी मनचाही कामनाएँ पूरी होंगी । जो मनुष्य दूर देशमें स्थित रहकर भी तुम्हारे इस वनका स्मरण करेगा, वह परम धामको प्राप्त कर लेगा । फिर यहाँ रहनेवाले मनुष्यको परम धामकी प्राप्ति हो जाय, इसमें क्या आश्चर्य ? जो मानव इस स्थानपर पाँच, तीन अथवा दो या एक ही ब्राह्मणको श्रद्धापूर्वक भोजन करायेगा, वह उत्तम गति ( मोक्ष ) - को प्राप्त करेगा ॥२ - ६॥ 
अदितिने कहा - भक्तवत्सल देव ! यदि आप मेरी भक्तिसे मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो मेरा पुत्र इन्द्र तीनों लोकोंका स्वामी हो जाय । असुरोंने उसके राज्यको तथा यज्ञमें मिलनेवाले भागको छीन लिया है । अतः वरदाता प्रभो ! आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो मेरा पुत्र उसे ( राज्यको ) प्राप्त कर ले । केशव ! मेरे पुत्रके राज्यके असुरोंद्वारा छीने जानेका मुझे दुःख नहीं है, किंतु ( उसके ) प्राप्त होनेवाले उचित भागका छिन जाना मेरे हदयकी कुरेद रहा है ॥७ - ९॥ 
श्रीभगवान् बोले - देवि ! तुम्हारी इच्छाके अनुकूल मैंने तुम्हारे ऊपर कृपा - प्रसाद प्रकट किया है । ( सुनो ), कश्यपसे तुम्हारे गर्भमें मैं अपने अंशसे जन्म लूँगा और तुम्हारी कोखसे जन्म लेकर फिर तुम्हारे जितने शत्रु हैं, उन ( सभी ) - का वध करुँगा । नन्दिनि ! तुम शोक छोड़कर स्वस्थ हो जाओ ॥१० - ११॥ 
अदितिने कहा - देवदेवेश ! आप ( मुझपर ) प्रसन्न हो । विश्वभावन ! आपको मेरा नमस्कार है । हे केशव ! हे ईश ! आप विश्वके उत्पत्ति - स्थान और ईश्वर हैं । जिन आप प्रभुमें सारा संसार प्रतिष्ठित है, उन आपके भारको मैं अपनी कोखमें वहन न कर सकूँगी ॥१२॥ 
श्रीभगवानने कहा - नन्दिनि ! मैं स्वयं अपना और तुम्हारा - दोनोंका भार वहन कर लूँगा; मैं तुम्हें पीड़ा नहीं करुँगा । तुम्हारा कल्याण हो, अब मैं जाता हूँ । यह कहकर भगवानके चले जानेपर अदितिने गर्भको धारण कर लिया । भगवान् ( कृष्ण ) - के गर्भमें आ जानेपर सारी पृथ्वी डगमगा गयी । बड़े - बड़े पर्वत हिलने लगे एवं विशाल समुद्र विक्षुब्ध हो गये । द्विजश्रेष्ठो ! अदिति जहाँ - जहाँ जाती या पैर रखती थीं, वहाँ - वहाँकी पृथ्वी खेद ( भार ) - के कारण झुक जाती थी । जैसा कि ब्रह्माने ( पहले ) बतलाया था, मधुसूदनके गर्भमें आनेपर सभी दैत्योंके तेजकी हानि हो गयी ॥१३ - १६॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें अट्ठाईसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥२८॥
 

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