अनिष्टकारी विद्याओं में मूठ एक ऐसी विद्या है जिसका नाम सुनते ही रोम-रोम मरा-मरा हो उठता है। भयावनी अकाल मृत्यु सामने दिखाई देती है इस पापिनी पिशाचिनी का नाम लेना ही नरक जाना है। मूठ मारो या सात पीढी तारो जैसी कहनी से स्पष्ट है कि इसके साथ कितनी घृणा और हेय दृष्टि जुडी हुई है मगर राजस्थान में तो इस मारक विद्या का बड़ा कोप प्रकोप है। मूठ का बणज करने वाला कभी फला फूला नही है।
उसकी भौत कुत्ते से भी गई बीती मौत समझी गई है। वह स्वय ही नहीं, उसका सारा परिवार कण कण का होता देखा गया है और कहते हैं उसकी सात पीढियों तक इसका कुअसर रहता है फिर भी लोग है कि जो जरा-जरा सी बात पर अपने दुश्मनों को मूठ द्वारा अगत मौत देकर ही दम लेते हैं। रिद्धि सिद्धि मगल के दाता गणेशजी भी मूठ के पके पकाये खिलाडी थे, आदिवासी भीलों के गवरी नाच का भारत में एक किस्सा आता है कि दशहरे के दिन देवियाँ मानसरोवर मे पाती विसर्जित करने गई तब बेढव डीलडौलधारी गणपत को सोया ही छोड गई।
सुबह जब आंख खुली तो गणपत अपने को अकेला पा बडे आग बबुला हुए। उन्होने आव देखा न ताव, वहीं से उडद मंत्र कर फैंके जिससे जाती हुई देवियों के रथ के पहिये पाताल मे जा घुसे और धरूडे आकाश में जा लगे। सारे देवी देवताओ में खलबली मच गई। पचासों उपाय किये मगर रथ टस से मस नहीं हुए तब किस समझे बुझे की शरण ली गई। रथ पर मुट्ठी वारी गई और धारनगर ले जाकर धारिये भील को बताई गई मुट्ठी देखकर धारिये ने देवी अबाव को सारी घटना कह सुनाई।
यह कि देव लमालिये में गणपत को अकेला छोड देने के कारण उसी ने मूठ चलाकर यह गडबड किया है। उसे जाकर मनाओं तो ही स्थिति पूर्ववत् हो सकेगी: यही हुआ। देवी ने गणपत को मनाते हुए कहा कि आगे से जो भी नया शुभ कार्य किया जायगा, सबसे पहले तुम्हारी मानता होगी। तब जाकर गणपत ने अपनी मूठ वापस झेली और अब हर नये शुभ कार्य पर विघ्नहरण के लिये लबोदर गणराज को पाट बिठाया जाता है|
जमा भार मूठ कई प्रकार की होती है। मोतीरामबा ने अपने उम्ताद से इसके नीर मोसाद प्रकार सुने थे| मानजीबा ने तो इसे पोप विद्या कह कर भी इसके अस्निन्दको किस्सो मे कह दिया। बोले कि मूठ यूं तो हवा का गोटा है जिस पर के उस पर हनुमानजी के गोटे की तरह असर करती है। आषाढ माह मे मूर्दे की खोपडी को जमीन में गाढकर उसने उदद बोये जाते है और जब जो उडद तैयार होते है उन्हे मंत्र द्वारा पकाया जाता है, उडद के अलावा कई ज्वार, मूग के दानों को भी मूठ के लिये साधते है पर उडद ज्यादा असरकारी समझे जाते है। एक व्यक्ति ने तो मुझे कंकड़ियों के माध्यम से मूठ का एलम पकाने की बात बताई।
उसने कहा कि कलाल जाति के किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर गत को बारह बजे उसके सिरहाने खडे होकर एक मंतर पढते जाओ, एक ककरी छोड़ते जाओ, इस प्रकार एक सौ आठ बार मतर पढकर एक सौ आठ कांकरिया साध ली जाती है, वह जल्दी-जल्दी में मत्र कुछ इस तरह बोल गया -
||ॐ हडुमान हठीला|| दे वज्र का ताला||
||तो हो गया उजाला|| हिन्दू का देव||
||मुसमान का पीर|| वो चलै अनरथ||
||रैण का चलै|| वो चलै पाछली रैण को चलै||
||जा बैठे वेरी की खाट|| दूसरी घडी||
||तीसरी ताली वैरी की खाट मसाण में||
मैने जब उसे ठीक से पूरा मत्र बोलने को कहा तो उसने कहा कि मंतर बताने का नही होता। जो कुछ उसने बताया वह भी गलती कर गया।
कलाकार रमेश ने बताया कि एक मूठ यह बोलकर भी साधी जाती है|
||डकणी बांधू सकणी बांधू चलती बांधू मूठ||
||दुसमण की बत्तीसी बाधू पडे कालजो टूट||
मूठ श्मशान जगाकर, निर्जनवन में प्राय: बबूल वृक्ष के नीचे, कंठ तक पानी में डूबकर, उल्टी धट्टी चलाकर भी साधी जाती है। इन सबमें नग्न साधना आवश्यक है। यह प्राय: नवरात्रा में या फिर धनतेरस, रूपचवदस तथा दीवाली की काली रातों में पकाई नाती है। भैंसा, बकरा तथा मुर्गे का रक्त भी इसके लिये अनिवार्य है।
एक मूठ तो वह होती है जो तीसरी ताली में सारा काम तमाम कर देती है और एक मूठ वह जो मियादी होती है। इसमे तीन घटे से लेकर तीन दिन, तीन महीने, तीन वर्ष जैसा समय होता है। इन मूठों में जहा कंकड, मूंग, मोठ के दाने चलते हैं वहां मात्र शब्द भी चलते हैं| देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने बताया कि अहमदाबाद मे मुनि जेठमल और यति वीरविजय के बीच शास्त्रार्थ चला तो जेठमल मुनि पर एक-एक कर बावन मूठ आई।
जैन साधु होने के कारण मुनिजी किसी अन्य पर उसका प्रहार नहीं चाहते थे अत, उन्होने बावन ही मूठ किवाड पर झेलली जिससे उस पर बावन छेद हो गये। देवेन्द्र मुनि ने बताया कि ग्रंथो में पेशाब पीकर तथा शौच जाते हुए मूठ साधने के उल्लेख मिलते है। सचमुच में यह असुर साधना है। मूठ ततर, मतर, जंतर तीनो है| मूठ फैकने वाला मूठ को झेलने, थामने, ठहरा देने तथा वापस करने का भी जानकार होता है। मूठ सिक्खड सर्वप्रथम वृक्षों पर अपना प्रयोग करते है।
ऐसी स्थिति में जब मूठ डालने पर लहलहाता वृक्ष सूखकर कांटा बन जाय और पुन: कांटा बना वृक्ष लहलहाने लग जाये तो समझ लिया जाता है कि मूठ की सार्थक पकाई हो गई है तब मनुष्यो पर इसका प्रयोग प्रारभ कर दिया जाता है। मेवाड का आमेट क्षेत्र तथा पाली का चामुण्डेरी, नाणा एवं जालोर का सियाणा, बागरा क्षेत्र मूठ का बडा प्रभावी क्षेत्र रहा है। आदिवासियों मे इसका प्रचलन सर्वाधिक मिलता है।
इनमें आम तथा महुवा जैसे वृक्षों पर खूब मूठ मारी जाती है जो इन आदिवासियों की आजीविका के मूलाधार है। ये आदिवासी मूठ बाधने में बड़े तगड़े होते है। फसल पकने पर अपने पूरे खेत को ऐसा बांध देते है कि कोई भी फसल को नुकसान नही पहुंचा सकता। यदि कोई खेत मे घुस जायेगा तो वह वहीं घूमने लग जायेगा और वहां से भागता बनेगा। इसी प्रकार गन्ने का रस उकलते गुड के कढाव बाध दिये जाते हैं।
बकरे का लौह करने जाते वक्त तलवार बाध दी जाती है। और तो और शराब की भट्टी तक बांध दी जाती है जिससे लाख प्रयत्न करने पर भी शराब की एक बूंद नहीं बन सकती। मनोविनोद के सार्वजनिक अवसरों-सस्कारों पर भी मूठ का प्रयोग बहुतायत में देखा गया है। भीलों के सुप्रसिद्ध गवरी नाव में जब सारे गांव के भील मिलकर अपने आदि देव महादेव शंकर को रिझाने के लिये सवा महीने की गवरी लेते है तो उसे जादू टोना तंतर मंतर मूठ आदि सर्वनाश से बचाने के लिये किसी होशियार मादलिये की खोज करते है। मादलवादक ही ऐसा जानकार होता है जो समग्र गवरी की रक्षा करता है।
अच्छे जानकार मादलिये के अभाव मे गवरी ली ही नही जायेगी। डालू भील ने बताया कि गवरी में अक्सर कर भिंयावड़ गोमा नट अजूबा भारत बूडिया तथा राइयों पर मूठ फैकी जाती है। मादल बजाने वाला मादलिया गवरी प्रदर्शन के दौरान बड़ा सचेत रहता है और मूठ आदि को झेल कर, कभी कभी जैसी आई वेसी थाम कर अभिनेताओ की रक्षा करता है।
एक बार की गवरी में जब बणजारे का अभिनय चरम सीमा पर था कि मादलिये ने विना किसी खेल के व्यवधान के अपने पास म पडे एक जूते को त्रिशूल के ऊपर ठहरा दिया। जूता बिना किसी सहारे के अपने आप चक्कर खाता रहा। गवरी का खेल भी यथावत चलता रहा। बाद में पता चला कि बणजार पर किसी ने मूठ फैकी थी जिसे मादलवादक ने जूते के सहारे थाम ली। यह मादलिया अपने साथ एक लाल झोली रखता है जिसमें कुछ नींबू मतरे हुए पड़े रहते हैं।
गवरी में नाचने वाले लोगर ने बताया कि दो वर्ष पूर्व भारतीय लोक कला मंडल में काम करने वाला कलाकार गोपाल गवरी में बणजारे का साग करते मारा गया जिस पर किसी ने मूठ की थी। यही नही नाथद्वारा के पास थोरा घाटा में रम रही सम्पूर्ण गवरी ही मूठ की ऐसी शिकार हुई कि वहीं की वहीं ढेर हो गई। जहा सभी खेल करने वाले खेल्ये मरे वहां उन सबके स्मारक के रूप में पत्थर के पूर्वज बिठा रखे हैं जो उस घटना को ताजी क्रिये है। यह गवरी भवानी माता की भागल गाव की थी।
पुतलो के रूप मे मूठ के भी कई अजीब करिश्मे देखने सुनने को मिलते है। इस प्रकार की मूठ मे जिस व्यक्ति को मौत देनी होती है उसके नाम का पुतला बनाया जाता है। यह पुतला आटे का, नमक का, मिट्टी का अथवा कपड़े का बना होता है और इस मतर कर किसी कुए बावड़ी मे या जमीन में डाल दिया जाता है। ज्यों-ज्यों यह पुतला घुलता रहता है त्यो त्यो मूठ किया व्यक्ति क्षीण होता रहता है और अन्त में यदि किसी समझे-बुझे से पुख्ता इलाज नही करवाया गया तो उसे मृत्यु की शरण लेनी पड़ती है।
इन पुतलों में जगह-जगह पिनें भी लगाई जाती है। इसका आशय यह होता है कि जिस- जिस स्थान पर पिन लगाई गई है, मूठकारी व्यक्ति का वह-वह स्थान बड़े कष्टो से गिरा रहता है और ऐसा दर्द होता है जैसे किसी ने एक साथ हजारों पिने चुभो दी )।
पुतलो की तरह ऐसे ही प्रयोग पिनें चुभे नीबू को लेकर किये जाते हैं। युवा पत्रकार श्री ब्रिजमोहन गोयल ने अपने जन्म स्थान फालना का किस्सा सुनाते हुए कहा कि एक बार वहां के रकबा मोची और उसकी एक महिला रिश्तेदार के बीच बडी जोर की तनातनी हो गई तब उसकी रिश्तेदार महिला ने उससे कह दिया कि यदि सात दिन के अन्दर-अन्दर तेरे को नहीं देख लिया तो अपने बाप की असली मूत नहीं। रकबा के दिमाग से यह बात आई गई हो गई मगर सातवे ही दिन जब वह अपनी दुकान में बैठा
गोयल से स्वस्थ चित्त मन बात कर रहा था कि अचानक मुँह के बल गिरा, पेशाब छूटा और स्वांस निकाल दी। बाद में गोयल ने वहा एक नीबू पडा देखा जिसके सात पिने लगी हुई थी मगर वह नीबू कहां से कैसे वहा आया, अब तक एक पहेली बना हुआ है। लोग- बाग आज भी कहते सुने जाते हैं कि रकबा को उस महिला ने मूठ से भरवा दिया। कभी-कभी आपस मे बडी जोर की अदावदी हो जाती है तब एक पक्ष दूसरे को मूठ से मरवाने का खुला निमंत्रण दे बैठता है। ऐसा ही एक निमत्रण आज से कोई पैंतालीस वर्ष पूर्व नागौर जिले के डोडियाना गांव में जेठमल दरजी को दिया गया।
कहा गया कि फला दिन सुबह तुम्हारे घर पर मूठ आयेगी हिम्मत हो तो उसका मुकाबला करना। उसी दिन सुबह ठीक साढे आठ बजे जेठमल के घर से धुआ उठा। धुंआ उठते ही सारा गाव उलट पडा और अपने-अपने घरों तथा बावड़ियों से पानी ला-लाकर मकान को भस्म होते बचाया! यह अच्छा हुआ कि केवल मकान जल पाया, कोई आदमी मरा नहीं। बाद में वहां से कपडे का एक पुतला निकला जिसमें पिर्ने लगी हुई थी।
डॉ. नेमनारायण जोशी ने अपने गांव की यह घटना सुनाते हुए कहा कि समझे-बुझे ऐसे आदमी भी देखे गये हैं जो हाथ की पाचों ऊगलियों की पांचो नाडियो को देखकर बीमारी का पता लगा लेते हैं। कहते हैं कि अगूठे और उसके पास वाली ऊगली की नाडी यदि नहीं चलती है तो सुबा हो जाता है कि किसी ने कोई कला कर दी है यारी मूठ फैकी है या कि वीर चलाया है या सिकोतरी-सिकोतरा किया है।
यह मूठ पुरूष ही चलाते फेंकते हैं, कहीं नहीं सुना कि औरतें भी मूठ फैंकती हों। लेकिन औरतों में एक अलग प्रकार है माईजी का जो मूठ का भी बाप कहा जाता है। यह पशुओं को यदि लग जाय तो उनका वहीं कलेजा निकल जाये। भोमट के प्रत्येक आदिवासी परिवार में सिकोतरी साधा व्यक्ति मिलेगा। यह उनके घर की रक्षिका है। यदि कोई पशु आदि चोर ले गया तो यह उसकी प्राप्ति कराकर ही रहेगी।
दीवाली की काली रात को कई लोग उल्लू वश में करने की कठोर साधना करते हैं। कहते हैं यह बड़ी मुश्किल से वश में होता है। यदि वश में आ गया तब तो जो चाहो सो पाओ पर यदि विपरीत स्थिति पैदा हो गई तो सिवाय अपनी जान गंवाने के और कोई चारा नही।
उदयपुर के पास कुडाल गाव के एक डांगी ने चार उल्लू इसी दृष्टि से पाले मगर उल्लू उसके वश में नहीं हो सके उल्टा डागी ही उल्लूओं द्वारा मार दिया गया।