“देवी” चारुदत्त बोला, “आपकी विपत्ति की बात सुनकर मुझे बहुत खेद हुआ। विश्वास कीजिए आप यहाँ सब तरह से सुरक्षित रहेंगी। आप जब तक चाहें यहाँ ठहर सकती हैं। मेरी दासी आपके पीने के लिए फलों के रस का प्रबन्ध कर देगी। जब आप जाना चाहेंगी तो हम आपके साथ चलेंगे।”
“आर्य” वसन्तसेना ने उत्तर दिया, “हम आपके आभारी हैं। मुझे बहुत प्रसन्नता है कि हमने आपके यहाँ आश्रय लिया और हमें आपसे परिचित होने का अवसर मिला। चारुदत्त, मैंने आपके बारे में बहुत कुछ सुना है। अब मुझे आप से मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई।”
वसन्तसेना की सुन्दरता की ख्याति दूर दूर तक फैली हुई थी। वह युवा और सुशिक्षिता थी। वह बहुत धनी भी थी और अपनी माँ के साथ राजसी ठाठ से एक महल में रहती थी। उनके पास बहुत सी दासियाँ थीं। इनमें से मदनिका वसन्तसेना की विशेष प्रिय दासी और संगिनी थी। उसकी सुन्दरता, धन और शिक्षा को देखकर बहुत से युवक उससे विवाह करना चाहते थे। किन्तु वसन्तसेना उनमें से किसी में भी दिलचस्पी नहीं रखती थी। वह स्वतन्त्र स्वभाव की युवती थी। वह अपनी माता और दूसरे साथियों के साथ मजे में रहती थी।
किन्तु अब चारुदत्त से मिलने के बाद उसे कुछ दूसरी ही तरह अनुभव होने लगा। उसे लगा कि जैसे वह उसे बहुत चाहने लगी है। चारुदत्त को भी महसूस हुआ कि वह वसन्तसेना से प्रेम करने लगा है किन्तु वह इस बात को प्रकट करना नहीं चाहता था। काफी देर तक हंसी-खुशी से बातें करने के बाद वे दोनों युवतियाँ घर जाने के लिए उठ खड़ी हुई ।
“वसन्तसेना," चारुदत्त बोला, “हम आपके घर तक आपके साथ चलेंगे।”
“आपके इस प्रस्ताव से हम बहुत प्रसन्न और आभारी हैं," वसन्तसेना बोली।
फिर एक क्षण सोचकर उसने कहा,“लेकिन रात के समय इतने पहनकर जाने में मुझे डर लगता है। संस्थानक बड़ा दुष्ट है। वह और उसके मित्र कुछ भी कर सकते हैं|”
“किन्तु देवी," चारुदत्त बोला,“मैं और मैत्रेय तो आपके साथ चल रहे हैं। किसी भी खतरे से हम आपकी रक्षा कर सकते हैं।”