पांडव राजकुमार अर्जुन एक बार पूर्वी भारत के घने वनों में घूम रहे थे। वह एक ऐसे स्थान की खोज में थे जहां वह शांति से संयम और साधना का जीवन बिता सकें। एक दिन उन्हें काफी चलना पड़ा। वह थक गये और एक पेड़ की छाया में लेट गये।
उसी समय शिकारियों का एक बड़ा दल वहां से गुज़रा। उसका नेतृत्व वहां के राजा की बेटी चित्रांगदा कर रही थी। उसने अर्जुन को पेड़ के नीचे सोये हुए देखा।
"उसको जगा दो...!” राजकुमारी ने आदेश दिया। उसके सेवकों ने अर्जुन को किसी चीज़ से कोंचा।
अर्जुन चौंककर उठ बैठा। उसने फुर्ती से अपने कमान पर तीर चढ़ाया और चारों ओर देखा। उसने पाया कि वहां जो दल आया है उसकी नेता एक स्त्री है हालांकि उसका वेष पुरुषों जैसा था।
उसने अपनी कमान नीचे रख दी और अवज्ञा से कहा, "मैं स्त्री के साथ नहीं लड़ता चाहे वह कितनी ही अशिष्ट और मूर्ख क्यों न हो?"
यह सुनकर चित्रांगदा क्रोध से भर उठी, बोली,“मैंने स्त्री के प्रति ऐसी अवज्ञा पहले कभी नहीं देखी...! तुम मेरे पिता के राज्य के आदमी नहीं हो सकते। क्योंकि यहां की प्रजा उस धरती को पूजती है जिस पर मेरे पांव पड़ते हैं। अरे अशिष्ट, तुम कौन हो...? जल्दी उत्तर दो।"
"मैं अर्जुन हूँ|” उसने शांत भाव से उत्तर दिया।
"निश्चय ही, तुम पांडव राजकुमार अर्जुन नहीं हो?” चित्रांगदा ने कुछ अचरज से कहा।
"हां, मैं पांडव राजकुमार अर्जुन ही हूँ|” उस आदमी ने उत्तर दिया।
“मैं यहां किसी स्त्री से बातें करने नहीं आया मेरी तुम में कोई दिलचस्पी नहीं है। तुम मुझे न अस्त्र विद्या से जीत सकती हो और न अपने आकर्षण से।" ऐसा कहकर अर्जुन ने चित्रांगदा पर अवज्ञा भरी दृष्टि डाली और वहां से चल दिया।