पुलस्त्यजी बोले - द्विजसत्तम ! कश्यपकी दनु नामकी पत्नी थी । उसके इन्द्रसे अधिक बलशाली तीन पुत्र थे । उनमे बड़ेका नाम था शुम्भ, मझलेका नाम निशुम्भ और महाबलशाली तृतीय पुत्रका नाम नमुचि था । इन्द्रने हाथमें वज्र धारणकर नमुचि नामसे विख्यात ( उस ) दनुपुत्र असुरको मारना चाहा; तब नमुचि इन्द्रको आते देखकर उनके भयसे सूर्यके रथमें प्रवेश कर गया । इससे इन्द्र उसे मार न सके ॥१ - ४॥
नारद ! इसके बाद महात्मा इन्द्रने उससे समझौता कर लिया और उसे अस्त्र - शस्त्रोंसे न मारे जानेका वर दे दिया । नारदजी ! उसके बाद तो वह ( नमुचि ) अपनेको अस्त्र - शस्त्रोंसे न मारे जानेवाला जानकर सूर्यके रथको त्यागकर पाताललोकमें चला गया । उस दानवपतिने जलमें स्त्रान करते हुए समुद्रके उत्तम फेनको देखा और उसे ग्रहण कर यह वचन कहा - ' देवराज इन्द्रने जो वचन कह है वह सफल हो । यह फेन मेरा स्पर्श करें । ' ऐसा कहकर वह दानव दोनों हाथोंसे फेन उठाकर अपनी इच्छाके अनुसार उससे अपने मुख, नाक और कर्ण आदिका मार्जन करने लगा । उस ( फेन ) - में छिपे हुए इन्द्रदेवने वज्रकी सृष्टि की ॥५ - ९॥
उससे उसकी नाक और मुख भग्न हो गये और वह गिर पड़ा तथा मर गया । प्रतिज्ञाके भङ्ग हो जानेसे इन्द्रको ब्रह्महत्याका पाप लगा । ( फिर ) वे तीर्थोंमें जाकर स्त्रान करनेसे पापमुक्त हुए । उसके बाद ( नमुचिके मर जानेपर ) शुम्भ और निशुम्भ नामके उसके दो वीर भाई अत्यन्त कुपित हुए । वे दोनों बहुत बड़ी तैयारी कर देवताओंको मारनेके लिये चढ़ आये । ( फिर तो ) वे सभी देवता भी इन्द्रको आगे कर निकल पड़े । उन दोनों दैत्योंने धावा बोलकर सेना और अनुचरोंके साथ देवताओंको पराजित कर दिया । दानवोंने आक्रमणकर इन्द्रके हाथी, यमके महिष, वरुणके मणिमय छत्र, वायुकी गदा तथा पद्म और शङ्ख आदि निधियोंको भी छीन लिया ॥१० -१४॥
नारदजी ! उन दोनोंने तीनों लोकोंको अपने अधीन कर लिया । तब वे सभी ( देवतालोग ) पृथ्वीतलपर आ गये तथा उन लोगोंने रक्तबीज नामके एक महान् असुरको देखा और उससे पूछा - आप कौन हैं ? उसने उत्तर दिया - विभो ! मैं महिषासुरका मन्त्री एक दैत्य हूँ । मैं रक्तबीज नामसे विख्यात महापराक्रमी एवं विशाल भुजाओंवाला ( दैत्य ) हूँ । सुन्दर, श्रेष्ठ ओर विशाल भुजाओंवाले चण्ड और मुण्ड नामसे विख्यात, महिषके दो मन्त्री देवीके डरसे जलमें छिप गये हैं । महादेवीने सुविस्तृत विन्ध्यपर्वतपर हमारे स्वामी महिष नामके दानवको मार डाला है । फिर ( देवताओंने पूछा - ) आप लोग ( हमें ) यह बतलावें कि आप दोनों किसके पुत्र हैं तथा आप लोग किस नामसे विख्यात हैं ? ( और आप दोनों यह भी बतलावें कि ) आप लोगोंमें कितना बल एवं प्रभाव हैं ? ॥१५ - १९॥
शुम्भ और निशुम्भने कहा - ( पहले शुम्भ बोला - ) मैं दनुका औरस पुत्र हूँ और शुम्भ नामसे प्रसिद्ध हूँ । यह मेरा छोटा भाई है । इसका नाम निशुम्भ है यह । शत्रुसमूहका विनाश करनेवाला ( वीर ) है । इसने इन्द्र, रुद्र, दिवाकर आदि देवताओं तथा अन्य अनेक अत्यन्त बलशाली वीरोंको भी ( बहुत बार चढ़ाई करके ) पराजित कर दिया है । अब तुम बतलाओ कि किस देवीने दैत्य महिषासुरको मार दिया है ? हम दोनों अपनी सेनाओंको साथ लेकर उस देवीका विनाश करेंगे । मुने ! नर्मदाके किनारे इस प्रकार दोनोंके बात करते समय चण्ड और मुण्ड नामके दोनों दानव जलसे बाहर निकल आये ॥२० - २३॥
उसके बाद असुरश्रेष्ठ उन दोनोंने रक्तबीजके निकट जाकर मधुर शब्दोंमें पूछा - तुम्हारे सामने यह कौन खड़ा है ? उसने उन दोनोंसे कहा - यह देवताओंको कष्ट देनेवाला शुम्भ नामका दैत्य है एवं यह दूसरा इसका छोटा भाई निशुम्भ है । मैं निश्चय ही इन दोनोंकी सहायतासे उस तीनों लोकोंमें रत्नस्वरुपा , ( पर ) दुष्टासे विवाह करुँगा, जिसने महिषासुरका विनाश किया है ॥२४ - २६॥
चण्डने कहा - आपका कहना उचित नहीं हैं; ( क्योंकि ) आप अभी उस रत्नके योग्य नहीं हैं । राजा ही रत्नके योग्य होता है । अतः शुम्भके लिये ही यह संयोग बैठाइये । उसके बाद उन्होंने शुम्भ और निशुम्भसे उस प्रकार सम्पन्न स्वरुपवाली कौशिकीका वर्णन किया । तब शुम्भने अपने दूत सुग्रीव नामके दानवको विन्ध्यवासिनीके समीप भेजा । वह महान् असुर सुग्रीव वहाँ गया एवं देवीकी बात सुनकर क्रोधसे तिलमिला उठा । फिर उसने आकर निशुम्भ और शुम्भसे कहा ॥२७ - ३०॥
सुग्रीवने कहा - दैत्यनायको ! आप लोगोंके कथनके अनुसार देवीसे ( संवाद ) कहनेके लिये मैं गया था । मैंने आज ही जाकर उससे कहा कि भाग्यशालिनि ! सुप्रसिद्ध दानवश्रेष्ठ शुम्भने तुमसे कहा है कि - मैं तीनों लोकोंका समर्थ स्वामी हूँ । सुन्दरि ! स्वर्ग, पृथ्वी एवं पातालके सारे रत्न मेरे घरमें सदा भरे रहते हैं । कृशोदरि ! चण्डऔर मुण्डने तुम्हें रत्नस्वरुपा बतलाया है । अतः तुम मेरा या मेरे छोटे भाई निशुम्भका वरण करो ॥३१ - ३४॥
( उसके बाद ) हँसती हुई उसने मुझसे कहा कि सुग्रीव ! मेरी बात सुनो । तुमने यह ठीक कहा है कि तीनों लोकोंका स्वामी शुम्भ रत्नके अर्ह ( उपयुक्त ) है । परंतु महासुर ! मुझ अविनीताके हदयकी यह अभिलाषा है कि युद्धमें मुझे पराजित करनेवाला ही मेरा पति हो । उतरमें ( तब ) मैंने ( उससे ) कहा कि तुम्हें घमण्ड हो गया है । भला जिस असुरने सारे देवताओंझ और राक्षसोंको पराजित कर अपने अधीन कर लिया है वह तुम्हें क्यों नहीं पराजित कर देगा ? इसलिये अये क्रोधवाली ! तुम उठो - बात मान लो । उसके बाद उसने मुझसे कहा - मैं क्या करुँ ? बिना विचार किये ही मैंने इस प्रकारका पण कर लिया है । अतः ( तुम ) जाकर शुम्भसे मेरी बात कहो । फलतः महासुर ! उसके इस प्रकार कहनेपर मैं आपके निकट आ गया हूँ । वह जलती हुई आगकी लौकी भाँति तेजस्विनी है; यह जानकर आप जैसा उचित हो, वैसा कार्य करें ॥३५ - ३९॥
पुलस्त्यजी बोले - सुग्रीवकी इस बातको सुनकर उस महान् असुर शुम्भने कुछ दूरपर खड़े धूम्रलोचन दानवसे कहा ॥४०॥
शुम्भने कहा - धूम्राक्ष ! तुम जाओ । उस दुष्टाको अपराधिनी दासीकी तरह केश खींचनेस्से व्याकुल बनाकर यहाँ शीघ्र ले आओ । यदि कोई पराक्रमी उसका पक्ष ले तो बिना विचारे उसे मार डालना - चाहे ब्रह्मा ही क्यों न हो । शुम्भके इस प्रकार कहनेपर उस महान् तेजस्वी धूम्राक्षने छः सौ अक्षौहिणी सेनाके साथ विन्ध्य पर्वतपर चढ़ाई कर दी । किन्तु वहाँ उन दुर्गाको देखकर दृष्टि चौंधिया जानेसे जानेसे उसने कहा - मूढ़े ! आओ, आओ ! कौशिकि ! तुम शुम्भको अपना पति बनानेकी इच्छा करो; अन्यथा मैं बलपूर्वक तुम्हारे केश पकड़कर तुम्हें घसीटता हुआ व्याकुल - रुपमें ( यहाँसे ) ले जाऊँगा ॥४१ - ४४॥
श्रीदेवीने कहा - शुम्भने तुमको मुझे बलपूर्वक ले जानेके लिये निश्चय ही भेजा है तो इस विषयमें एक अबला क्या करेगी ! तुम जैसा चाहो वैसा करो ॥४५॥
पुलस्त्यजी बोले - विभावरी ( देवी ) - के इस प्रकार कहनेपर बलवान् एवं पराक्रमी धूम्रलोचन गदा लेकर झट दौड़ पड़ा । कौशिकीने गदा लेकर आ रहे उस असुरको, साथ ही उसकी सेनाको भी हुंकारसे ही ऐसे भस्म कर दिया जैसे आग सूखी लकड़ीको जला देती है । कौशिकीद्वारा सेनाके साथ बलवान् दानवको भस्म किये जाते देखकर सारे संसारमें हाहाकार मच गया ॥४६ - ४८॥
शुम्भने भी ( हाहाकारका ) वह महान् शब्द सुना । उसके बाद उसने चण्ड एवं मुण्ड नामके दोनों महान् एवं बलवान् असुरों तथा बलवानोंमें श्रेष्ठ रुरुको आदेश दिया और वे रथोंसे भरी उनकी बड़ी सेना शीघ्र ही वहाँ पहुँच गयी, जहाँ कौशिकी खड़ी थीं । उस समय शत्रुकी सैक़ओं सेनाओंको आते देखकर सिंह युद्धमें अपनी गर्दनके बालोंको फटकारने लगा तथा खेल - खेलमें - बिना किसी परिश्रमके ही दानवोंको पछाड़ - पछाड़कर मारने लगा । उसने कुछको पंजोंके थपेड़ोंसे, कुछको मुखसे, कुछको तेज नखोंसे एवं कुछको अपनी छातीके धक्के देकर भयत्रस्त कर दिया । फिर तो पर्वतकी गुफामें रहनेवाले सिंहसे एवं देवीके अनुगत भूतोंसे मारे जा रहे वे सभी दानव ( भागकर ) चण्ड - मुण्डकी शरणमेंख चले गये । चण्ड और मुण्ड अपनी सेनाको घबरायी एवं दुखी हुई देखकर कुपित हो गये और अपने ओठ फड़फड़ाने लगे ॥४९ - ५४॥
अग्निकी ओर उड़कर जानेवाले ( जलकर मरनेवाले ) पतिंगोंके समान वे दोनों दैत्य देवीकी ओर दौड़े । उन दोनों भयङ्कर दानवोंको सामने आते हुए देखक्र देवी अत्यन्त क्रुद्ध हो गयीं । परमेश्वरीने मुखके ऊपर तीन रेखाओंवाली भृकुटि चढ़ायी । देवीके टेढ़ी भौंहोंसे युक्त भालस्थलसे शीघ्र ही विकराल मुखवाली, ( भक्तोंके लिये ) मङ्गलदायिनी योगिनी काली निकल आयीं । उनके हाथमें भयङ्कर खटवाङ्ग ( नामक ) हथियार तथा काले अञ्जनके समान तरकससे युक्त भयङ्कर तलवार थी । उनका शरीर कंकाल और खूनसे सना हुआ था तथा उनके गलेमें राजाओंके कटे हुए सिरोंकी बनी हुई मुण्डमाला थी । उन्होंने बहुत अधिक क्रुद्ध होकर युद्धमें कुछको तलवारके घाट उतार दिया और हाथी, रथ एवं घोड़ोंसे युक्त कुछ अन्य असुर - शत्रुओंको खटवाङ्गसे मार डाला ॥५५ - ५८॥
अम्बिका देवी चर्म, अङ्कुश, मुदगर, धनुष, घंटियों और यन्त्रके साथ हाथियोंको अपने मुखमें झोंकने लगीं और चक्र तथा सारथी, घोड़े और योद्धाके साथ कूबरसे युक्त रथको अपने मुखमें डालकर वे चबाने लगीं । फिर उन्होंने किसीको सिरके केश पकड़कर, किसीको गला पकड़कर और अन्य किसीको पैरोंसे रौंद - रौंदकर मृत्युके समीप पहुँचा दिया । उसके बाद सेनापतिके साथ उस सेनाको देवीद्वारा भक्षण किया जाता हुआ देखकर रुरु दौड़ पड़ा । चण्डीने स्वयं उसे देखा और खटवाङ्गसे उस महान् असुरके सिरपर आघात कर दिया । वह मरकर जड़से कटे हुए वृक्षके समान पृथ्वीपर ( धड़ामसे ) गिर पड़ा ॥५९ - ६३॥
देवीने उसे जमीनपर गिरा हुआ देखकर पशुके समान उसके कानसे पैरतकका कोश काट दियाउसकी चमड़ी उधेड़ ली । उस कोश ( चमड़ी ) - को लेकर उन्होंने अपनी निर्मल जटाओंको बाँध लिया । उनमें एक जटा नहीं बाँधी गयी । उसे उखाड़कर उन्होंने जमीनपर फेंक दिया । वह जटा एक भयावनी देवी हो गयी । उसके सिरके बाल तेलसे सिक्त ( सने ) थे एवं वह आधा काला तथा आधा सफेद वर्णका शरीर धारण किये हुए थी । उसने कहा - मैं एक श्रेष्ठ महान् असुरको मारुँगी । तब देवीने उसका चण्डमारी - यह प्रसिद्ध नाम रख दिया ॥६४ - ६७॥
देवीने कहा - सुभगे ! तुम जाओ और चण्डमुण्डको यहाँ पकड़ लाओ ! उन्हें पकड़ लानेमें तुम समर्थ हो । मैं स्वयं उन्हें मारुँगी । इस प्रकार देवीके उस कथनको सुनकर वह उन दोनोंकी ओर दौड़ पड़ी । वे दोनों भयसे दुःखी होकर दक्षिण दिशाकी ओर भाग गये । तब चण्डमारी गरुड़के समान वेगवान् गदहेपर सवार होकर वेगसे भगनेके कारण वस्त्रहीन हुए उन दोनोंके पीछे दौड़ पड़ी । ( फिर तो ) जहाँ - जहाँ चण्ड और मुण्ड दोनों दैत्य गये, वहाँ - वहाँ उनके पीछे शिवा भी पहुँचती गयीं । उस समय उन्होंने यमराजके पौण्ड्रनामक महिषको देखा ॥६८ - ७१॥
उसने ( चण्डमारीने ) उस महिषकी साँपके आकारवाली सींगको उखाड़ लिया और उसे हाथमें लेकर वह शीघ्रतासे दानवोंके पीछे पील पड़ी । तब वे दोनों और दैत्य पृथिवी छोड़कर आकाशमें चले गये । फिर महेश्वरीने अपने गधेके साथा शीघ्रतासे उन दोनोंका पीछा किया । ( देवीने ) सर्पराज कर्कोटकको खानेकी इच्छावाले गरुड़को देखा । ( फिर तो देवीको ) देखते ही उनके रोंगटे खड़े हो गये; वे डर गये । चण्डमारीके भयसे गरुड़ मांसपिण्डके समान - लोथड़े - से हो गये । उन पक्षिराजके भयङ्कर पाँख ( भयके कारण ) गिर पड़े ॥७२ - ७५॥
पक्षिराजके ( गिरे हुए ) पाँखों तथा कर्कोटक सर्पको लेकर चण्डमारी भयसे आर्त चण्ड और मुण्डके पीछे दौड़ी । उसके बाद तुरंत ही वह देवी चण्ड और मुण्ड नामक महान् असुरोंके निकट पहुँच गयी एवं उन दोनोंको कर्कोटक नागसे बाँधकर विन्ध्य पर्वतपर ले आयी । उस चण्डमारीने देवीके पास उन दानवोंको निवेदित करनेके बाद भयङ्कर कोश लेकर दानवोंके मस्तकों तथा गरुड़के सुन्दर पाँखोंसे बनी अनुपम माला निर्मितकर देवीको दे दी एवं सिंहचर्मका घाघरा भी देवीको समर्पित किया ॥७६ - ७९॥
उन्होंने स्वयं गरुड़के अन्य पाँखोंसे दूसरी माला बनाकर उसे अपने सिरमें बाँध लिया और ( फिर वे ) दानवोंका खून पीने लगीं । उसके बाद प्रचण्ड दुर्गाने चण्ड और असुरनायक मुण्डको पकड़ लिया एवं कुपित होकर उन दोनों महासुरोंका सिर काट डाला । शुष्करेवती देवीने सर्पद्वारा उनके सिरका अलंकार बनाया और वह चण्डमारीके साथ कौशिकीके पास गयी । वहाँ जाकर उसने कहा - देवि ! दैत्योंके सिरसे गुँथे एवं नागराजसे लपेटकर सिरपर पहने जानेवाले इस श्रेष्ठ अलंकारको धारण करें । शिवा देवीने उस विस्तृत सिरके आभूषणको लेकर उसे चामुण्डाके मस्तकपर बाँध दिया और उनसे कहा - आपने अत्यन्त भयंकर कार्य किया है ॥८० - ८४॥
यतः आपने चण्ड और मुण्डके सिरोंका शुभ आभूषण धारण किया है, अतः आप लोकमें चामुण्डा नामसे प्रख्यात होंगी । चण्ड और मुण्डकी माला धारण करनेवाली उन देवीसे त्रिनेत्राने इस प्रकार कहकर दिग्म्बरासे कहा - तुम अपने इन शत्रुसैनिकोंका विनाश करो । ऐसा कहनेपर बहुत तेज गतिवाले गधेके साथ वह देवी सींगकी नोकसे उग्र शत्रु - सेनाके दलोंका संहार करती हुई विचरण करने लगी और ( इस प्रकार ) असुरोंको चबाने लगी । उसके बाद अम्बिकाकी अनुगामिनियों - चर्ममुण्डा, मारी, सिंह एवं भूतगणोंद्वारा मारे जा रहे वे महादानव अपने नायक शुम्भकी शरणमें गये ॥८५ - ८८॥