चार तल से लेकर बहुतलों के देवालयों का विधान - 
चार तल वाले भवन (देवालय) के पाँच प्रकार के प्रमाणों का संक्षेप में क्रमानुसार वर्णन कर रहा हूँ । इसका व्यास तेरह या चौदह हाथ से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ बढ़ाते हुये इक्कीस या बाईस हाथ तक जाता है एवं भवन की ऊँचाई पूर्वोक्त नियम के अनुसार रक्खी जाती है ॥१॥
सुभद्रकम्
विस्तार एवं ऊँचाई के प्रमाण से भवन के भागों की चर्चा कर रहा हूँ । तेरह हस्त के व्यास को बराबर-बराबर आठ भागों में बाँटना चाहिये । एक भाग से कूट का विस्तार, दो भाग से शाला का विस्तार एवं एक भाग से पञ्जर का विस्तार करना चाहिये । उसके ऊपर (दूसरे तल) को भी आठ भागों में बाँटना चाहिये । सभाकक्ष, शाला एवं पञ्जर के ऊपर पूर्ववर्णित (कूटादि) का निर्माण करना चाहिये ॥२-४॥
ऊपरी भाग (तीसरी मञ्जिल) के छः भाग करने चाहिये । एक भाग से कूट का विस्तार, दो भाग से कोष्ठक की लम्बाई एवं आधे भाग से नीड़ का माप करना चाहिये ॥५॥
उसके ऊपर (के तल) के तीन भाग करना चाहिये । मध्य का भाग एक अंश (आधा) रखना चाहिये एवं निर्गम का माप एक दण्ड रखना चाहिये । बुद्धिमान स्थपति को ऊँचाई के उन्तालीस भाग करने चाहिये ॥६॥
(प्रथम तल में) ढ़ाई भाग से अधिष्ठान, पाँच भाग से स्तम्भ की लम्बाई (प्रथम तल के भवन की ऊँचाई), (द्वितीय तल में) इसके आधे माप की प्रस्तर की ऊँचाई एवं पौने पाँच भाग से (तल की) स्तम्भ की ऊँचाई रखनी चाहिये । (तीसरे तल में) सवा दो बाग से मञ्चक और उसके दुगुने प्रमाण से जङ्घा होनी चाहिये । इसके ऊपर (चौथे तल में) दो भाग से प्रस्तर एवं सवा चार भाग से स्तम्भ की ऊँचाई रखनी चाहिये । इसके ऊपर सवा एक भाग से प्रस्तर, एक भाग से वेदिका, गल की ऊँचाई दो भाग से, शिखर सवा चार भाग से तथा शेष भाग से शिखा का प्रमाण रखना चाहिये । पूरा भवन भूतल से चौकोर होता है ॥७-१०॥
इस भवन में बारह सौष्ठी, बारह कोष्ठं एवं पञ्जर शिखर पर चार नासी होनी चाहिये एवं अल्पनासियों से अलङ्‌कृत होना चाहिये । तल के नीचे (अधिष्ठान) पूर्ववर्णित नियम के अनुसार होना चाहिये तथा स्तम्भ, अलङ्‌करण एवं तोरण निर्मित होना चाहिये । सभी अलङ्करणों से युक्त इस भवन (देवालय) की संज्ञा 'सुभद्रक' होती है । ॥११-१२॥
श्रीविशाल
जिस देवालय के (कोणों पर तथा मध्य में) कूट एवं कोष्ठ आदि हो तथा बीच-बीच में भवन की छत गोलाई लिये हो, कोणकोष्ठ भी मण्डलाकार हो, गर्भगृह भवन के विस्तार के आधे पर (मध्य) स्थित हो, भीतर की भित्ति की मोटाई शेष का तृतीयांश हो तथा यही माप बाहर की भित्ति (अन्धार हार) का होना चाहिये । इस भवन के अनुरूप विविध प्रकार के अधिष्ठान स्तम्भ एवं वेदि आदि होते है एवं इस देवालय की संज्ञा 'श्रीविशाल' होती है ॥१३-१४॥
भद्रकोष्ठ
भवन के पन्द्रह हाथ के व्यास को नौ भागों में बाँटना चाहिये । तीन भाग से गर्भगूह की चौड़ाई रखनी चाहिये । भीतरी भित्ति की मोटाई के लिये एक भाग एवं चारो ओर अलिन्द की चौड़ाई के लिये एक भाग तथा खण्डहर्म्यक के लिये एक भाग रखना चाहिये ॥१५-१६॥
सभा, शाला एवं नीड की चौड़ाई एक-एक अंश से रखनी चाहिये । इनकी लम्बाई चौड़ाई की तीन गुनी होनी चाहिये । इनकी चौड़ाई के माप से इनका निर्गम निर्मित करना चाहिये । शाला के मध्य भाग में महानासी निर्मित होनी चाहिये, जिसकी चौड़ाइ एवं गहराई एक भाग माप की हो । सभा, कोष्ठक एवं नीडों के मध्य आधे भाग से हारक (हारामार्ग) निर्मित होना चाहिये ॥१७-१८॥
ऊपरी (दूसरे) तल की चौड़ाई को आठ भागों में बाँटना चाहिये । एक भाग से कूट एवं एक भाग से कोष्ठक रखना चाहिये । कोष्ठक की लम्बाई विस्तार की दुगुनी होनी चाहिये । कूट एवं शाला के मध्य में एक भाग से नीड की रचना करनी चाहिये । उसके ऊपर (तृतीय बल) के छः भाग करने चाहिये एवं कूट तथा कोष्ठक का निर्माण एक भाग से करना चाहिये ॥१९-२०॥
(कूट एवं कोष्ठक की) लम्बाई चौड़ाई की दुगुनी होनी चाहिये । इनके मध्य में आधे भाग से पञ्जर होना चाहिये । इसके ऊपरी भाग के चार भाग होने चाहिये । मध्य भाग में एक दण्ड का निर्गम होना चाहिये । कर्णकूट अष्टकोण हों एवं कोष्ठक क्रकरी (दिशाओं में कोण) हो । महाशिखर अष्टकोण हो तथा आठ नासियों से अलङ्‌कृत हो । कूट, कोष्ठक एवं नीड की संख्या, विस्तार एवं ऊँचाई आदि के माप पूर्वोक्त रीति से होने चाहिये । चार तल वाला यह देवलय 'भद्रकोष्ठ' संज्ञक होता है ॥२१-२३॥
सत्रह हाथ के व्यास को दश भागों में बाँटना चाहिये । चार भाग से नालीगृह (गर्भगृह), एक भाग से अन्धारिका (भीतरी भित्ति), एक भाग से अलिन्द एवं एक भाग से चारो ओर खण्ड-हर्म्यक का निर्माण करना चाहिये ॥२४-२५॥
कूट, कोष्ठ एवं नीड की रचना एक-एक भाग से करनी चाहिये । कोष्ठ की लम्बाई चौड़ाई की दुगुनी हो एवं शेष भाग से पञ्जरयुक्त हारा का निर्माण करना चाहिये ॥२६॥
इसके ऊपर (दूसरे तल) जलस्थान को छोड़ कर आठ भाग करना चाहिये । एक भाग से कूट की चौड़ाई रखनी चाहिये । कोष्ठक की लम्बाई चौड़ाई की दुगुनी होनी चाहिये । हारा के मध्य में एक भाग से लम्ब पञ्जर (लटकती हुई सजावटी आकृति) होनी चाहिये । इसके ऊपर (तीसरे तल पर) छः भाग करने चाहिये । एक भाग से सौष्ठिक का विस्तार करना चाहिये ॥२७-२८॥
कोष्ठक की लम्बा (चौड़ाई की) दुगुनी होनी चाहिये । हारामार्ग में क्षुद्र-पञ्जर होना चाहिये । उसके ऊपर (चतुर्थ तल पर) के तीन भाग होने चाहिये । मध्य भाग में एक दण्ड का निर्गम निर्मित होना चाहिये ॥२९॥
इस भवन (देवालय) का अधिष्ठान चौकोर होना चाहिये एवं गल तथा मस्तक आठ कोण का होना चाहिये । बारह कोष्ठक, बारह सौष्ठिक एवं आठ पञ्जर होना चाहिये । आठ लम्बपञ्जर एवं सोलह क्षुद्रनीड होना चाहिये । गल पर आठ नासी हों एवं कोष्ठक कुछ ऊँचे हो । विभिन्न प्रकार के मसूरक, स्तम्भ, वेदी, जालक (झरोखा, रोशनदान) एवं तोरण हों । नाना प्रकार के अलङ्करणों एवं विभिन्न प्रकार के अङ्कनों से युक्त हो । अधिष्ठान उपपीठ से युक्त हो या केवल मसूरक हो । स्वस्तिक की आकृति निर्मित हो एवं नासिकाओं से सुसज्जित हो । ऊँचे भाग की संरचना पूर्व-वर्णित विधि से हो । इस देवालय को 'जयावह' संज्ञा दी गई है ॥३०-३३॥
भद्रकूट
उन्नीस हाथ की चौड़ाई को दश भागों में बाँटा जाता है । चार भाग से गर्भगृह, एक भाग से भित्ति की मोटाई, एक भाग से अन्धार, एक भाग स चारो ओर खण्डहर्म्यक, एक-एक भाग से कूट, कोष्ठक एवं नीड की चौड़ाई रखनी चाहिये । कोष्ठक की लम्बाई चौड़ाई की दुगुनी होनी चाहिये तथा एक भाग से हारा-मार्ग की रचना होनी चाहिये ॥३४-३६॥
कपोतपञ्जर
सौष्ठिक का व्यस मध्य में पाँच में से दो भाग से निर्मित होना चाहिये । एक भाग से विनिष्क्रान्त का निर्माण होना चाहिये, जो दो स्तम्भों से युक्त हो । यह उपपीठ, अधिष्ठान, मञ्च, वितर्दिक, कन्धर एवं शिरोभाग से युक्त हो तथा सभी अलङ्करणों से युक्त हो । पादुक से उत्तर के मध्य नौ भाग से उपपीठ, दो भाग ऊँचा मसूरक, उनका दुगुना ऊँचा स्तम्भ, आधे भाग से प्रस्तर की ऊँचाई, आधे भाग से वेदिका तथा उत्तर से प्रारम्भ कर कपोत तक गल का निर्माण करना चाहिये ॥३७-४०॥
पञ्जर की आकृति से युक्त एवंकपोत से विनिर्गत (कपोतपञ्जर) होता है । जिस प्रकार अच्छा लगे एवं ठीक हो, उस प्रकार शक्ति-ध्वज से युक्त होना चाहिये । यह कपोतपञ्जर सभी प्रकार के देवालय के अनुकूल होता है । इसे हारा के या शाला के मध्य में निर्मित करना चाहिये ॥४१-४२॥
पुनः भद्रकूट
कूट, कोष्ठक एवं नीड अन्तर-प्रस्तर से युक्त होते है । इसके ऊपर जल-स्थल को छोड़ कर आठ भाग बचते है । एक भाग से सौष्ठिक का निर्माण होना चाहिये । कोष्ठक की लम्बाई (चौड़ाई की)दुगुनी होनी चाहिये । उनके मध्य में पञ्जर होना चाहिये । उसके ऊपर छः भाग करना चाहिये । सौष्ठिक एवं कोष्ठ पहले की भाँति होने चाहिये । इसके ऊपरी भाग में जो योजना 'विजय' के लिये कही गयी है, वही यहाँ भी होनी चाहिये । कूट एवं कोष्ठ आदि सभी अङ्गों की संख्या पूर्व-वर्णित होनी चाहिये । महानीड की संख्या सोलह होनी चाहिये । इस देवालय की संज्ञा 'भद्रकूट' होती है ॥४३-४५॥
मनोहर
यदि भवन के अलङ्करण भिन्न हों एवं शालाओं के मध्य में भद्रक हों, ग्रीवा एवं शिरोभाग गोलाई लिये हों तो इस देवालय का नाम 'मनोहर' होता है ॥४६॥
आवन्तिकम्
यदि अलङ्करण भिन्न हों, कन्धर एवं शिरोभाग चौकोर हो, विभिन्न प्रकार के मसूरक, स्तम्भ एवं वेदिका आदि से अलङ्‌कृत हो तो इस देवालय की संज्ञा 'आवन्तिक' होती है । यह भवन शिव-मन्दिर के लिये उपयुक्त होता है ॥४७-४८॥
सुखावह
यदि विस्तार इक्कीस हाथ हो तो उसके दश भाग करने चाहिये । चार भाग से नाली (गर्भगृह), एक भाग से चारो ओर भीतरी भित्ति की मोटाई, एक भाग से अन्धार, उसके चारो ओर एक भाग से हारामार्ग का विस्तार तथा एक भाग से कूट, नीड एवं कोष्ठक का विस्तार रखना चाहिये । शाला की लम्बाई चौड़ाई की दुगुनी होनी चाहिये । हारा-मार्ग की चौड़ाई एक भाग से रखनी चाहिये । वातायन (खिड़की, झरोखा) एवं मकर-तोरण से सज्जा करनी चाहिये । इसके ऊपरी भाग में जल-भाग को छोड़ कर आठ भाग करना चाहिये । कूट, नीड एवं कोष्ठक का विस्तार एक भाग से रखना चाहिये ॥४९-५०॥
शाला की लम्बाई चौड़ाई की दुगुनी होती है । उसके ऊपर (के तल के) छः भाग होते है । सौष्ठी की चौड़ाई एक भाग से एवं उसकी लम्बाई उसके दुगुनी होती है । कोष्ठ एवं नीड की चौड़ाई आधे भाग से होनी चाहिये । उसके ऊपर के (तल के) चार भाग होने चाहिये एवं दो भाग से मध्य-भद्र की रचना करनी चाहिये ॥५१॥
दण्ड-प्रमाण से निर्गम होना चाहिये । इसके ऊपर भद्रनीड निर्मित होना चाहिये । गल एवं नासिक ढ़ाई दण्ड चौड़ा होना चाहिये । कन्धर, वितर्दिक एवं मस्तक गोलाई लिये होना चाहिये । आठ अर्धनासिक एवं आठ अल्पनासिक होना चाहिये ॥५२॥
प्रथम तल में कूट, नीड एवं कोष्ठक मध्यम मञ्च (प्रस्तर) से युक्त एवं ऊँचे हो । इसके ऊपर शाला (मध्य कोष्ठ) उन्नत हो, इसके ऊपर ऊँचा ऊर्ध्व-कूट हो, जो गोलाई लिये हो । मध्य में शीर्ष-भाग आठ पट्टो वाला हो । प्रथम तल मेंकूट का शिखर चौकोर हो एवं वहाँ ऊपर विना किसी खुले स्थान के अल्प-नास होना चाहिये । विभिन्न प्रकार के मसूरक, स्तम्भ एवं अलङ्करणों से युक्त इस देवालय की संज्ञा 'सुखावह' होती है ॥५३-५४॥
पाँच तल के देवालय का विधान - पाँच तल के देवालय की ऊँचाई को अड़तालीस बराबर भागों में बाँटना चाहिये । पौने तीन भाग से कुट्टिम, साढ़े पाँच भाग से चरण (स्तम्भ, द्वितीय तल की ऊँचाई), ढ़ाई भाग से मञ्च, सवा पाँच भाग से पादक (स्तम्भ, द्वितीय तल की ऊँचाई) ढाई भाग से प्रस्तर, पाँच भाग से तलिप (तृतीय तल की ऊँचाई), सवा दो भाग से मञ्च, पौने पाँच भाग से अङिघ्र (स्तम्भ, चतुर्थ तल की ऊँचाई), दो भाग से प्रस्तर, सवा चार भाग से तलिप (स्तम्भ, पाँचवे तल की ऊँचाई) पौने दो भाग से मञ्च, एक भाग से वेदिका, दो भाग से कन्धर, सवा चार भाग से शिखर एवं दो भाग से कुम्भ की रचना करनी चाहिये । पाँच तल के देवालय की चौड़ाई को नौ, दश या ग्यारह बराबर भागों मे बाँटना चाहिये । ॥५५-५७॥
षडाद्यैकादशभूम्यन्तविधान
(पूर्ववर्णित पाँच तल से ऊपर तल में) निचले तल से ऊपर ऊँचाई में छः भाग से अङिघ्र (स्तम्भ, तल की ऊँचाई) एवं तीन भाग से तल (अधिष्ठान) निर्मित करना चाहिये । इसकी चौड़ाई पूर्ववर्णित नियम के अनुसार होनी चाहिये ॥५८॥
(सातवें तल के लिये) निचले तल के ऊपर ऊँचाई में साढ़े छः भाग से स्तम्भ एवं मसूरक सवा तीन भाग से निर्मित करना चाहिये तथा विस्तार को ग्यारह या बारह भाग से रखना चाहिये । सात तल वाला यह विमान प्रत्येक स्थान एवं अवसर के लिये उपयुक्त करना होता है ॥५९॥
उसके ऊपरी तल में सात भाग से स्तम्भ एवं साढ़े तीन भाग से कुट्टिम रखना चाहिये । इसकी चौड़ाई को दश, ग्यारह, बारह या तेरह भाग में बाँटना चाहिये । आठ तल के मन्दिर के निर्माण के विषय में मुनियों का विचार इस प्रकार वर्णित है । ॥६०-६१॥
उसके ऊपरी तल (नौ तल) में निचले तल से ऊपर साढ़े सात भाग से स्तम्भ एवं पौने चार भाग से तल (अधिष्ठान) बनाना चाहिये । तल का विस्तार पूर्ववत् होना चाहिये । इस प्रकार नौ तल का मन्दिर निर्मित होता है । अब दशवें तल का वर्णन किया जा रहा है ॥६२॥ 
(दसवें तल के लिये) निचले तल के ऊपर आठ भाग से पाद (स्तम्भ, तल की ऊँचाई) एवं चार भाग से मसूरक होता है । चौड़ाई पूर्वोक्त रीति से या चौदह भाग में बाँटनी चाहिये ॥६३॥
इसके ऊपरी तल (ग्यारह तल) में निचले तल के ऊपर साढ़े आठ भाग से स्तम्भ एवं सवा चार से मसूरक निर्मित करना चाहिये । चौड़ाई पूर्ववर्णित अथवा पन्द्रह, सोलह या सत्रह भागों में बाँटनी चाहिये । इस प्रकार ग्यारह तल का देवालय निर्मित होता है । अब बारह तल के देवालय का वर्णन किया जा रहा है ॥६४-६५॥
द्वादशतलविधान
बारह तल के देवालय का विधान - (बारह तल के देवालय के लिये) निचले तल (की भूमि) के नौ भाग करने चाहिये । साढ़े चार भाग से मसूरक होने चाहिये । चौड़ाई को सोलह से चौबीस भागों में बाँटना चाहिये । गर्भगृह से लेकर भवन की सीमा तक क्रमशः गृहपिण्दि (भित्ति), अलिन्द्र एवं हारामार्ग को उनके भाग के अनुसार रखना चाहिये । गर्भगृह दो, तीन, चार या छः भाग से या पूर्वोक्त भाग से निर्मित करना चाहिये ॥६६-६८॥
अलिन्द्र की संरचना एक या डेढ़ भाग से करनी चाहिये एवं शेष भाग से भित्ति निर्मित होनी चाहिये । कुछ विद्वानों के अनुसार बारहवें तल के सत्ताईस भाग करने चाहिये । छः भाग से भित्ति एवं पाँच भाग से अलिन्द्र निर्मित होना चाहिये । बाहरी भाग में कूटादि से अलङ्करण होना चाहिये । वहाँ कूट, कोष्ठ, नीड, क्षुद्र-शाल एवं गजशुण्ड निर्मित होना चाहिये ॥६९-७०॥
इन अलङ्करणों को इस प्रकार निर्मित करना चाहिये, जिससे वे सुन्दर लगें । इन्हे सम-हस्तप्रमाण से या विषम-हस्तप्रमाण से निर्मित करना चाहिये ॥७१॥
यदि प्रमाण सम संख्या में हों तो कूट का व्यास दो भाग से एवं चौड़ाई उसके दुगुनी रखनी चाहिये । अथवा शाला (कूट) की चौड़ाई चार भाग से रखनी चाहिये । सम संख्या का माप होने पर सभी भागों का माप सम संख्या में होना चाहिये । श्रेष्ठ मुनियों ने विभिन्न भागों एवं अलङ्करणो का वर्णन किया है । बुद्धिमान शिल्पी को उन स्थानों पर उसी विधि से निर्माण करना चाहिये ॥७२-७३॥
खण्डहर्म्य में यदि देवालय चार तल का हो तो प्रथम तल की ऊँचाई पर ग्रास (निर्माण का एक विशिष्ट अङ्ग) होना चाहिये । यदि भवन पाँच, छः या सात तल का हो तो दूसरे तल की ऊँचाई पर; यदि भवन आठ, नौ या दश तल का हो तो तीसरे तल पर; यदि ग्यारह तल का भवन हो तो ग्रास चौथे तल पर तथा बारह तल वाले भवन में पाँचवें तल पर निर्मित होना चाहिये ॥७४-७५॥
कूटकोष्ठादि
जो व्यक्ति प्रथम तल से कूट-कोष्ठ आदि का उचित रीति से निर्माण करना चाहता है, उसे प्रत्येक तल का विभाग नियमानुसार करना चाहिये । प्रत्येक ऊपरी तल में कूट-कोष्ठ आदि अङ्गों को पहले जिस प्रकार कहा गया है, उसी ढंग से निर्मित करना चाहिये । कूट, कोष्ठ एवं नीड आदि भेदों का वर्णन पहले किया जा चुका है ॥७६-७७॥
(कूटादि) भेदों का जिस भवन में जिस प्रकार प्रयोग करना चाहिये, उसका वर्णन पहले किया जा चुका है । इनका प्रयोग दूसरे तल से प्रारम्भ कर बारह तलपर्यन्त करना चाहिये । भवन के कर्ण (कोने) पर कूट, मध्य भाग में कोष्ठ एवं कूट तथा कोष्ठ के मध्य में पञ्जर का निर्माण करना चाहिये । उनके निर्गम का निर्माण मानसूत्र से करना चाहिये ॥७८-७९॥
निर्गमों का माप (उस तल) की चौड़ाई का आधा अथवा उसका भी आधा (चौड़ाई का चौथाई भाग) रखना चाहिये या उनका माप एक, दो अथवा तीन दण्ड होना चहिये । इसके भीतरी भाग केमाप के लिये मानसूत्र का प्रयोग नही करना चाहिये । ऋजुसूत्र माप के अन्त तक होता है । इसका बीच में भङ्ग होना विपत्तिकारक होता है; इसलिये कूट आदि सभी अङ्गों का निर्माण मानसूत्र से हटकर करना चाहिये ॥८०-८१॥
कर्ण पर निर्मित कूट का शीर्ष चौकोर, अष्टकोण, षोडशकोण अथवा गोलाकार एवं स्तूपिका से युक्त होता है । इसके मध्य भाग में नासि एवं अर्धकोटि निर्मित होता है । यह मुखपट्टिका एवं शक्तिध्वज से युक्त होता है ॥८२-८३॥
अनेक स्तूपिकाओं से युक्त कोष्ठ मध्य में होना चाहिये । इसका पिछला भाग हाथी के पीठ की समान एवं अग्र भाग शाला के आकार का होना चाहिये । कूट एवं कोष्ठ मध्यपञ्जर होना चाहिये । इसका मुख पार्श्व में होना चाहिये एवं गज-शुण्ड से सुसज्जित होना चाहिये ॥८४-८५॥
'जाति' (भवन का प्रकारविशेष) का वर्णन इस प्रकार किया गया । (छन्दभवन में) भवन के कर्ण (कोणों) पर कोष्ठ, मध्य भाग में कूट तथा इन दोनों के मध्य में क्षूद्रकोष्ठ आदि निर्मित हो तो उसे 'छन्द' कहा जाता है । (विकल्प भवन में) कूट या कोष्ठ अन्तर-प्रस्तर से युक्त हो, ऊँचे या नीचे हों तो उस भवन को 'विकल्प' कहा जाता है । 'आभास' भवन में इन दोनों व्यवस्थाओं के मिश्रित रूप का प्रयोग किया जाता है । यह छोटे, मध्यम एवं उत्तम श्रेणी के भवनों के अनुकूल होता है । 'जाति' आदि भेदों से युक्त देवालय सम्पत्ति प्रदान करते है । इसके विपरीत रीति से निर्मित देवालय विनाश के कारण बनते है ॥८९॥
(कूट आदि के) षट्‌कोण, अष्टकोण, वृत्ताकार, द्व्यस्त्रवृत्ताकर (दो कोण एवं अगले सिर पर गोलाई) होने पर उनके व्यास के क्रमशः पाँच, आठ, नौ एवं दश भाग करने चाहिये एवं एक भाग से उसके बाहर उसी की आकृति का घेरा बनाना चाहिये । यहाँ कोटि के छेद के लिये स्थान रक्खा जाता है । चौकोर के घेरे को इस प्रकार रखना चाहिये, जिससे माप सम बना रहे । उनकी वर्तनी से उनका (कूटादि का) मान पूर्ण होता है । यदि भवन का मान पूर्ण होताहै तो संसार सम्पूर्णता को प्राप्त होता है (अर्थात् गृहकर्ता को समृद्धि एवं पूर्णता इस संसार में प्राप्त होती है) ॥९०-९२॥
इसलिये बुद्धिमान व्यक्ति को प्रत्येक अङ्ग का निर्माण अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना चाहिये । इस प्रकार मन्दिरों का लक्षण संक्षेप में वर्णित किया गया । एक तल से लेकर बारह तल तक के भवन की ऊँचाई एवं चौड़ाई हस्त-मान से वर्णित की गई है । कूट एवं कोष्ठ आदि अङ्गों के भेदों का क्रमानुसार वर्णन किया गया । देवों के प्रिय एवं पवित्र विमानों एवं उअनेक विभिन्न भेदों का दोषहीन वर्णन जिस प्रकार प्राचीन ऋषियों ने किया, जिसका प्रथमतः ब्रह्मा ने उपदेश दिया, उसे संक्षिप्त करके मय ने यहाँ प्रस्तुत किया ॥९३-९४॥
 

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