पुलस्त्यजी बोले - मेनाको रुप और गुणोंसे सम्पन्न तीन कन्याएँ उत्पन्न हुईं और चौथा सुनाभ नामसे विख्यात पुत्र उत्पन्न हुआ । मुने ! मेनाकी जेठी कन्या ' रागिणी ' नामकी थी, जो लाल अङ्गों तथा लाल आँखोवाली थी । वह लाल वस्त्रोंसे सुशोभित रहती थी । दूसरी ' कुटिला ' नामकी कन्या थी, जो सुन्दर शरीरवाली, कमलदलनयना, नीले एवं घुँघराले बालोंवाली थी तथा उज्ज्वल माला और उज्ज्वल वस्त्र धारण किये रहती थी । मेनाकी तीसरी कन्याका नाम था ' काली ' । उसका रंग नीले अञ्जनके ढेरके समान और आँखें नीले कमलके जैसी थीं । वह अत्यन्त सुन्दर थी ॥१ - ४॥
मुने ! वे तीनों कन्याएँ जन्मसे छः वर्षके बाद तपस्या करने चली गयीं । देवताओंने उन सुन्दरी कन्याओंको देखा, फिर आदित्य तथा वसुगण चन्द्रमाकी किरणोंके समान कान्तिवाली तपस्विनी ( मध्यमा कन्या ) कुटिलाको ब्रह्मलोकमें ले गये । उसके बाद सभी देवताओंने ब्रह्मासे कहा कि ब्रह्मन् ! आप बतलायें कि क्या यह कन्या महिषासुरको मारनेवाले पुत्रको जनेगी ? तब सुरपतिने कहा - यह बेचारी तपस्विनी शिवका तेज धारण करनेमें समर्थ नहीं हैं; इसे छोड़ दो ॥५ - ८॥
नारद ! उसके बाद कुपित होकर कुटिलाने ब्रह्मासे कहा - भगवन् ! शङ्करके दुर्धरणीय तेजको जैसे धारण कर सकूँ, मैं वैसा उपाय करुँगी । सत्तम ! आप सुनें, कठिनतर तपस्यासे जनार्दन भगवानकी उत्तम उपासना करके मैं उनके तेजको वैसे ही धारण करुँगी जिससे शङ्करका सिर नत कर दूँ । पितामह देव ! मैंने जो कहा है वह सत्य है, सत्य है; मैं वैसा ही करुँगी ॥९ - ११॥
पुलस्त्यजी बोले - महामुने ! उसके बाद आदिकर्ता सबके उपास्य पितामह भगवान् ब्रह्माने उग्र स्वभावशाली कुटिलासे कुपित होकर कहा - ॥१२॥
ब्रह्माने कहा - पापिनी कुटिले ! जिस कारण तुमने मेरे वचनको सहन नहीं किया, उसी कारण मेरे शापसे तुम निर्दग्ध होकर पूर्णतः जलमयी हो जाओगी । मुने ! इस प्रकार ब्रह्मासे अभिशप्त हिमालय - पुत्री ( कुटिला ) जलमयी होकर ( अपने ) वेगसे ब्रह्मलोकको जलसे आप्लावित करने लगी । पितामहने उसके उमड़कर बहते हुए जलकी धाराको देखकर ऋक, साम, अथर्व और यजुषकी स्तुतियोंका पाठ करके उसे स्तुतिद्वारा दृढ़ता - पूर्वक बाँध दिया । ब्रह्मन् ! जलमयी वह पर्वत्रपुत्री ब्रह्माकी विमल जटाको भिगोती हुई वहीं बद्ध ( अवरुद्ध ) हो गयी ॥१३ - १६॥
जो रागवती ( रागिणी ) नामवाली थो उसे भी देवतागण स्वर्गमें ले गये और उन्होंने ब्रह्माको उसे समर्पित कर दिया । उससे भी ब्रह्माने उसी प्रकार कहा । उसने भी क्रुद्ध होकर कहा - मैं निश्चय ही ऐसी कठिन तपस्या करुँगी, जिससे मेरे नामसे सम्बद्ध पुत्र महिषको मारनेवाला होगा । ब्रह्माने उसे भी शाप दिया - पापे ! देवोंसे भी अनुपेक्ष्य मेरे वचनको अहंकारवश न माननेसे तुम ' सन्ध्या ' हो जाओगी । मुनिश्रेष्ठ ! उसके बाद वह शैलतनया रागवती भी सन्ध्या हो गयी और स्वस्थ शरीर धारण कर कृत्तिकायोगकी प्रतीक्षा करने लगी ॥१७ - २०॥
( इस प्रकार ) दो कन्याओंको चली गयी जानकर तपस्विनी मेनाने ( तृतीय कन्या कालीको ) तपस्या करनेसे रोका । उसने ' उ ' ' मा ' ऐसा कहा । पितरोंकी पुत्री, कल्याणमयी माता ( मेना ) - ने कन्याका वही दो अक्षरोंसे संयुक्त ' उमा ' यह नाम रखा । उमा भी तपोवनमें चली गयी । उसके बाद उसने मनमें शूलपाणि वृषकेतु रुद्रका ध्यानकर कठिन तपस्या की । फिर ब्रह्माने देवताओंसे कहा - देवताओ ! तुम लोग हिमालयपर तप करती हुई हिमालयकी पुत्री कालीके पास जाओ और उसे यहाँ लिवा लाओ ॥२१ - २४॥
उसके बाद देवगण ( हिमालयपर ) आये और ( उन लोगोंने ) शैलनन्दिनीको देखा । परंतु उसके तेजसे व्यग्र ( व्याकुल ) हो जानेके कारण वे उसके तेजसे कान्तिहीन - से हो गये । वे ब्रह्मासे उसके तेजसा आधिक्य बतलाकर खड़े हो गये । उसके बाद ब्रह्माने कहा - वह निश्चय ही शङ्करकी पत्नी होगी; क्योंकि उसके तेजसे तुम सब आकुल और प्रभाहीन हो गये हो । अतः देवताओ ! तुम लोग चिन्ता छोड़कर अपने - अपने स्थानको जाओ । अब समझ लो कि युद्धमें तारकके साथ महिष मारा ( ही ) गया ॥२५ - २८॥
इस प्रकार ब्रह्माने जब इन्द्रके साथ सभी देवताओंसे कहा तब देवगण चिन्तारहित होकर उसी समय अपने - अपने स्थानपर चले गये । फिर पत्नीसहित पर्वतराज हिमवान् तपश्चर्यामें लगी हुई उमाको भी उस तपश्चर्यासे हटाकर उसे घर ले आये । महाज्ञानी महादेव भी निराश्रय नामके उस कठिन ( रौद्र ) व्रतका आश्रय लेकर मेरु आदि बड़े - बड़े पर्वतोंपर भ्रमण करने लगे । वे कभी पर्वतराज हिमाचलपर गये । हिमालयने उनकी श्रद्धासे पूजा की । उस रात उन्होंने वहीं निवास किया ॥२९ - ३२॥
दूसरे दिन पर्वतराज ( हिमालय ) - ने महादेवको निमन्त्रित किया ( और ) कहा - हे प्रभो ! आप तपस्या करनेके लिये यहीं रहें । हिमालयके इस प्रकार कहनेपर शङ्करने भी वही विचार किया और बिना घरका रहना छोड़कर आश्रममें रहने लगे । देवाधिदेव त्रिशूलधारी शङ्करके आश्रममें रहने लगे । देवाध्रिदेव त्रिशूलधारी शङ्करके आश्रममें रहनेपर गिरिराजकी कल्याणी कन्या काली उस स्थानपर आयी । अपनी प्रिया सतीको पुनः हिमतनया उमाके रुपमें उत्पन्न हुई और ( अपने ) सामने आयी देखकर शङ्करने उनके आनेका अभिनन्दन तो किया, पर वे फिर योगमें लीन हो गये ॥३३ - ३६॥
सुन्दर शरीरवाली हिमसुताने वहाँ जानेके बाद दोनों हाथ जोड़कर सहेलियोंके साथ शिवके दोनों चरणोंमें अभिवादन ( प्रणाम ) किया । उसके बाद शङ्करने देरतक गिरिकन्याको देखा और कहा - यह उचित नहीं है । ऐसा कहकर शङ्कर अपने गणोंके साथ तिरोहित हो गये ( छिप गये ) । भय उत्पन्न करनेवाले शङ्करके वचनको सुनकर आन्तरिक दुःखसे जलती हुई ज्ञानिनी उन पार्वतीने भी अपने पितासे कहा - तात ! पिनाक धारण करनेवाले शङ्करदेवकी आराधना एवं उत्कट तथा महान् तप करनेके लिये मैं विशाल वनमें जाऊँगी ॥३७ - ४०॥
पिताने कहा - ठीक है ! उसके बाद शङ्करकी आराधनाकी इच्छासे ललिता ( पार्वती ) उसी ( हिमालय ) पर्वतकी विस्तृत तलहटीमें तप करने लगीं । उस समय उनकी सहचरियाँ समिधा, कुश, फल - मूल आदि लाकर देवीकी सेवा करने लगीं । ( उन सहचरियोंने ) पार्वतीके विनोदके लिये तेजस्वी त्रिशूलधारी शङ्करकी मिट्टीकी मूर्ति बनायी । पार्वतीने भी कहा - सखियो ! ठीक है । ( फिर तो ) वे ( पार्वतीजी ) उसी मूर्तिकी पूजा करतीं और बार - बार उसे निहारती रहती थीं । उसके बाद उनकी श्रद्धासे त्रिपुरासुरको मारनेवाले शङ्कर प्रसन्न हो गये ॥४१ - ४४॥
उसके बाद पलाशका दण्ड, मुञ्जकी मेखला, यज्ञोपवीत, छत्र एवं मृगचर्म, हाथमें कमण्डलु लिये एवं शरीरमें भस्म रमाये हुए वे ( शङ्कर ) वटुके रुपमें एक - एक आश्रममें घूमते हुए कालीके आश्रममें पहुँचे । नारद ! उसके बाद सहचरियोंके साथ कालीने ( उनका ) प्रत्युत्थान किया और यथोचित पूजन कर उनसे यह पूछा - ॥४५ - ४७॥
उमाने कहा ( पूछा ) - अये भिक्षुक ! आप शीघ्र मुझे बतलायें कि आप कहाँसे आ रहे हैं ? आपका आश्रम कहाँ है एवं आप कहाँ जायँगे ? ॥४८॥
भिक्षुने कहा - पवित्र व्रतोंवाली बाले ! मेरा आश्रम वाराणसीमें है । अब मैं यहाँसे तीर्थयात्रामें पृथूदक जाऊँगा ॥४९॥
देवीने कहा - विप्रेन्द्र ! पृथूदकतीर्थमें आपको कौन - सा पुण्य प्राप्त होगा ? मार्गमें किन - किन तीर्थोंमें स्नान करनेसे आप कौन - कौन - सा फल प्राप्त कर चुके हैं ? ॥५०॥
भिक्षुने कहा - कृशोदरि ! मैंने पहले प्रयागमें स्त्रान किया, उसके बाद कुब्जाम्र, जयन्त, चण्डिकेश्वर, बन्धुवृन्द, कर्कन्ध, कनखलतीर्थ, सरस्वती, अग्निकुण्ड, भद्रा, त्रिविष्टप, कोनट, कोटीतीर्थ और कुब्जकमें निष्कामभावसे स्त्रान कर मैं तुम्हारे आश्रममें आया हूँ । यहाँपर स्थित रहनेवाली तुमसे वार्ता करनेके बाद मैं पृथूदकतीर्थमें जाऊँगा । मैं तुमसे जो कुछ पूछता हूँ, उसपर क्रोध न करना ॥५१ - ५४॥
कृशोदरि ! मैं बचपनमें भी शरीरको संयत कर तपस्यासे जो अपनेको सुखा रहा हूँ, वह तो ब्राह्मणोंके लिये प्रशंसनीय हैं । परंतु भीरु ! तुम इस प्रथम अवस्थामें ही क्यों उग्र तप कर रही हो ? ( इसमें मुझे ) शंका हो रही है । अयि स्थिरयौवने ! अयि विलासिनि ! प्रथम अवस्थामें स्त्रियाँ पतिके साथ सुन्दर भोगोंका भोग करती हैं । पर्वतपुत्रि ! चर और अचर सभी प्राणी तपस्यासे संसारमें रुप, उत्तम कुल और सम्पत्ति चाहते हैं, सो तो तुम्हें अधिक - से अधिक मात्रामें उपलब्ध हैं ही; फिर सौन्दर्य - साधनोंको छोड़कर तुमने जटा क्यों धारण कर ली है ? तुमने रेशमी वस्त्र छोड़कर वल्कल क्यों पहन लिया है ? ॥५५ - ५९॥
पुलस्त्यजी बोले - नारद ! उसके बाद तपस्यामें बढ़ी हुई पार्वतीकी सोमप्रभा नामकी सहचरीने उन भिक्षुसे वस्तुस्थिति कही ॥६०॥
सोमप्रभाने कहा - द्विजश्रेष्ठ ! पार्वती जिस हेतुसे तपस्या कर रही हैं, उसे सुनिये । ये काली ( तपस्याके बलसे ) शिवको अपना पति बनाना चाहती हैं ॥६१॥
पुलस्त्यजी बोले - सोमप्रभाकी बात सुनकर भिक्षुने सिर हिलाते हुए बड़े जोरसे हँसकर यह वचन कहा - ॥६२॥
भिक्षुकने कहा - पार्वति ! मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ; तुमको यह बुद्धि किसने दी ? पल्लवके सदृश तुम्हारा कोमल कर शङ्करके सर्पयुक्त हाथसे कैसे मिलेगा ? कहाँ तुम सुन्दर वस्त्र धारण करनेवाली और वहाँ व्याघ्रचर्म धारण करनेवाले ये रुद्र ! कहाँ तुम चन्दनसे चर्चित और कहाँ भस्मसे भूषित शङ्कर ! अतः मुझे यह मेल अनुरुप नहीं प्रतीत होता ॥६३ - ६४॥
पुलस्त्यजी बोले - विप्रेन्द्र ! भिक्षुकके इस प्रकार कहनेपर पार्वती ने उससे कहा - भिक्षुक ! तुम ऐसी बात मत बोलो । शङ्कर सब गुणोंमें श्रेष्ठ हैं । वे देव श चाहे मङ्गलमूर्ति हों या भयङ्कत रुप, धनी हों या निर्धन तथा अल्ङ्कार - सम्पन्न हों अथवा अलङ्कार - विहीन - वे जैसे - तैसे ही क्यों न हों - पर वे ही मेरे स्वामी होंगे । ( सहचरीको निर्देश कर ) शशिप्रभे ! इसे ( भिक्षुकको ) मना करो । यह पुनः कुछ कहना चाहता है; क्योंकि इसके ओठ फड़क रहे हैं । देखो, निन्दा करनेवाला व्यक्ति वैसा पापी नहीं होता जैसा कि निन्दाकी बात सुननेवाला होता है ॥६५ - ६७॥
पुलस्त्यजी ( पुनः ) बोले - इस प्रकार कहकर वरदायिनी पार्वतीने ( ज्यों ही ) वहाँसे उठकर जाना चाहा त्यों ही शङ्कर ( बनावटी ) भिक्षुरुपको छोड़कर अपने वास्तविक रुपमें हो गये । वे अपने वास्तविक रुपमें आनेपर बोले - प्रिये ! अपने गृह जाओ । मैं हिमवानके घर तुम्हारे लिये महर्षियोंको भेजूँगा । रुद्रकी कामना करनेवाली तुमने यहाँ जिन पार्थिव रुपको ईश्वर माना है, वे संसारमें भदेश्वर नामसे प्रसिद्ध होंगे । देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, उरग एवं मनुष्य जो भी कल्याणकी कामना करनेवाले होंगे, वे सदा उनकी पूजा करेंगे ॥६८ - ७१॥
मुने ! शङ्करके इस प्रकार कहनेपर हिमालय - पुत्री पार्वतीजी आकाशमार्गसे अपने पिताके घर चली गयीं । महातेजस्वी शङ्कर भी पर्वतराजकी कन्याको विदाकर पृथूदक नामके तीर्थमें चले गये और वहाँ जाकर उन्होंने यथाविधि स्त्रान किया । उसके बाद देवोंमें प्रधान महेश्वर गणों एवं वाहनके सहित महान् मन्दर गिरिपर आ गये । सात ब्रह्मर्षियों ( सप्तर्षियों ) तथा अपने गणोंके साथ त्रिपुरासुरको मारनेवाले शङ्करके आ जानेपर पर्वतश्रेष्ठ मन्दर क्षणभरमें ही प्रसन्नचित्त हो गया । पर्वतराजने दिव्य फलों, मूलों, कन्दों एवं पवित्र जलसे समस्त गणेश्वरोंके साथ भगवान् शङ्करकी पूजा की ॥७२ - ७५॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें इक्यावनवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥५१॥