पुलस्त्यजी बोले - मुने ! मन्दगिरिपर रहते हुए और इच्छानुसार भ्रमण करते हुए शङ्करने विश्वकर्माको आवाहित कर कहा - विश्वकर्मन् ! मेरे लिये गृह बना दो । उसके बाद विश्वकर्माने शङ्करके लिये चौंसठ योजन विस्तृत स्वर्णनिर्मित तथा स्वस्तिक चिह्नोंसे युक्त गृहका निर्माण किया । उसमें हाथीके दाँतोंके तोरण तथा मोतियोंकी सुन्दर झालरें लगी हुई थीं और वैडूर्यमणिसे जटित शुद्ध - स्फटिककी सीढ़ियाँ थीं । सात कक्षोंवाला वह लम्बा - चौड़ा घर सभी गुणोंसे भरा - पूरा था । घर बन जानेके बाद देवाधिदेवने गृहस्थ आश्रमके उपयुक्त यज्ञकर्म सम्पन्न किया ॥१ - ४॥
शङ्कर भगवान् पहलेके श्रेष्ठ जनोंद्वारा आचरित ( धर्म्य ) पथका अनुसरण करने लगे । मुने ! त्रिनेत्रके इस प्रकार रहते हुए बहुत समय बीत गया । पार्वतीके साथ धर्मके अनुसार व्यवहार करते हुए जगत्स्वामी शङ्करने किसी समय विनोदमें गिरिजाको ' काली ' कह दिया । क्रोधसे भरकर पार्वतीने शङ्करसे कहा - ( देखिये प्रभु ! ) बाणसे बिंधा हुआ घाव भर जाता है और कुल्हाड़ीसे काटा हुआ वन पुनः हरा - भरा हो जाता हैं; किंतु वाणीसे किया गया दोषपूर्ण तथा बीभत्स घाव नहीं भरता । मुखसे निकले हुए वाग्बाणोंसे घायल प्राणी दिन - रात चिन्ता करते रहते हैं; अतः पण्डितजनोंको उन्हें ( कुवाच्य - वाक्य - बाणोंको ) नहीं प्रयुक्त करना चाहिये । आज आपने उस वाड्मयधर्मको व्यर्थ कर दिया ॥५ - ८॥
देवेश्वर ! इसलिये मैं सर्वोत्तम तपस्या करने जा रही हूँ । मैं कठोर परिश्रम करके ऐसा उपाय करुँगी जिससे आप फिर मुझे ' काली ' - ऐसा न कहेंगे । इस प्रकार किया एवं उनसे आदेश लेकर आकाशमें चली गयीं और वे उड़कर मङ्गलमय हिमालयकी चोटीपर पहुँची । वह हिमालयकी चोटी ऐसी थी जैसे विधाताने प्रयत्नपूर्वक टाँकीसे काटकर निर्माण किया हो । ( आकाशसे पर्वतपर ) उतरकर ( उन्होंने ) जया, विजया, जयन्ती तथा चौथी महापुण्या अपराजिताका स्मरण किया ॥९ -१२॥
( पार्वतीके ) स्मरण करते ही वे ( आहूत ) देवियाँ कालीको देखनेके लिये आ गयीं । ( और ) वे कल्याणकारिणी सखियाँ देवीकी आज्ञा पाकर उनकी सेवा करने लगीं । उसके बाद पार्वतीके तपस्यामें लग जानेपर हिमालयके वनसे आयुधके काममें आनेवाले दाँतों और नखोंके आयुधवाला एक बाघ उस स्थानपर आया । पार्वतीको एक पैरपर खड़ी देखकर बाघने सोचा कि जब यह गिरेगी तो मैं अवश्य ही इसे पा जाऊँगा । इस प्रकार सोचता हुआ वह मृगोंका स्वामी पार्वतीके मुखको एकटक देखने लगा ॥१३ - १६॥
उसके बाद सौ वर्षोंतक ब्रह्ममन्त्रका जाप करती हुई देवीने तपस्या की । तब स्वर्ग, पृथ्वी तथा पातालके स्वामी ब्रह्मा उपस्थित हुए । ब्रह्माने देवीसे कहा - सनातनि ! मैं प्रसन्न हूँ । तुम तपस्या करके निष्पाप हो गयी हो । इच्छानुकल वर माँगो । इसके बाद कालीने कहा - हे कमलजन्मा ( ब्रह्माजी ) ! इस व्याघ्रको आप वर दें । इससे मैं उत्तम सुख प्राप्त करुँगी । तब ब्रह्माजीने उस अलौलिक कर्म करनेवाले व्याघ्रकी गणनायक हो जाने, शङ्करकी भक्ति प्राप्त करने एवं किसीसे न जीते जाने और धार्मिक हो जानेका वर दिया ॥१७ - २०॥
इस प्रकार व्याघ्रको वर देकर ( उन्होंने ) शिवकान्ता ( पार्वती ) - से कहा - अम्बिके ! तुम ( भी ) शान्त चित्तसे वर माँगो । मैं तुम्हें ( भी ) वर दूँगा । उसके बाद गिरिनन्दिनी पार्वती देवीने पितामहसे कहा - ब्रह्मन् ! मुझे यही वर दीजिये कि मेरा वर्ण सुवर्णके समान हो जाय । ब्रह्मा ' ऐसा ही हो ' कहकर चले गये । पार्वती भी अपने शरीरका कालापन त्यागकर कमलके केसरके समान हो गयीं । मुने ! उस कृष्ण कोशस्से फिर कात्यायनी उत्पन्न हुई । हजार आँखोंवाले इन्द्रने उनके पास जाकर दक्षिणा ग्रहण की और अपने लिये गिरिजासे यह वचन कहा ॥२१ - २४॥
इन्द्रने कहा - आप इसे मेरे लिये दे दें । यह कौशिकी मेरी बहन बनेगी । आपके कोशसे उत्पन्न होनेके कारण यह ' कौशिकी ' हुई और मैं भी कौशिक हुआ । उसे मैंने दे दिया - इस ( प्रतिज्ञा - वचन ) - को सुननेके बाद उस रुपवती कौशिकीको लेकर देवराज इन्द्र शीघ्रतापूर्वक विन्ध्यपर्वतपर चले गये । इसके बाद वहाँ जाकर ( उन्होंने उससे ) कहा - महाबले ! तुम यहाँ रहो । देवताओंद्वारा आराधित होती हुई तुम ' विन्ध्यवासिनी ' नामसे प्रसिद्ध होगी । इन्द्रने देवीको वहाँ स्थापितकर उनके वाहनके लिये ( उन्हें ) सिंह दे दिया और तुम देवताओंके शत्रुओंको मारनेवाली बनो - ऐसा कहकर वे स्वर्ग चले गये ॥२५ - २८॥
मुने ! उमादेवी भी उस वरको प्राप्त करके मन्दर पर्वतपर चली गयीं और महेशको प्रणाम कर विनीतभावसे रहने लगीं । मुने ! उसके पश्चात् पार्वतीके साथ श्रीमान, अव्यय देवगुरु एक हजार वर्षोंतक महामोहनक ( सुरतक्रीडामें ) स्थित रहे । रुद्रदेवके महामोहमें स्थित होनेपर समस्त भुवन क्षुब्ध होकर विचलित हो गयें । सातों सागर खलबला उठे और देवगण भयभीत हो गये । तब देवता लोग इन्द्रके साथ ब्रह्मलोक गये और महेशान ( ब्रह्मा ) - को प्रणाम कर बोले - यह जगत् क्यों अशान्त हो गया है - यह क्या बात है ? ॥२९ - ३२॥
( ब्रह्माने ) उन देवताओंसे कहा - निश्चय ही महादेव महामोहनक ( सुरतलीला ) - में स्थित हैं । उन्हींसे आक्रन्त होनेके कारण यह सारा जगत् अत्यन्त क्षुब्ध हो रहा है । इतना कहकर वे चुप हो गये । तब देवताओंने इन्द्रसे कहा - शक्र ! जबतक वह ( महामोहनक ) समाप्त नहीं हो जाता, तभीतक हम लोग उन ( महेश्वर ) - के पास चलें । मोह समाप्त हो जानेपर उत्पन्न होनेवाले अविनाशी बालक निश्चय ही देवराजके ऐन्द्रपदका हरण कर लेगा । उसके बाद भवितव्यतावश देवताओंके वचनसे बलघाती ( इन्द्र ) - का विवेक एवं भयके कारण ज्ञान ( भी ) नष्ट हो गया ॥३३ - ३६॥
तब हजार आँखवाले इन्द्र अग्नि और देवताओंके साथ मन्दर पर्वतपर गये एवं उस पर्वतकी ऊँची चोटीपर बैठ गये; परंतु वे सभी महादेवके भवनमें प्रवेश न पा सके । अधिक समयतक आपसमें विचार - विमर्श कर उन लोगोंने अग्निदेवको ( इनके पास ) भेजा । सुरश्रेष्ठ अग्निदेव वहाँ गये और द्वारपर नन्दीको देखकर एवं वहाँ प्रवेश पाना कठिन समझकर चिन्ता - सागरमें डूब गये । शोक - सागरमें डूबे हुए उन्होंने शम्भुके भवनसे निकल रही हंसोंकी विमल लम्बी कतार देखी ॥३७ - ४०॥
यही उपाय है - ऐसा कहकर वे अग्निदेव द्वारपालको भुलावा देकर महादेवके गृहमें हंसरुपमें प्रविष्ट हो गये । प्रवेश करनेके पश्चात् सूक्ष्म शरीर धारण करनेवाले अग्निदेवने महादेवके सिरके पास हँसते हुए गम्भीर स्वरमें कहा - ( प्रभो ! ) देवता लोग दरवाजेपर खड़े हैं । ( पुलस्त्यजी बोले ) नारदजी ! महादेवजी उस बातको सुनकर उसी समय सहसा उठे और हिमालयकी कन्याको छोड़कर अग्निके साथ आँगनसेक निकल आये । सुरपति शङ्करके निकल जानेपर इन्द्रसहित चन्द्र, सूर्य और अग्नि आदि सभी देवताओंने हर्षित मनवाले होकर पृथ्वीपर सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया । उसके बाद ( भगवान् महादेवने ) प्रेमपूर्वक देवताओंसे कहा - देवताओ ! आप लोग मुझे शीघ्र अपना कार्य बतायें । मैं नम्रतापूर्वक प्रणाम करनेवाले आप लोगींको उत्तम वर दूँगा ॥४१ - ४५॥
देवताओंने कहा - ईश्वर ! यदि आप प्रसन्न हैं और हम देवताओंको वर देना चाहते हैं तो आप इस महासुरतलीलाका परित्याग कर दें ॥४६॥
ईश्वरने कहा - देवश्रेष्ठो ! ऐसा ही होगा । मैंने आसक्ति छोड़ दी । किंतु कोई देवता मेरे इस बढ़े हुए तेज ( शुक्र ) - को ग्रहण करे ॥४७॥
पुलस्त्यजी बोले - शम्भुके इस प्रकार कहनेपर ( प्रकृत समस्यासे ) इन्द्रके साथ चन्द्रमा एवं सूर्य आदि देवता कीचड़में फँसे हुए हाथीके समान दुखी हो गये । देवताओंके इस प्रकार दुखी हो जानेपर अग्निने ( साहस कर ) शङ्करके पास जाकर कहा - शङ्कर ! आप ( अपने ) तेजको छोड़ें - बाहर करें । मैं उसे ग्रहण करुँगा । उसके बाद भगवानने ( तेजको ) छोड़ दिया और उस त्यक्त रेतसको जैसे जलका प्यासा व्यक्ति तेल पी जाता है, अग्निदेवने उसी प्रकार ( उसे ) पी लिया । अग्निदेवद्वारा शङ्करके तेजको इस प्रकार पी लिये जानेपर देवता लोग स्वस्थ हो गये और महादेवसे अनुमति लेकर स्वर्गमें लौट गये ॥४८ - ५१॥
देवताओंके स्वर्ग चले जानेपर महादेवने भी अपने मन्दिरमें जाकर महादेवीसे यह वचन कहा - देवि ! देवोंने यहाँ आकर युक्तिसे अग्निको मेरे निकट भेजकर मुझे बुलाया और तुम्हारी कोखसे पुत्र न जननेके लिये कहा । पुत्र न जननेकी बात पतिसे सुनकर क्रोधसे शिवाकी आँखें लाल हो गयीं और ( उन्होंने ) समस्त देवताओंको शाप दे दिया; यतः वे दुष्ट मेरे उदरसे पुत्र की उत्पत्ति नहीं चाहते; अतः वे भी अपनी पत्नियोंसे पुत्री नहीं उत्पन्न करेंगे ॥५२ - ५५॥
इस तरह देवताओंको शाप देकर तपोधना गौरी शुद्धिशालामें गयीं और मालिनीको बुलाकर स्त्रान करनेका विचार किया । सुन्दरी मालिनी सुगन्धयुक्त मुलायम उबटन लेकर देवीके सोने - जैसे कान्तिवाले शरीरमें ( उसे ) दोनों हाथोंसे लगाने लगी । ( उबटन लगाते समय पसीनेस्से मिला उबटनका मैल देखकर ) पार्वतीजी ( अपने मनमें ) विचार करने लगीं कि ( देखूँ कि ) इस स्वेदमें क्या गुण हैं । मालिनी स्त्रान ( कराने ) - के लिये शीघ्र स्त्रानगृहमें ( पहले ) चली गयी । उसके चले जानेपर शैलपुत्रीने ( उस ) मैलसे गजवदनको बनाया । चार भुजावाले, चौड़ी छातीवाले, सुन्दर लक्षणोंसे युक्त पुरुषको बनाकर उसे भूमिपर रख दिया और वे स्वयं पुनः उत्तम आसनपर बैठ गयीं ॥५६ - ५९॥
उस समय मालिलीने हँसते हुए देविको सिरसे स्त्रान कराया । नारदजी ! मालिनीको मुस्कराते हुए देखकर देवीने कहा - भीरु ! तुम धीरे - धीरे इतना क्यों हँस रही हो ? मालिनीने कहा - मैं इसलिये हँस रही हूँ कि आपको ( अवश्य पुत्र होगा, ऐसा महादेवने गणपति नन्दीसे कहा था । कृशोदरि ! उसे सुनकर ( स्मरण कर ) आज मुझे हँसी आ गयी है; क्योंकि देवताओंने शङ्करको पुत्रके लिये इच्छा करनेके रोक दिया है । इस बातको सुनकर देवीने ( फिर ) वहाँ विधिपूर्वक स्त्रान किया ॥६० - ६३॥
स्त्रान करनेके बाद भक्तिसे शङ्करकी अर्चना कर देवी घरकी ओर चलों । उसके बाद महादेवने भी आकार उसी पवित्र आसनपर स्त्रान किया । उसी आसनके नीचे वह जल तथा भस्ममे युक्त शङ्करके स्वेदका सम्मिश्रण होनेसे वह उत्तम शुण्डसे फूत्कार करते नन्दीसे कहा - ( यह मेरा पुत्र है ) । स्त्रान करनेके बाद शिवने स्तुतियोंसे देवताओंकी तथा जलसे ( नित्य ) पितरोंकी भी अर्चना की ॥६४ - ६७॥
वे सहस्त्रनामका जप कर उमाके निकट गये । देवीके निकट जाकर शूल धारण करनेवाले शङ्करने हँसते हुए यह वचन कहा - शैलजे ! तुम अपने गुणवान् पुत्रको देखो । इस प्रकार कहे जानेपर पार्वतीने जाकर यह आश्चर्य देखा कि उनके शरीरके मलसे अलौलिक सुन्दर हाथीके मुखवाला पुरुष हो गया है । उसके बाद गिरिजाने प्रसन्नतापूर्वक उस पुत्रको आलिङ्गित किया । उसके सिरको सूँघकर शम्भुने उमासे कहा - देवि ! तुम्हारा यह पुत्र बिना नायकके उत्पन्न हुआ है, अतः इसका नाम ' विनायक ' होगा । यह देवादिकोंके सहस्त्रों विघ्नोंका हरण करेगा ॥६८ - ७२॥
देवि ! सारा चर और अचर जगत् इसकी पूजा करेगा । देवीसे इस प्रकार कहकर उन्होंने पुत्र विनायकके लिये घटोदर नामके श्रेष्ठ गणको दे दिया । फिर देवीके प्रेमसे घोर मातृगणों तथा विघ्नकारी भूतोंको अधीनतामें कार्य करनेवाला बना दिया - परमेशने उन सबकी सृष्टि की । अपने पुत्रको देखकर पार्वती देवीको भी परम प्रसन्नता प्राप्त हुई । इसके बाद देवी शम्भुके साथ सुन्दर कन्दराओंवाले मन्दराचलपर विचरण करने लगीं । विभो ! यह देवी फिर कात्यायनी हुईं, जिन्होंने प्राचीन कालमें शुम्भ और निशुम्भ नामके दो महान् दैत्योंका विनाश किया । ( पुलस्त्यजी प्रकृत प्रसङ्गका उपसंहार करते हुए कहते हैं कि - ) मृडानी जैसे पर्वतसे उत्पन्न हुई, उस शुभ आख्यानको मैंने आपसे कहा । पर्वतनन्दिनीका यह आख्यान स्वर्ग एवं यशको देनेवाला, पापका हरण करनेवाला एवं ओजस्वी हैं ॥७३ - ७७॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें चौवनवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥५४॥