माधव उसी दरवाजे से बाहर निकल आया जिससे भीतर गया था। मालती भीतर जाकर भगवती कामंदकी से मिली और उन्हें नमस्कार किया, “भगवती आप कैसी हैं । अभी तक तुम कहां थी?" कामंदकी ने पूछा। “मैं तुम्हें सब जगह ढूंढ आयी।”
“बहुत देर तक तो मैं छज्जे पर खड़ी रही। फिर नीचे चली गई। थोड़ासा टहली और फिर जब आपने पुकारा तो आपके पास आ गई। मैंने एक खुशी की खबर सुनी थी इसलिए मैं तुमसे मिलना चाहती थी|" मालती ने कहा|
भगवती कामंदकी ने कहा, "मैंने सुना है कि तुम कल एक युवक से मिली थीं, तुमने उसका फूलों का हार भी स्वीकार कर लिया था। यह सच है??"
मालती ने स्वीकार किया, "और मैं अभी भी उससे कुछ देर के लिए मिली थी। उसका नाम माधव है। वह विदर्भ राज्य के एक मन्त्री का बेटा है। वह यहां विश्वविद्यालय में पढ़ता है। उसने मुझे अभी अभी बताया कि उसके पिता ने उसे आप से मिलने के लिए कहा था।”
"हां, हां," भगवती कामंदकी बोलीं ,“ मुझे सब कुछ पता है। वह अभी तक मुझ से मिला नहीं। शायद तुम रास्ते में आ गई होगी|" उन्होंने मालती को चिढ़ाया।
“जी नहीं|” मालती ने विरोध किया, “मैं तो उससे कल ही मिली हूँ और वह यहां कई महीने से है।"
“किन्तु," भगवती कामन्दकी ने कहा, “वह कई महीने से तुम्हारे घर के नीचे तुमसे मिलने के लिए चक्कर जो काटता रहा है। वह बहुत अच्छा लड़का है। वह मेरे एक पुराने मित्र का बेटा है। मैं तुम दोनों का परिचय करवाने की योजना बना रही थी। लेकिन तुम दोनों तो मेरी सहायता के बिना ही मिल लिये। अब मैं उससे मिलना चाहूंगी। उसे ऐसा कह देना। शायद तुम उसे मेरे पास ला सको।”
"अवश्य,” मालती बोली, “मैं पूरी कोशिश करूंगी।”
मालती और माधव बहुत बार छिपकर मिले। वे घंटों बातें करते रहते। वे बगीचे या वन के बाहरी भाग में चले जाते। उन्होंने एक दूसरे को उपहार भी दिये और एक दूसरे के चित्र भी बनाये। उनका प्रेम दिनों दिन बढ़ता गया। वे बहुत खुश थे। वे भगवती कामन्दकी से भी बहुत बार मिले और उनसे बातें की।