"अच्छा शकुन्तला," अनुसूया बोली, “क्या हमने हमेशा ही तुम्हें यह नहीं बताया कि बाबा कण्व इन पौधों को उतना ही प्यार करते हैं जितना तुम्हें? तुम इन पौधों से कहीं अधिक रूपवती हो लेकिन बाबा ने फिर भी तुम्हें इनकी सेवा करने के लिए कहा है।"
"मैं इनकी सेवा सिर्फ इसलिए नहीं करती कि बाबा ने मुझसे कहा है। में स्वयं इन्हें प्यार करती हूँ और मुझे ऐसा लगता है मानो ये सब मेरे संबंधी हों।"
जिस क्षण से राजा ने शकुन्तला को देखा था उस क्षण से उनके हृदय में धुकर पुकर होने लगी थी। उन्होंने ऐसा सौन्दर्य, ऐसा लावण्य, और ऐसी मोहिनीमूरत पहले कभी नहीं देखी थी। ऐसा लगता था मानों प्रकृति में जो कुछ सर्वोत्तम है, पावन और निर्मल है वह सब शकुन्तला में है। सचमुच वह देवी है। उन्होंने पूर्ण रूप से अपना हृदय उसे समर्पित कर दिया। उनकी बातें सुनने के लिए वह धीरे-धीरे उनके और समीप आ गये। शकुन्तला जब पौधों को पानी दे रही थी तो अचानक एक भंवरा उस पर मंडराने लगा। इस भय से कि भंवरा कहीं उसे डंक न मार दे वह अपनी सखियों से उसे हटाने की विनती करने लगी।
"अनुसूया, प्रियंवदा," वह चिल्लाई, “कृपा करके मुझे इस दुष्ट भंवरे से बचाओ।"
"अरे, हम तुम्हें बचाने वाली कौन होती हैं ?" अनुसूया बोली, “आश्रम- वासियों की रक्षा करना तो राजा का कर्तव्य है। तुम राजा दुष्यन्त को क्यों नहीं बुलातीं और कहतीं कि वह तुम्हारी भंवरे से रक्षा करे ?"
राजा दुष्यन्त बड़ी रुचि से यह दृश्य देख रहे थे। अनुसूया की बात सुन कर उन्होंने सोचा कि स्वयं को प्रकट करने का यह अच्छा अवसर है। लेकिन वह उनको यह नहीं बताना चाहते थे कि वह कौन हैं।
आगे बढ़कर वह उनके समीप गये और पूछा,“देवियो, क्या मैं तुम्हारी कुछ सहायता कर सकता हूँ। क्या तुम्हें कोई परेशान कर रहा है ?"
"नहीं, कोई खास बात नहीं,” अनुसूया बोली, “बस हमारी सखी को एक भंवरा परेशान कर रहा है।"
"भंवरा कहां है?" दुष्यन्त ने मुस्कराते हुए शकुन्तला से पूछा।
वह लज्जा से लाल हो गई। इस गड़बड़ में वह अतिथि का स्वागत करना भी भूल गई। लेकिन अनुसूया और प्रियंवदा ने अतिथि का अभिवादन किया और उनसे विनती की कि वह आश्रम को अपने घर जैसा ही समझें। बाद में उनका स्वागत आश्रम की विशेष रीति से किया जायेगा। तीनों लड़कियां यह जानने के लिए बहुत उत्सुक थीं कि उनका अतिथि कौन है। वह बहुत ही सुन्दर और भव्य व्यक्तित्व का व्यक्ति था। उन्हें विश्वास था कि वह कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। अनुसूया और प्रियंवदा दोनों बहुत प्रभावित थीं। शकुन्तला राजा के भव्य व्यक्तित्व से सम्मोहित हो उठी। उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था और वह अपनी सखियों के पीछे छिपने का प्रयत्न कर रही थी। अनुसूया और प्रियंवदा अपनी उत्सुकता नहीं रोक सकीं। आखिर उन्होंने अजनबी से पूछ ही लिया कि वह कौन है।
राजा ने सीधा उत्तर न देकर केवल इतना कहा, “मैं तो आश्रम में केवल यह देखने आया हूँ कि यहां सब ठीकठाक तो है न।”
"कितना अच्छा होता यदि बाबा यहां होते। वह आपसे मिलकर बहुत प्रसन्न होते। लेकिन हम आपका स्वागत करते हैं,” प्रियंवदा बोली।
शकुन्तला चुप रही। उसे बहुत लज्जा आ रही थी और वह वहां से भाग निकलना चाहती थी लेकिन प्रियंवदा ने उसका रास्ता रोक लिया।
“क्या तुम मुझे घर नहीं जाने दोगी?" शकुन्तला ने कुछ परेशान होकर पूछा।
"नहीं, मेरी सखी।"
"लेकिन क्यों नहीं?"
"देवी जो करना चाहती है उसे करने दो। वह बहुत थकी हुई लगती हैं," राजा बोले|
शकुन्तला वहां से चली गई लेकिन राजा उसे ताकते ही रहे और उनकी आंखें उसका तब तक पीछा करती रहीं जब तक वह ओझल न हो गई। शकुन्तला भी दूर नहीं जा सकी और इस बहाने से कि उसका कपड़ा झाड़ी में अटक गया है, रुक गई।
“अब देवियो,” राजा बोले, “क्या मैं आपकी सुन्दर सखी के बारे में एक दो प्रश्न कर सकता हूँ?"
"क्यों नहीं, श्रीमान," उन्होंने उत्तर दिया।
"मेरे विचार में यह महर्षि की बेटी है," राजा बोले।
“जी, आप का विचार बिलकुल ठीक है।" और उसके बाद राजा ने "क्या महर्षि कण्व इसे भी तापसी बनाना चाहते हैं ?"
"वह महर्षि कण्व की गोद ली हुई बेटी है," अनुसूया ने बताया,“वह जन्म से ही उनके साथ है। वास्तव में यह ऋषि विश्वामित्र और इन्द्रलोक की नर्तकी मेनका की बेटी है। उसके माता-पिता उसे जंगल में छोड़कर चले गये थे। वह महर्षि कण्व को जंगल में मिली थी और वह उसे उठाकर आश्रम में ले आये थे। महर्षि अब उसके लिए योग्य पति की तलाश में हैं।"
दुष्यन्त ने चैन से गहरी सांस ली।
"कुछ देर पहले हमने अपने एक तपस्वी से सुना था कि राजा दुष्यन्त यहां पास ही हैं और किसी भी समय आश्रम में आ सकते हैं," प्रियंवदा बोली, "क्या आप महाराज दुष्यन्त हैं ?"
"हां, मैं दुष्यन्त ही हूँ,” उन्होंने स्वीकार किया।
दुष्यन्तने कहा,“मैं बस यह देखने आया था कि आश्रम में सब ठीक है न? आश्रमवासियों को किसी प्रकार की तकलीफ तो नहीं है।"
"महाराज, हम आपके बहुत आभारी हैं। क्या आप कुछ दिन यहां ठहरकर हमारा मान बढ़ायेंगे।" प्रियंवदा बोली|
"मैं जरूर ठहरूंगा,” महाराज बोले।
अचानक उन्होंने किसी को चिल्लाते सुना, “जंगली हाथी आश्रम को ओर आ रहे हैं। महाराजा दुष्यन्त के शिकार करने के कारण वे हड़बड़ा कर भाग रहे हैं।"