राजस्थान में एक से एक बढ़ चढकर कई दुर्ग हैं मगर गढ तो चिनौडगड ओर सब गलैया' ही कहे जा सकते हैं। चित्तौड़ कई बार जाना हुआ। कभी ग्राम्य मनोरजन के सूर्य की पहली किरण तक रात-रात भर खेले जाने वाले तुर्ग ख्यालो के उस्ताद चैनगम से मिलने तो कभी बहुरूपियो की स्वांग-झांकियों के सिलसिले में।
बस्सी गाव भी इसी के पास स्थित है जहा की काष्ठकला-कठपुतलियां और कावडों ने विदेशियों तक को प्रभावित कर रखा है। चित्तौड के छीपे भी बड़े प्रसिद्ध हैं जो कपड़ों पर पुरानी चाल की छपाई करने में करीगर उस्ताद है। चित्तौड़ का किला तो बड़ा जोर जबर्दस्त है ही। यहा का प्रत्येक कण अपने आप में इतिहास शौर्य का जीता जागता दस्तावेज है किन्तु उतना ही अब मौन शान्त गुपचुप। चाहिये उसे कोई जगाने वाला। जो बुछ यहा सुनने-पढ़ने को मिलता है वह तो 'कुछ नही-कुछ नहीं है।
यहीं लोगों के मुह से सुना कि हर दीवाली भूतों का बड़ा भव्य मेला लगता है। जानने को तो| सारा चित्तौड जानता है यह बात। आसपास के इलाके भी जानते है मगर देखा किसी ने नही। यह देखा मैंने। पहली बार एक देहधारी मनुष्य ने, लोकदेवता कल्लाजी की दिव्यात्मा ने अपने सेवक सरजुटासजी के शरीर में प्रविष्ठ हो मेरे अन्तर्चक्षु खोले और १५नवम्बर,१९८२ की दीवाली को इस अद्भुत, अलौकिक एव अविस्मरणीय मेले का साक्षात्कार कराया। इस साल दो दीवाली पड़ी।
यह मेला भी दोनों दीवाली को भरा। दीवाली के एक दिन पूर्व, रूपचवटस को ही मैं सरजुदासजी के साथ चित्तौडगढ पहुच गया। वहा अन्नपूर्णा माता के मन्दिर में हमारे ठहरने की व्यवस्था हो गई। रात को दस बजे करीब हम सोने को ही थे कि अचानक सरजुदासजी के शरीर में सेनापति मानसिह का भाव आया।
नीची बन्द आखें किये बडे नपेतुले शब्दो में वे बोले, “मुझे दो दिन पहले भेजा है सारी व्यवस्था के लिए| दस हजार सैनिक जगह-जगह नाकेबदी कर खडे हैं, आप लोग जब तक यहा रहेगे तब तक वे आपकी रक्षा के लिए यहीं रहेंगे कास दुनियां ने मुझे नमकहराम कहा पर मै नमक को कभी नहीं भूला। बडे-बडे राजा हमारे पीछे थरथराते थे। कोई नहीं जानता कि दुश्मन के घर रह हमने खाया पीया मगर काम अपना किया।”
“यह जय चित्तौड है। यहां बडी-बडी सतिया हुई है। यह एक ऐसी धरती है जिसे जब-जब भी प्यास लगी, इसने पानी के बजाय खून लिया है । इस मेले मे सभी तरह के लोग आयेंगे। अच्छे भी होंगे और बुरे भी। जो कुछ देखें मन में रखें।”
मैने विनीत भाव से उनकी यह बात सुनी और “हुकम-हुकम” कहा।
अपनी इस बात के दौरान उन्होने बार-बार ‘दुनिया के बेटे’ और ‘जय विश्वम्भर’ शब्द का उच्चारण किया। यह सब कहकर, हमे सावचेत कर, भलावण देकर मानसिह जी चले गये पर रात को जब-जब भी मेरी नीद खुली, मैंने पाया कि मानसिहजी उस पूरी रात सारी व्यवस्था ही करते रहे। कभी मैने सुना वे निर्भयसिहजी को बुलाकर आवश्यक निर्देश दे रहे है तो कभी सिणगारी-वाई से बातचीत कर रहे है कि सारी व्यवस्था देख लेना।
यह कर लेना, वह कर लेना| वे कइयों के नाम लेते जा रहे है और फटाफट निर्देश देते जा रहे हैं। दीवाली के दिन, दिनभर मैने शिवमन्दिर और उसके अहाते में बने महल मे मीरा बाई का निवास देखा। महल के सामने मीरां की दोनों दासियों के खडहर-चबूतरे देखे। पास में बना भोजराज का महल देखा। गोमुख देखा और जौहर कुंड देखा।
उधर लाखोटिया बारी का वह लम्बा फैला परिक्षेत्र देखा। वह स्थान देखा जहा जयमलजी रात को टूटी हुई दीवाल ठीक करा रहे थे कि धोखे से अकबर ने अपनी ‘संग्राम’ नामक बन्दूक का उन्हें निशाना बनाया। उनकी टाग में गोली लगी। वे जिस चट्टान पर जाकर सोये वहा अभी भी खून गिरा हुआ है। मेरे साथ सरजुदासजी कम, कल्लाजी अधिक रहे।
जब-जब भी उन्हें किसी स्थान के सम्बन्ध मे किस्से, बीती घटना, इतिहास और उससे जुडे प्रसग बताने होते वे सरजुदासजी मे साक्षात हो आते और एक-एक कण-कण का विस्तृत हाल बता जाते, रोमांचित कर जाते। उनके जाने के बाद मुझे वे सारी चीजें सरजुदासजी को बतानी पड़ती कारण कि तब सरजुदासजी नहीं होते कल्लाजी होते।
मीरां के सम्बन्ध मे तो कई चौकानेवाली बातें बतायी। उसका तो सारा इतिहास ही अलग है। वह फिर कभी कहा जायेगा। शाम को ७ बजे करीब मैं और सरजुदासजी मेले के लिए अन्नपूर्णामाता के मन्दिर से चले, साथ में मिठाई, नमकीन, धार (शराब), गूगल, अतर, अगरबत्ती, अमल, ककू, केसर, चांवल, रोली, पानी, हुक्का, गुड मिश्रित गेहूं की घूघरी, (बाकला) आदि लिया ताकि मेले मे आये सुगरे नुगरे देवताओ को राजी कर सकें। मंदिर के अपने कमरे से बाहर आकर सर्वप्रथम हमने सबको नूता न्यौता दिया|
उन्होने कहा “जितने भी देवी देवता पीर पैगम्बर शूर सती हैं, सब मेले मे पधारजो, हम आपको नूतने आये हैं। हमें और कुछ नहीं चाहिये, केवल आपके दरसन करने आये हैं।”
हम कालिका मन्दिर के सामने जाकर बैठ गये ओर एक बिछात पर सारा सामान तरतीबवार रख दिया। अधेरा घना वढता जा रहा था। कोई आवागमन नहीं था। लगभग साढे आठ बजे तक हम चुपचाप बैठे रहे और प्रतीक्षा ही करते रहे। इस बीच कभी कोई जोर की आवाज आती, कभी जोरों का कोई प्रकाशबिब आता दिखाई देता।
कभी हवा जोर की सन्नाटेवाली लगती और कभी बिल्कुल शांत। कभी किसी स्थान विशेष पर लगता कि आदमियों का जुडाव है तो कभी पास दूर महल-खण्डहरों मे चहलपहल होने का अहसास होता। हम आँखे फाड-फाड़ कर दूर नजदीक अपने आसपास चारों ओर देखते। मुझे लगता जैसे कोई पुष्पक विमान आया और पुनलोप हो गया। लगभग साढे नौ बजे|
अचानक मानसिंह जी आये और बोले “जल्दी करो, अपना सामान समेटो, सब इधर ही आने वाले है, दो दीवाली होने के कारण इस दीवाली पर नुगरे (बुरे) ही अधिक आये हैं मगर आप डरें नहीं। मै आपके साथ रहूंगा।”
सारा सामान समेटने में मुझे कोई समय नहीं लगा और मैं चल पडा उनके साथ। ऐसा लग रहा था कि किसी बड़ी भीड़ मे मैं जा फंसा हू। जैसे जानवर भडक गये हों और बेरोकटोक भाग रहे हों ऐसे भूतप्रेत भागे जा रहे थे धक्कामुक्की करते। भीड भरे मेलों में जो स्थिति होती है वैसी ही मेरी होती रही मगर उसी तेजी से मानसिंह जी कभी बाकले लुटाते, कभी मिठाई, कभी धार देते। पूरे रास्ते हम त्वरा से बढते रहे। बीच राह पर एक जगह मुझे उन्होंने रोक दिया। सामने देखा, पत्ता महल के पास वाले तालाब में घुड़सवार के रूप में जयमलजी की आकृति।
एक तेज प्रकाशपुंज। पृष्ठभूमि में घना काला अंधेरा। काफी देर तक मैं उस दिव्यात्मा के दर्शन करता रहा। बडा आत्मीय सुख मिला। जब तक मेरा मन भरा नहीं तब तक वह दिव्य आत्मा मेरे सम्मुख बराबर बनी रही। इसी फत्ता,महल के आसपास डेरे डले हुए थे। तम्बू लगे हुए थे। थोडी देर बाद पत्ता महल से जोर-जोर की आवाज आई। मुझे सावचेत किया गया।
मैंने देखा, महल के बीचों बीच ठेठ भीतर तक वैसा ही एक प्रकाशपुज कुछ अधिक तेजोमय दिखा आकृति विहीन यह दाताजी कृष्ण की छवि थी, इसके पश्चात एक अपेक्षाकृत छोटी दिव्याकृति और दिखाई दी। यह कुभाजी की थी। एक विराट आदमकद आकृति। यह सब कुछ दस ही मिनट का खेल रहा होगा। कालिका मन्दिर से मोती बाजार तक की कोलतार से बनी पक्की सडक हमने कैसे नापी कुछ पता नहीं चला। पता चला भूतो का मेला इनका एक कण तक नही गिरा। धार की बोतल खाली की मगर कोई बूतक नहीं आई।
अंत में बोतल फैक दी पर उसकी कोई आवाज नही सुनाई दी। रास्ते मे एक क्षण को मुझे लगा कि जैसे मैं भी हवा में बह गया हूँ पर दूसरे ही क्षण मैं अपनी सही स्थिति में आ गया। मोती बाजार पहुंचते-पहुचते एक ट्रक सामने आती हुई मिली| मानसिंहजी ने बताया कि ट्रक में बैठे आदमियो में से दो भूतों की झपट में आ जायेंगे। सुबह सुन लेना कि दो के कलेजे चले गये। इस बार मुख्य दरबार जुडा कुभा महल मे। वैसे प्रतिवर्ष पद्मिनी महल में जाजम बिछती है।
आम दरबार जुडता है वैसा ही जैसा चित्तौड़ में राणाओं के समय जुडता रहा। एक-एक पंक्ति में छ-छ बैठके रहती है। सब अपनी-अपनी जगह, अपनी हैसियत के अनुसार बैठते हैं। सरदार, उमराव, ठाकुर, महाराणी, ठुकराणी, दास, दासी, नौकर, चाकर सब उसी तरह के ठाठ। सारा राजसी रग ढंग। यह मेला भरता है दो-ढाई घटे के लिये। वे ही सब दुकानें जो तब लगा करती थीं। अकाल मृत्यु में जो खो गये उन सबका मिलन मेला है यह। इस मेले में सबसे ज्यादा मिठाइया बिकती है। भेष बदल-बदल कर आदमी वेश में ये लोग जाते हैं और मणों बंध मिठाइया खरीद लाते हैं।
चित्तौड़ के किले पर कुल सत्रह जौहर हुए । तीसरे जौहर के बाद संवत् १७०२ मे यह अदृश्य मेला प्रारम्भ हुआ। अकाल मृत्यु प्राप्त कर जो जीव इधर-उधर भटक गये उनसे आपसी मेल-मिलाप हेतु प्रतिवर्ष दीवाली को इसका आयोजन रखा गया। कई राजपूतों के बालक मुसलमानों के हाथो चले गये जो मुसलमान बना दिये गये परन्तु उनकी खांपें मुसलमानों में अभी भी उनकी साक्षी है। चुहाण, सिसोदिया, राठौड, डोड्या ये सब खापें राजपूतों की है जो आज मुसलमानों में भी पाई जाती हैं। इन खापो के लोग मूलतः राजपूत रहे है।
सांईदास, ईसरदास और वीसमसिंह तो बडे जबरे वीर थे। इन तीनों ने मिल कर 50 हजार दुश्मनों का सफाया कर दिया। एक ही तलवार से साढे तीन सौ का खेल खत्म कर दिया। जयमलजी तो सारे युद्ध का सचालन करते थे। उन जैसा युद्धवीर रणबाज दूसरा नही हुआ। उनमें दस हाथियो जितना बल था। चित्तौड़ की चप्पा-चप्पा भूमि की अखूट गौरव गाथा हैं। मेरे लिये तो सबसे बडी यही उपलब्धि रही कि मैं इस अदृश्य मेले के अलौकिक रहस्य को अपना दृश्य बना सका, अपनी दृष्टि दे सका...!
यह मेला मेरे लिये तो गूगे का गुड ही बना हुआ है। कल्लाजी बावजी ने यह कृपा केवल मेरे पर की तो मैने यह ठीक समझा कि इसका जायजा वे लोग भी ले जो कभी इसे साक्षात् सम्भव हुआ नहीं मान सकेंगे, केवल सुन अवश्य सकेंगे
“जब जब भी आप चित्तौड जायेंगे तब जरूर दिवाली के दौरान जाईये,
वहाँ प्रतिवर्ष भूतों का मेला लगता है,वह भी दीवाली की गहन रात…!!!”