"मुझे तुरन्त जाना चाहिए और देखना चाहिए कि जंगली हाथी आश्रम की शान्ति को भंग न करें," महाराज बोले| जाने से पहले वे बोले, "मैं जल्दी ही वापिस आऊंगा।"
शकुन्तला वापिस अपनी सखियों के पास आ गई और सब फिर आश्रम की ओर चल पड़ीं। लेकिन शकुन्तला बार-बार मुड़-मुड़कर महाराज को देखती रही। राजा अपने सेवकों से मिले और पीछा करके हाथियों को दूर भगा दिया। फिर उन्होंने आदेश दिया कि सब लोग वापिस राजधानी लौट जायें। केवल सारथि उनके आश्रम से लौटने तक रथ के साथ उनकी राह देखे। यह आदेश मिलने पर सारथि ने घोड़ों को चरने के लिए खोल दिया।
आश्रम के लोगों ने जंगली हाथियों के भगा देने के लिए राजा के प्रति बहुत आभार प्रगट किया। सब लोग बहुत खुश थे। लेकिन आश्रम में एक ऐसा भी व्यक्ति था जो बहुत परेशान था और वह थी शकुन्तला। मन ही मन में उसने राजा दुष्यन्त को अपना प्रेमी स्वीकार कर लिया था लेकिन उसे इस बात का पूरा विश्वास नहीं था कि राजा भी उससे विवाह करने के लिए सहमत होंगे या नहीं। वह यह जानने को उत्सुक थी कि दुष्यन्त उसके बारे में क्या विचार रखते हैं। उसने एक कमल पंखड़ी पर मोर पंख से एक कविता लिखी जिसमें उसने यह स्वीकार किया कि वह राजा से प्रेम करती है।
उसने इसे अपनी एक सखी के हाथ राजा के पास भेज दिया। राजा को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि शकुन्तला भी उनसे उतना ही प्रेम करती है जितना वह उसे करते हैं। राजा अब उत्सुकता से महर्षि कण्व के लौट आने की राह देखने लगे।
उनके आने पर वह उनकी सम्मति से शकुन्तला से विवाह करना चाहते थे। उसके बाद वह उसे अपने साथ राजधानी ले जाना चाहते थे। लेकिन किसी को पता नहीं था कि महर्षि कब लौटेंगे। राजा आश्रम में और अधिक नहीं ठहर सकते थे। राज्य के बहुत से काम और समस्यायें उनके आने की राह देख रहे थे। उन्होंने शकुन्तला से मिलकर देर तक बातें की। उन्होंने बताया कि वह किन कारणों से राजधानी से और अधिक अनुपस्थित नहीं रह सकते।
उन्होंने उसे विश्वास दिलाया कि वह उसे बहुत प्रेम करते हैं और वह तभी जीवित रह सकते हैं जब वह उनकी रानी बनने को तैयार हो। उन्होंने प्रस्ताव किया कि क्यों न वे गांधर्व रीति से विवाह कर लें। शकुन्तला प्रसन्नता से इस बात पर सहमत हो गई, हालांकि मन ही मन वह चाहती थी कि यदि महर्षि कण्व विवाह के समय उपस्थित रहते तो अच्छा होता। उनका आशीर्वाद पाकर उसका हृदय प्रसन्न होता।
शकुन्तला और राजा दुष्यन्त ने फूल मालायें बदलकर गान्धर्व रीति से विवाह कर लिया। राजा दुष्यन्त कुछ दिन और आश्रम में रहे और फिर उन्होंने राजधानी के लिए प्रस्थान किया। जाने से पहले उन्होंने शकुन्तला को अपनी अंगूठी दी और वायदा किया कि वह उसे जल्दी ही बुला लेंगे और कहा कि उस से बिछुड़ना उन्हें भी अच्छा नहीं लग रहा।