लोमहर्षणने कहा - दैत्यपति बलि प्रह्लादकी इस प्रकार कठोर एवं अप्रिय उक्तिको सुनकर उनके चरणोंमें बार - बार सिर झुकाकर प्रणाम करते हुए मनाने लगा ॥१॥ 
बलिने कहा - तात ! आप मेरे ऊपर प्रसन्न हों, मैं मूढ़ हो गया था, मेरे ऊपर क्रोध न करें । बलके घमण्डसे विवेकहीन होनेके कारण मैंने यह वचन कहा था । दैत्यश्रेष्ठ ! मोहके कारण मेरी बुद्धि नष्ट हो गयी थी, मैं अधम हूँ । मैंने सदाचारका पालन नहीं किया, जिससे मुझ पापाचारीको आपने जो शाप दिया, वह बहुत ठीक किया । तात ! आप ( यतः ) मेरी उद्दण्डताके कारण बहुत दुःखी हैं, अतः मैं राज्यसे च्युत और अपनी कीर्तिसे रहित हो जाऊँगा । तात ! संसारमें तीनों लोकोंका राज्य, ऐश्वर्य अथवा अन्य किसी ( वस्तु ) - का मिलना बहुत कठिन नहीं है, परंतु आप - जैसे जो गुरुजन हैं, वे संसारमें दुर्लभ हैं । दैत्योंकी रक्षा करनेवाले तात ! आप प्रसन्न हों, क्रोध न करें । आपका क्रोध मुझे जला रहा है, इसलिये मैं दिन - रात ( आठों प्रहर ) संतप्त हो रहा हूँ ॥२ - ६॥
प्रह्लाद बोले - वत्स ! क्रोधके कारण हमें मोह उत्पन्न हो गया था और उसीने मेरी विचार करनेवाली बुद्धि भी नष्ट कर दी थी, इसीसे मैंने तुम्हें शाप दे दिया । महासुर ! यदि मोहवश मेरा ज्ञान दूर नहीं हुआ होता तो मैं भगवानको सब जगह विद्यमान जानता हुआ भी तुम्हें शाप कैसे देता । असुरश्रेष्ठ ! मैंने तुम्हें जो क्रोधवश शाप दिया है, वह तो तुम्हारे लिये होगा, किंतु तुम दुःखी मत हो; बल्कि आजसे तुम उन देवोंके भी ईश्वर भगवान् अच्युत हरिकी भक्ति करनेवाले बन जाओ - भक्त हो जाओ । वे ही तुम्हारे रक्षक हो जायँगे । वीर ! मेरा शाप पाकर तुमने देवेश्वर भगवानका स्मरण किया है, अतः मैं तुमसे वही कहूँगा, जिससे तुम कल्याणको प्राप्त करो ॥७ - ११॥
लोमर्हषणने कहा - ( उधर ) अदितिने सभी कामनाओंकी समृद्धि करनेवाले वरको प्राप्त कर लिया तब उसके उदरमें महायशस्वी देव ( भगवान् ) धीरे - धीरे बढ़ने लगे । इसके बाद दसवें महीनेमें जब प्रसवका समय आया तब भगवान् गोविन्द वामनाकारमें उत्पन्न हो गये । संसारके स्वामी उन अखिलेश्वरके अवतार ले लेनेपर देवता और देवमाता अदिति दुःखसे मुक्त हो गये । फिर तो ( संसारमें ) आनन्ददायी वायु बहने लगी, गगनमण्डल बिना धूलिका ( स्वच्छ ) हो गया एवं सभी जीवोंकी बुद्धि धर्म करनेमें लग गयी । द्विजोत्तमो ! उस समय मनुष्योंकी देहमें कोई घबड़ाइट नहीं थी और तब समस्त प्राणियोंकी बुद्धि धर्ममें लग गयी । उनके उत्पन्न होते ही लोकपितामह ब्रह्माने उनकी तत्काल जातकर्म आदि क्रिया ( संस्कार ) सम्पन्न करके उन प्रभुकी स्तुति की ॥१२ - १७॥ 
ब्रह्मा बोले - अधीश ! आपकी जय हो । अजेय ! आपकी जय हो । विश्वके गुरु हरि ! आपकी जय हो । जन्म - मृत्यु तथा जरासे अतीत अन्तत ! आपकी जय हो । अच्युत ! आपकी जय हो ! अजित ! आपकी जय हो । अशेष ! आपकी जय हो । अव्यक्त स्थितिवाले भगवन् ! आपकी जय हो । परमार्थर्थकी ( उत्तम अभिप्रायकी ) पूर्तिमें निमित्त ! ज्ञान और ज्ञेयके अर्थके उत्पादक सर्वज्ञ ! आपकी जय हो । अशेष जगतके साक्षी ! जगतके कर्ता ! जगदगुरु ! आपकी जय हो । जगत् ( चर ) एवं अजगत् ( अचर ) - के स्थिति, पालन एवं प्रलयके स्वामी ! आपकी जय हो । सभीके हदयमें रहनेवाले प्रभो ! आपकी जय हो । आदि, मध्य और अन्तस्वरुप ! समस्त ज्ञानकी मूर्ति, उत्तम ! आपकी जय हो । मुमुक्षुओंके द्वरा अनिर्देश्य, निंत्य - प्रसन्न करनेवाले योगियोंसे सेवित, दम आदि गुणोंसे विभूषित परमेश्वर ! आपकी जय हो ॥१८ - २२॥
हे अत्यन्त सूक्ष्म स्वरुपवाले ! हे दुर्ज्ञेय ( कठिनतासे समझमें आनेवाले ) ! आपकी जय हो । हे स्थूल और जगत - मूर्ति ! आपकी जय हो । हे सूक्ष्ममे भी अत्यन्त सूक्ष्म प्रभो ! आपकी जय हो । हे इन्द्रियोंसे रहित तथा इन्द्रियोंसे युक्त ( नाथ ) ! आपकी जय हो । हे अपनी मायासे योगमें स्थित रहनेवाले ( स्वामी ) ! आपकी जय हो । शेषकी शय्यापर सोनेवाले अविनाशी शेषशायी प्रभो ! आपकी जय हो । एक दाँतके कोनेपर पृथ्वीको उठानेवाले वराहरुपधारी भगवन् ! आपकी जय हो । हे देवताओंके शत्रु ( हिरण्यकशिपु ) - के वक्षः स्थलको विदीर्ण करनेवाले नृसिंह भगवान् तथा विश्वकी आत्मा एवं अपनी मायासे वामनका रुप धारण करनेवाले केशव ! आपकी जय हो । हे अपनी मायासे आवृत तथा संसारकी धारण करनेवाले परमेश्वर ! आपकी जय हो । हे ध्यानसे परे अनेक स्वरुप धारन करनेवाले तथा एकविध प्रभो ! आपकी जय हो । हरे ! आपने प्रकृतिके भाँति - भाँति विकार बढ़ाते हैं । आपकी वृद्धि हो । जगतका यह धर्ममार्ग आप प्रभुमें स्थित हैं ॥२३ - २७॥
हे हरे ! मैं शंकर, इन्द्र आदि देव, सनकादि मुनि तथा योगिगण आपको जाननेमें असमर्थ हैं । हे जगत्पते ! आप इस संसारमें मायारुपी वस्त्रसे ढके हैं । हे सर्वेश ! आपकी प्रसन्नताके बिना कौन ऐसा मनुष्य है जो आपको जान सके । प्रभो ! जो मनुष्य आपकी आराधना करता है और आप उसपर प्रसन्न होते हैं, वही आपको जानता है, अन्य नहीं । हे ईश्वरोके भी ईश्वर ! हे ईशान ! हे विभो ! हे भावन् ! हे विश्वत्मन् ! हे पृथुलोचन ! इस विश्वके प्रभव ( उत्पत्ति - सृष्टिके कारण ) विष्णु ! आपकी वृद्धि हो - जय हो ॥२८ - ३१॥
लोमहर्षणाने कहा - इस प्रकार जब वामनरुपमें अवतीर्ण भगवानकी स्तुति सम्पन्न हुई, तब हषीकेश भगवान् हँसकर अभिप्रायपूर्ण ऐश्वर्ययुक्त वाणीमें बोले - पूर्वकालमें आपने, इन्द्र आदि देवों तथा कश्यपने मेरी स्तुति की थी । मैंने भी आप लोगोंसे इन्द्रके लिये त्रिभुवनको देनेकी प्रतिज्ञा की थी । इसके बाद अदितिने मेरी स्तुति की तो उससे भी मैंने प्रतिज्ञा की थी कि मैं बाधाओंसे रहित तीनों लोकोंको इन्द्रको दूँगा । अतः मैं ऐसा करुँगा, जिससे हजारों नेत्रोंवाले ( इन्द्र ) संसारके स्वामी होंगे । मेरा यह कथन सत्य है ॥३२ - ३५॥ 
( हषीकेश भगवानके इस प्रकार अपने वचनकी सत्यता घोषित करनेके बाद ) ब्रह्माने हषीकेशको कृष्ण मृगचर्म समर्पित किया एवं भगवान् बृहस्पतिने उन्हें यज्ञोपवीत दिया । ब्रह्मपुत्र मरीचिने उन्हें पलाशदण्ड, वसिष्ठने कमण्डलु और अङ्गिराने रेशमी वस्त्र दिया । पुलहने आसन तथा पुलस्त्यने दो पीले वस्त्र दिये । ओंकारके स्वरसे अलंकृत वेद, सभी शास्त्र तथा सांख्ययोग आदि दर्शनोंकी उक्तियाँ उनका उपस्थान करने लगीं । समस्त देवताओंके मूर्तिरुप वामनभगवान् जटा, दण्ड, छत्र एवं कमण्डलु धारण करके बलिकी यज्ञभूमिमें पधारे ॥३६ - ३९॥
ब्राह्मणो ! पृथ्वीपर वामनभगवान् जिस - जिस स्थानपर डग रखते थे, वहाँकी दबी हुई भूमिमें दरार पड़ जाता था - गङ्ढा हो जाता था । मधुरभावसे धीरे - धीरे चलते हुए वामनभगवानने समुद्रों, द्वीपों तथा पर्वतोंसे युक्त सारी पृथ्वीको कँपा दिया । बृहस्पति भी शनैः - शनैः उन्हें सारे कल्याणकारी मार्गको दिखाने लगे एवं स्वयं भी क्रीडापूर्ण मनोरञ्जनके लिये अत्यन्त धीरे - धीरे चलने लगे । उसके बाद महानाग शेष रसातलसे ऊपर आकर देवदेव चक्रधारी भगवानकी सहायता करने लगे । आज भी वह श्रेष्ठ सर्पोंका बिल विख्यात है और उसके दर्शनमात्रसे नागोंसे भय नहीं होता ॥४० - ४४॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें तीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥३०॥
 

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