बहुत पुरानी बात है, कण्व नाम के एक ऋषि थे। वह बहुत विद्वान थे। अनेक स्त्रियां और पुरुष उनके पास ज्ञानार्जन करने के लिए आते थे। उनका आश्रम हिमालय की तराई में एक वन के बीचोबीच स्थित था। आश्रम के नज़दीक ही मालिनी नदी बहती थी। यह स्थान बहुत ही सुन्दर और बहुत ही शान्त था। सब तरह के पशु-पक्षी यहां रहते थे। पक्षी चहचहाते, मोर नाचते और हिरण वन में स्वतन्त्र विचरते थे। आश्रम में और उसके चारों ओर तरह तरह के पेड़, लताएं और फूल थे की खोज में मधु मक्खियां और तितलियां उन पर मंडराती रहतीं। वे सब आश्रम का ही भाग थे और महर्षि कण्व उन सबको प्यार करते थे। पुरुष और स्त्रियां, विद्यार्थी और अध्यापक सब कुटियों में रहते थे और प्रार्थना, तपस्या तथा अध्ययन में लीन सादा जीवन व्यतीत करते थे।
महर्षि इस नन्ही सी दुनिया के प्रिय और आदरणीय राजा थे। उनकी बहन गौतमी भी वहां रहती थीं। वे महर्षि के व्यग्र और युवा शिष्यों की देख- भाल करती थीं। वहां एक सुन्दर कन्या--ऐसी सुन्दर जैसी कभी देखी नहीं गयी-शकुन्तला भी थी। उसकी दो सखियां थीं-अनुसूया और प्रियंवदा। शकुन्तला महर्षि कण्व को अपना पिता कहती थी हालांकि वह उनकी गोद ली हुई बेटी थी। उसके पिता विश्वामित्र और मां मेनका थी।
मेनका देवराज इन्द्र की सभा की अत्यन्त रूपवती अप्सरा थी। विश्वामित्र एक महान और शक्तिशाली राजा थे। लेकिन वीरता और बड़ी सेना के बावजूद वह एक बार महर्षि वसिष्ठ से, जिनमें आत्मबल अधिक था, हार गये थे।
राजा को लगा कि इससे उनका अपमान हुआ है। उन्होंने मन ही मन निश्चय किया कि वह महर्षि वसिष्ठ से अधिक आत्मबल पैदा करेंगे और फिर उन्हें हरायेंगे। इसलिए उन्होंने राजपाट सहित उनके पास जो कुछ भी था वह सब कुछ छोड़ दिया और वनों में तपस्या करने के लिए चले गये।
यह त्याग और तपस्या के जीवन का आरम्भ था जो बहुत वर्षों तक बराबर चलता रहा।