लोमहर्षणने कहा - बुद्धिमान् मार्कण्डेय ऋषिके इस उपर्युक्त वचनको सुनकर प्रवाहसे भरी हुई सरस्वती नदी कुरुक्षेत्रमें प्रविष्ट हुई । वह पवित्रसलिला सरस्वती नदी वहाँ रन्तुकमें जाकर कुरुक्षेत्रको जलसे प्लावित करती हुई, जो पश्चिम दिशाकी ओर चली गयी, वहाँ ( कुरुक्षेत्रमें ) हजारों तीर्थ ऋषियोंसे सेवित हैं । परमेष्ठी ( ब्रह्मा ) - के प्रसादसे मैं उनका वर्णन करुँगा । पापियोंके लिये भी तीर्थोंका स्मरण पुण्यदायक, उनका दर्शन पापनाशक और स्त्रान मुक्तिदायक कहा गया है ( पुण्यशालियोंके लिये तो कहना ही क्या है ) ॥१ - ४॥ 
जो श्रद्धापूर्वक तीर्थोंका स्मरण करते हैं और उनमें स्त्रान करते हैं तथा देवताओंको प्रसन्न करते हैं, वे परम गति ( मोक्ष ) - को प्राप्त करते हैं । ( मनुष्य ) अपवित्र हो या पवित्र अथवा किसी भी अवस्थामें पड़ा हुआ हो, यदि कुरुक्षेत्रका स्मरण करे तो वह बाहर तथा भीतरसे ( हर प्रकारके ) पवित्र हो जाता है । ' मैं कुरुक्षेत्रमें जाऊँगा और मैं कुरुक्षेत्रमें निवास करुँगा ' - इस प्रकारका वचन कहनेसे ( भी ) मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है । मानवोंके लिये ब्रह्मज्ञान, गयामें श्राद्ध, गौओंकी रक्षामें मृत्यु और कुरुक्शेत्रमें निवास - यह चार प्रकारकी मुक्ति कही गयी हैं ॥५ - ८॥
सरस्वती और दृषद्वती - इन दो देव - नदियोंके बीच देव - निर्मित्त देशको ब्रह्मावर्त कहते हैं । दूर देशमें स्थित रहकर भी जो मनुष्य ' मैं कुरुक्षेत्र जाऊँगा, वहाँ निवास करुँगा ' - इस प्रकार निरन्तर ( मनमें संकल्प करता या ) कहता है, वह भी सभी पापोंसे छूट जाता है । वहाँ सरस्वतीके तटपर रहते हुए सरोवरमें स्त्रान करनेवाले मनुष्यको निश्चित ब्रह्मज्ञान उत्पन्न हो जाता है । देवता, ऋषि और सिद्ध लोग सदा कुरुजाङ्गल ( तीर्थ ) - का सेवन करते हैं । उस तीर्थका नित्य सेवन करनेसे, ( वहाँ नित्य निवास करनेसे ), मनुष्य अपने भीतर ब्रह्मका दर्शन करता है ॥९ - १२॥ 
जो भी पापी चञ्चल मानव - जीवन पाकर जितेन्द्रिय होकर मोक्ष प्राप्त करनेकी कामनासे वहाँ निवास करते हैं, वे अनेक जन्मोंके पापोंसे छूट जाते हैं तथा अपने हदयमें रहनेवाले निर्मल देव - सनातन ( ब्रह्म ) - का दर्शन करते हैं । जो मनुष्य ब्रह्मवेदी, कुरुक्षेत्र एवं पवित्र ' संनिहित सरोवर ' का सदा सेवन करते हैं, वे परम पदको प्राप्त करते हैं । समयपर ग्रह, नक्षत्र एवं ताराओंके भी पतनका भय होता है, किंतु कुरुक्षेत्रमें मरनेवालोंका कभी पतन नहीं होता ॥१३ - १६॥ 
ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सराएँ और यक्ष उत्तम स्थानकी प्राप्तिके लिये जहाँ ( कुरुक्षेत्रमें ) निवास करते हैं, वहाँ जाकर स्थाणु नामक महासरोवरमें श्रद्धापूर्वक स्त्रान करनेसे मनुष्य निः संदेह मनोवाञ्छित फल प्राप्त करता है । नियम - परायण होनेके पश्चात् सरोवरकी प्रदक्षिणा करके रन्तुकमें जाकर बार - बार क्षमा - प्रार्थना करनेके बाद सरस्वती नदीमें स्त्रान कर यक्षका दर्शन करे और उन्हें प्रणाम करे तथा पुष्प, धूप एवं नैवेद्य देकर इस प्रकार वचन कहे - हे यक्षेन्द्र ! आपकी कृपासे मैं वनों, नदियों और तीर्थोंमें भ्रमण करुँगा; उसे आप सदा विघ्न - रहित करें ( मेरी यात्रामें किसी प्रकारका विघ्न न हो ) ॥१७ - २१॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें तैंतीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥३३॥
 

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