दिक्परिच्छेद
दिशा-निर्धारण - मैं (मय) दिशा के निर्धारण के विषय में कहता हूँ । यह कार्य उत्तरायण मास में शुभ शुक्ल पक्ष में सूर्योदय होने पर शङ्कु द्वारा करना चाहिये ॥१॥
शुभ पक्ष एवं नक्षत्र में सूर्यमण्डल के निर्मल रहने पर ग्रहण किये गये वास्तु के मध्य की भूमि को समतल करना चाहिये ॥२॥
शङ्कुलक्षण
जिस स्थान पर शङ्कुस्थापन करना हो, उस स्थान से चारो दिशाओं में दण्डप्रमाण से चौकोर किये गये भूखण्ड को जल द्वारा समतल करना चाहिये ॥
उस समतल भूमि के मध्य में शङ्कुस्थापन करना चाहिये । अब शङ्कु के प्रमाण का वर्णन किया जा रहा है ॥३॥
शङ्कु का लक्षण इस प्रकार है - यह एक हाथ लम्बा हो, शीर्ष पर इसका माप एक अङ्गुल हो तथा मूल भाग में इसका व्यास पाँच अङ्गुल हो । इसकी गोलाई सुन्दर हो, किसी प्रकार का इसमें व्रण न हो अर्थात् इसका काष्ठ कटा-फटा न हो एवं श्रेष्ठ हो ॥४॥
(उपर्युक्त माप उत्तम शङ्कुमान का है।) मध्यम शङ्कु अट्ठारह अङ्गुल लम्बा एवं कनिष्ठ शङ्कु बारह या नौ अङ्गुल लम्बा होता है । लम्बाई के समान ही इसका मूल एवं अग्र भाग में भी माप रखना चाहिये ॥५॥
दन्त (मौलसिरी), चन्दन, खैर या कत्था, कदर, शमी, शाक (सागौन) एवं तिन्दुक (तेंद) के वृक्ष शङ्कु-वृक्ष कहलाते है अर्थात् इनके काष्ठ से शङ्कुनिर्माण करना चाहिये ॥६॥
इनके अतिरिक्त कठोर काष्ठ वाले वृक्षों से भी शङ्कु निर्माण किया जा सकता है । शङ्कु का अग्र भाग चित्रवृत्तक (दोषहीन गोलाई) होना चाहिये । शङ्कु निर्माण के पश्चात् प्रातःकाल भूतल के पूर्व निर्धारित स्थल पर उसे स्थापित करना चाहिये ॥७॥
शङ्कु प्रमाण का दुगुना माप लेकर शङ्कु को केन्द्र बना कर वृत्त खींचना चाहिये । दिन के पूर्वाह्ण एवं अपराह्ण में उस मण्डलाकृति पर शङ्कु की छाया पड़ती है ॥८॥
उपर्युक्त छायायें जिन-जिन बिन्दुओं पर पड़ती है, उन बिन्दुओं को सूत्र से मिलाना चाहिये । इससे पूर्व एवं पश्चिम दिशा का ज्ञान होता है (पूर्वाह्ण मे जहाँ छाया पड़ती है, वह पश्चिम दिशा एवं अपराह्ण में जहाँ छाया पड़ती है, वह पूर्व दिशा होती है )। पूर्वोक्त बिन्दुओं को केन्द्र बनाकर मछली की आकृति बनानी चाहिये ॥९॥
दो सूत्रों को बिन्दुओं के केन्द्र में इस प्रकार रखना चाहिये कि वे दक्षिण से उत्तर तक जायँ । इसी प्रकार दूसरे सूत्र को उत्तर से दक्षिण तक ले जाना चाहिये ।
कहने का तात्पर्य यह है कि एक बिन्दु को केन्द्र बनाकर चाप की आकृति उत्तर से दक्षिण तक बनानी चाहिये । पुनः दूसरे बिन्दु को केन्द्र बनाकर दूसरी चापाकृति बनानी चाहिये । मण्डल के दो छोरों पर ये चापाकृतियाँ एक-दूसरे को काटती है । इस प्रकार मत्स्य की आकृति बनती है ॥१०॥
इन सूत्रों से बुद्धिमान स्थपति उत्तर एवं दक्षिण दिशा का निर्धारण करते है । (पूर्व के बाँयीं और उत्तर दिशा एवं दाहिनी ओर दक्षिण दिशा होती है । इस प्रकार भूमि में दिशा का ज्ञान होता है)।
अशुद्ध छाया -
जब सूर्य कन्या या वृषभ राशि में होता है, उस समय सूर्य की अपच्छाया नही पड़ती है (अर्थात् इस स्थिति में शङ्कु की छाया सीधे पूर्व और पश्चिम दिशा पर पड़ती है ) ॥११॥
विशेष -
सूर्य की छाया बारहो महीनों में एक समान नहीं होती है । अतः सूर्य के नक्षत्रों के सङ्क्रमण के अनुसार शुद्ध रूप से पूर्व एवं पश्चिम का निर्धारण किस प्रकार किया जाय एवं अपच्छाया से बचा जाय, इसका उपाय आगे के श्लोकों में वर्णित है ।
मेष, मिथुन, सिंह एवं तुला राशि में सूर्य के रहने पर जहाँ शङ्कु की छाया पड़े, उससे दो अङ्गुल पीछे हट कर पूर्व एवं पश्चिम का निर्धारण करना चाहिये । जिस समय सूर्य कर्क, वृश्चिक एवं मीन राशि पर हो, उस समय अङ्गुल हट कर दिशानिर्धारण करना चाहिये ॥१२॥
धनु एवं कुम्भ पर सूर्य के रहने पर छः अङ्गुल एवं मकर पर आठ अङ्गुल हट कर शङ्कु की छाया के दाहिने एवं बाँये सुत्र का प्रयोग करना चाहिये ॥१३॥
रज्जुलक्षण
माप-सूत्र का लक्षण - रज्जु अथवा सूत्र को आठ दण्ड लम्बा होना चाहिये । इसका निर्माण ताल, केतक के रेशे, कपास, कुश अथवा न्यग्रोध (बरगद) के छाल से होना चाहिये ॥१४॥
देवता, ब्राह्मण एवं राजा (क्षत्रिय) के वास्तु-मापन के लिये रज्जु को अङ्गुल के अग्र बाग के बराबर मोटा, तीन बत्तियों से निर्मित एवं विना गाँठ का बनाना चाहिये । वैश्य एवं शूद्र के लिये रज्जु को बत्तियों से बँटा होना चाहिये ॥१५॥
खातशङ्कुलक्षण
गड्ढे में गाड़े जाने वाले शङ्कु का लक्षण - गड्ढे में गाड़े जाने वाले शङ्कु जिन वृक्षों के काष्ठ से बनते है, उनके नाम है - खदिर, खादिर, महा, क्षीरिणी तथा अन्य कठोर काष्ठ वाले वृक्ष ॥१६॥
इसकी लम्बाई ग्यारह अङ्गुल से लेकर इक्कीस अङ्गुल तक होनी चाहिये एवं व्यास एक मुट्ठी होना चाहिए । इसका मूल सूई की भाँति नुकीला होना चाहिये ॥१७॥
स्थपति पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके स्थापक की आज्ञा से बाँयें हाथ में खातशङ्कु लेकर एवं दाहिने हाथ में हथौड़ा लेकर क्रमशः आठ बार शङ्कु पर प्रहार करे ॥१८॥
सूत्रविन्यास
सूत्र को भूमि पर फैलाना - चूँकि इस सूत्र से भवन-निर्माणसम्बन्धी कार्य में प्रमाण या माप निश्चित किया जाता है; अतः इसे 'प्रमाणसूत्र' कहा जाता है ॥१९॥
प्रमाणसूत्र के कार्यक्षेत्र के बाहर के चारो ओर के क्षेत्र का जिससे मापन किया जाता है, उस सूत्र को 'पर्यन्त सूत्र' कहते है । जिस सूत्र से निश्चित स्थान का निर्धारण, देवताओम के पद का निर्धारन तथा वास्तुपद का विन्यास किया जाता है, उसे 'विन्याससूत्र' कहते है ॥२०॥
गृह के दक्षिण भाग में गृह का गर्भ होता है, अतः उसी के पास से सूत्रपात प्रारम्भ करना चाहिये ॥२१॥
उस सूत्र से शङ्कु का मान लेते हुये शङ्कु को भूमि में गाड़ना चाहिये । इसी से प्रवेशमार्ग (अथवा गृह से बाहर निकलने का मार्ग) या भित्ति-निर्माण के लिये मापन करना चाहिये ॥२२॥
नगर, ग्राम एवं दुर्ग के मापन के लिये सर्वप्रथम सूत्रपात वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम) में करना चाहिये । इसके पश्चात् दक्षिण से उत्तर तथा पूर्व से पश्चिम सूत्रपात करना चाहिये । ॥२३॥
इसके पश्चात् पश्चिम से पूर्व एवं उत्तर से दक्षिण तक सूत्रप्रपात करना चाहिये । जिस सूत्र से ब्रह्मा के पद से प्रारम्भ कर पूर्व दिशा तक मापन किया जाता है, उसे 'त्रिसूत्र' कहते है ॥२४॥
इसके पश्चात् ब्रह्मस्थान से पश्चिम की ओर जाने वाले सूत्र को 'धन' दक्षिण की ओर जाने वाले सूत्र को 'धान्य' एवं उत्तर की ओर जाने वाले सूत्र को 'सुख' कहते है ॥२५॥
जिस सूत्र से सुखप्रमाण प्राप्त होता है, उसका माप यहाँ वर्णित है । बल के लिये केन्द्र के चारो ओर मण्डप के व्यास से एक हाथ, दो हाथ या तीन हाथ की दूरी लेते हुये उत्खनन करना चाहिये ॥२६॥
पुनरपच्छाया
पुनः दोषयुक्त छाया - पूर्व एवं पश्चिम के निर्धारण के लिये प्रत्येक माह प्रत्येक दस दिन के काल-खण्ड मे संख्याओं का संयोजन इस प्रकार करना चाहिये- सूर्य का सङ्क्रमण मेष राशि मे होने पर दो, एक, शून्य; वृष मे होने पर शून्य, एक, दो; मिथुन मे होने पर दो, तीन, चार; कर्क मे होने पर चार, तीन, दो; सिंह मे होने पर दो, एक, शून्य; कन्या मे होने पर शून्य, एक, दो; तुला मे होने पर दो, तीन, चार; वृश्चिक मे होने पर चार, पाँच, छः; धनु मे होने पर छ;, सात, आठ; मकर मे होने पर आठ, सात, छः; कुम्भ में होने पर छ;, पाँच, चार तथा मीन में होने पर चार, तीन एवं दो ॥२७॥
राशि के साथ सूर्य की गति का विचार एवं युक्तिपूर्वक समीक्षा करते हुये पूर्वोक्त अङ्गुलियों को छोड़ देना चाहिये । इसके अनुसार सीमा एवं दिशा आदि का शङ्कु द्वारा ग्रहण करते हुये स्थान को तैयार करना चाहिए ॥२८॥