युवती वधू को अपने पति से बिछुड़ना अच्छा नहीं लगा। वह अपने दिन एकान्त में राजा के बारे में सोचती हुई बिताने लगी। वह उनके आने के लिए प्रार्थना करती रहती थी। अनुसूया और प्रियंवदा उसकी दशा को जानती थीं, इसलिए वह उसे अकेला रहने देतीं।
एक दिन महर्षि दुर्वासा महर्षि कण्व के आश्रम में आये। शकुन्तला अपने ही विचारों में खोई हुई थी उसने महर्षि को आते हुए नहीं देखा। अनु- सूया और प्रियंवदा फूल चुन रही थीं। महर्षि दुर्वासा बहुत क्रोधी व्यक्ति थे। जब उन्होंने देखा कि किसी ने भी उनका स्वागत नहीं किया और न ही वहीं बैठी हुई शकुन्तला ने उनकी ओर ध्यान दिया तो उनका पारा तेज़ हो गया। उन्होंने शकुन्तला को श्राप दे डाला।
वे बोले, “जिस व्यक्ति के ध्यान में लीन होकर तुम अतिथि के प्रति अपना कर्त्तव्य भूल गई हो वह तुम्हें सदा के लिए भूल जायेगा ।"
शकुन्तला ने दुर्वासा के शब्द नहीं सुने लेकिन अनुसूया और प्रियंवदा जब घर लौट रही थीं तो उन्होंने ये शब्द सुन लिए। वे क्रोधित महर्षि के पीछे- पीछे भागी और उसके पैरों पर गिरकर विनती करने लगी कि वे उस भोली भाली लड़की को उसकी भूल के लिए क्षमा कर
"कृपा कीजिए महर्षि," अनुसूया ने विनती की, "शकुन्तला आपका अपमान नहीं करना चाहती थी। वह अपने विचारों में इतनी खोई हुई थी कि उसे अपने आसपास की दुनिया की खबर ही नहीं थी। इसी से आपका स्वागत न करने की गलती उससे हो गई। कृपा करके इस बार उसे क्षमा कर दीजिए।"
"देव, आप तो बहुत महान हैं,” प्रियंवदा बोली, “आप हमारे पिता के समान हैं। कृपा करके अपनी मूर्ख बेटी की गलती माफ कर दीजिए। छोटे तो सदा गलतियां करते ही हैं।"
पहले तो दुर्वासा ऋषि पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा लेकिन अन्त में वे शान्त हो गये और बोले, “तुम्हारी सखी जिसके बारे में सोच रही है, यदि वह उसे उसकी अंगूठी दिखा देगी तो उसकी स्मरण शक्ति लौट आयेगी।"
जब महर्षि दुर्वासा चले गये तो अनुसूया और प्रियंवदा ने चैन की सांस ली। वे दुर्वासा के श्राप के बारे में शकुन्तला को कुछ नहीं बताना चाहती थीं क्योंकि उन्हें विश्वास था कि शकुन्तला राजा की अंगूठी सदा अपने पास रखेगी।
महर्षि कण्व कुछ दिनों बाद आश्रम में वापिस आ गये। उन्हें आश्रम में राजा दुष्यन्त के आने का और शकुन्तला से विवाह का समाचार पाकर बहुत प्रसन्नता हुई। दिन बीतते गये। राजा ने अपने वायदे के अनुसार शकुन्तला को अभी तक नहीं बुलाया था। महर्षि ने निश्चय किया कि शकुन्तला को राजा के पास भेज देना चाहिए और उन्होंने उसकी तैयारियां शुरू कर दी। यद्यपि इस बात से सब खुश थे कि शकुन्तला उस देश की महारानी बनेगी लेकिन फिर भी उसके जाने की बात से सब आश्रमवासी उदास हो उठे। आदमी, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, सभी शकुन्तला को प्यार करते थे।
शकुन्तला ने शहर के लोगों की तरह या राजा के परिवार की तरह कभी कपड़े नहीं पहने थे। वह आश्रमवासियों की तरह ही कपड़े पहनती थी। वे मृगचर्म या पेड़ों की छाल के बने होते थे। उसने कभी सोने या चांदी के आभूषण भी नहीं पहने थे। उसके आभूषण फूलों के बने होते थे। वह इन्हें ही पहनकर खुश रहती और बहुत सुन्दर भी दिखाई देती। लेकिन अब वह राजमहल में जा रही थी और वहां के योग्य कपड़े और आभूषण उसके पास होने चाहिएं। महर्षि कण्व इस बात को जानते थे।
इस-लिए उन्होंने शकुन्तला के लिए बढ़िया-बढ़िया कपड़े और आभूषण बनवाये। अनुसूया और प्रियंवदा ने इन्हें पहनने में शकुन्तला की सहायता की। अपने नये कपड़ों और आभूषणों में शकुन्तला एक देवी की तरह दिखाई देती थीं। जब शकुन्तला के विदा होने का समय आया तो महर्षि कण्व ने आश्रम- वासियों, तपस्वियों, पक्षियों, पेड़-पौधों, मधुमक्खियों तथा तितलियों सबसे कहा कि उनकी शकुन्तला अब अपने पति के घर जा रही है, इसलिए उन सबको उसे आशीर्वाद और शुभ कामनायें देनी चाहिएं।
शकुन्तला सबके पास विदा लेने के लिए गई|