हमारे देश मे प्रचलित धार्मिक-अध्यात्मिक पंथों में कांचलिया अथवा कुडा एवं ऊंदऱ्या पंथ ऐसे विचित्र, अद्भुत और अनूठे पंथ हैं जिनकी पत किसी दूसरे पंथ से नहीं की जा सकती। कुडा पंथ: इसे बीसनामी पंथ के नाम से भी जाना जाता है। लोकपुरूप रामदेवजी इसके मूल उपजीव्य रहे है। अछूतो एव पतितों के उद्धारक के रूप में रामदेव जी की लोक कल्याणकारी सेवाये बडी उल्लेखनीय रही है।
रामदेवजी बड़े अच्छे भजनी थे। अच्छे गायक के साथ-साथ अच्छे तन्दूरा-मजीरा वादक भी थे। उनकी वाणी का विचित्र व्यापक प्रभाव था। वे जहां भी जाते, सबको सदैव के लिए अपना बना लेते। वे जहां भी बैठते, कीर्तनियो-भजनियों का अपार समूह उमड पड़ता। सभी लोक भजनभाव में तल्लीन हो जाते और रात-रात भर अलख-आनन्द की बरसात होती रहती। इस भजन संगत में दूसरे सत भक्त-साधकों के साथ-साथ स्वय अपने भजन रचते रहते और भक्त लोग बडी तन्मयता के साथ उनकी वाणी को विस्तार देते रहते। रामदेवजी के ये भजन मुख्यतः ‘परवाण' कहलाते है।
ये परवाण भजनो के ही अनुरूप होते हैं, फर्क केवल इतना ही रहता है कि ये भजन थोडे बडे होते है। इनका गायन भजनों के अंत मे होता है। आज भी कूडा पंथी लोग अपने भजनो के अन्त में रामदेवजी के परवाणों का उच्चारण कर श्रद्धाभिभूत हो उठते है। रामदेवजी के भक्त-भजनियों में जरगा नामक भजनी उनका प्रमुख चेला था।
यह जाति से बलाई था जो आगे जाकर उनके घोडे का चरवादार नब कर रामदेवजी की चरण-सेवा में रहा। प्रसिद्धि है कि एक बार रामदेवजी जरगा के साथ कहीं परचा देने जा रहे थे। देर रात हो जाने के कारण रामदेवजी जरगा तथा घोडे को एक स्थान पर छोडकर शीघ्र ही लौट आने को कह कर अकेले ही परचा देने चले गये रामदेवजी पाचा तो दे,आये परन्तु जरगे की स्मृति उन्हें नही रही और वे कहीं अन्यत्र जन-कल्याणार्थ निकल गये।
रामदेवजी की आज्ञा से जरगा और घोडा खडे के खडे रहे तो निर्जीव हो गये। बाद मे रामदेवजी को अचानक जब जरगे की याद आई तो वे तत्काल उस स्थान पर पहुंचे। देखा तो जरगा व घोडा दोनों सूखे काठ बने हुए है। उन्होने अपने आलम से दोनो को सरजीवित किया और जरगे को वचन मांगने को कहा। जरगे ने कहा कि मैं और कुछ नही चाहता, केवल यही चाहता हूं कि आपके साथ-साथ मेरा नाम भी अमर रहे।
रामदेवजी ने कहा कि इसी स्थान पर प्रतिवर्ष तुम्हारे नाम से मेला लगा करेगा। इस मेले में नाम तो तुम्हारा रहेगा परन्तु धाम मेरी चलेगी। तब से वह स्थान और मेला जरगा के नाम से लोकप्रिय हुआ। जरगाजी का मेला उदयपुर से ३५ किलोमीटर गोगुन्दा के पास शिवरात्रि को लगता है। इस मेले में रामदेवजी के भक्त कामड, बलाई, रेगर, चमार, मेघवाल, मोग्या आदि अधिकाधिक संख्या में एकत्रित होते हैं।
रात्रि जागरण के रूप में इस दिन रात- रातभर भजन भाव होते हैं। बहुत से श्रद्धालु रामदेवजी की मनौती के रूप में कामड़ लोगो से झमा दिलवाते हैं और उनकी महिलाओं से तेराताली के प्रदर्शन करवाते हैं। कामड औरतें रामदेवजी की उपासना में ही अपने शरीर पर तेरह मजीरे बाधकर तेराताली के प्रदर्शन में तेरह प्रकार के विशिष्ट साधनापरक हावभाव व्यक्त करती हैं। इसी जरगाजी मे काचलिया पंथ की खास धूणी है।
कालान्तर में रामदेवजी के इन्हीं भक्त भजनियों ने कांचलिया पंथ का शुभारम्भ किया। अकेला पुरूष और अकेली स्त्री इस पंथ के सदस्य नहीं हो सकते। पति-पत्नी सम्मिलित रूप से इसके सदस्य बनते हैं। इसका अपना एक गुरू होता है। जब कभी इसकी संगत बिठानी होती है, गुरू के आदेश पर कोटवाल द्वारा सदस्यो को सूचना पहुचवा दी जाती है। रात्रि को लगभग दस बजे सभी लोग निश्चित स्थान पर एकत्र होते है। यह स्थान किसी सदस्य विशेष का घर अथवा कोई एकान्त स्थान होता है। आयोजक सदस्य की ओर से इस सगत का समस्त खर्च वहन किया जाता है।
वही सभी सदस्यों के लिये चूरमा बाटी के भोजन की सामग्री जुटाता है। सदस्य लोग ही यह भोजन तैयार करते हैं और सामूहिक रूप से धूप ध्यान कर भोजन करते है। मुख्य स्थल पर जहा इसका आयोजन किया जाता है, पाट पूरा जाता है। इसके लिए सवा हाथ के करीब कपडा जमीन पर बिछा दिया जाता है। यह कपडा सफेद होता है। इसके ऊपर लाल कपडा बिछाया जाता है। इसके चारों किनारों पर पचमेवा- खारक, बादाम, दाख, पिश्ता तथा मिश्री रख दिया जाता है।
कपडे के बीच में सातिया, ऊपर एक तरफ चाद तथा दूसरी तरफ सूरज तथा दोनों के बीच गमदेव जी घोडा, तथा नीचे बीच मे रामदेवजी के पगल्ये तथा, दोनो ओर पाच-पाच टाप माड जात है सातिय पर कलश स्थापित कर दिया जाता है। इस कलश पर जोत कर दी जाती है। पाट पूजने की इस क्रिया मे सवा सेर चावल लिये जाते हैं। इस पाट के पास के वेल में चूरमे खोपरे की धूप लगा दी जाती है।
लगभग दो बजे तक भजनभाव होते रहते है। भजन समाप्ति के बाद गुरु के निर्देशानुसार सभी औरतें अपनी-अपनी कांचलियां खोलकर कोटवाल को देती हैं। कोटवाल इन कांचलियों को कलश के पास रखे हुए मिट्टी के कूडे में डाल देता है। पाट पर रखे हुए चावलो में से गुरू मन में धारे व्यक्ति को, कुंडे में पडी हुई काचलियों में से एक काचली निकालने पर जिस औरत की कांबली हाथ में आ जाती है उसके साथ भोग के लिए, निर्देश देता है।
दोनो स्त्री-पुरूष कलश के पास डाले गये पर्दे के पीछे जाकर भोग करते है। भोग स्वरूप वीर्य को स्त्री अपने हाथ में लेकर आती है और गुरू के वहा रखे पात्र में डाल देती है। इस प्रकार बारी-बारी से गुरू साद के धीरता रहता है और काचली उठा-उठाकर स्त्री-पुरूष को भोग के लिये आज्ञा प्रदान करता रहता है। गुरू द्वारा धारे पांच की संख्या वाले सादके (आखे) "मोती" कहलाते हैं। पाच से कम ज्यादा की सख्या वाले सादके 'जोडे' कहलाते हैं। सादकों की यह संख्या आने पर पुन: पाट रख दिया जाता है। जब सबकी बारी पूरी हो जाती है तो जितना भी वीर्य एकत्र होता है उसमें मिश्री मिला दी जाती है और सभी सदस्यों को प्रसाद के रूप में दे दिया जाता है। मिश्री मिश्रित वीर्य का यह प्रसाद "वाणी" कहलाता है।
कोटवाल द्वारा प्रसाद देने की क्रिया "बाणी फेरना' कहलाता है। पंच मेवे का प्रसाद भाव' नाम से जाना जाता है। प्रसाद देते समय लेने वाले और देने वाले के बीच सवाल-जवाब के रूप मे जो कडावे बोले जाते हैं वे इस प्रकार हैं: हुकम, हडूमान को, आग्या, ईश्वर की; दुवो, चारी, चारी जुग में हुवो; चोकी. हिगलाज की; परमाण, सत चढे निरवाण; थेगो, अलख रा घर देखो।
इस समय लगभग प्रात: हो जाता है तब सब लोग अपने-अपने घर की राह लेते संभोग की ऐसी मर्यादित स्वच्छता-स्वच्छदता एक और रूप में भी इन बीसनामी पथियों में देखने को मिलती है। यही गुरू, जब इनमें से किसी का मेहमान होता है तो वह सदस्य अपने आपको धनभाग समझता है और अपनी पत्नी को संभोग के लिए गुरू के कूडा एवं ऊदऱ्या पंथ पास भेजता है।
सभोग क्रिया के पश्चात् पत्नी अपने हाथ में जो वीर्य लाती है उसे प्रसाद के रूप मे परिवार के छोटे-बड़े सभी सदस्य स्वीकार करते है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यह पंथ रामदेवजी की ही आराधना का एक विशिष्ट रूप है। रामदेवजी के भक्तो का ही इसका सदस्य होना, पाट पूरना, भजनभाव, कलश स्थापना तथा जोत आदि सभी रामदेवजी की स्मृति उपासना के प्रतीक है!
काचली और कूडे से सम्बन्धित जो क्रिया-प्रक्रियाएँ है वे मूलतः किस बात की सकेतक है इस ओर गहरे अध्ययन एव अनुसंधान की आवश्यकता है। घोली पूजन: चोली पूजन नाम से इसी से मिलती-जुलती प्रथा मध्यप्रदेश के सीहोर जिले की काछी, टीमर, मछुए आदि पिछड़ी जातियों मे प्रचलित है। कहते हैं इस जाति के अनेक व्यक्ति अघोर तंत्र में बडी आस्था रखते हैं और इसीलिए मांस, मदिरा और महिला द्वारा तत्र साधना करते है।
तंत्र की यह साधना चोली पूजन कहलाती है। देवीकृपा से किसी इच्छा की पूर्ति होने पर श्रद्धालु भक्त-साधक इसका आयोजन करता है। यह आयोजन भी रात्रि ही को किसी एकान्त किन्तु नियत स्थान पर किया जाता है। इसमें भाग लेने वाले सभी साधक सपत्नीक होते है।
सर्वप्रथम पुजारी किसी बडे पात्र में शराब भरकर उसकी पूजा करता है तब उस पात्र मे वहा आई महिलाएं अपनी-अपनी चोली (कंचुकी) उतार कर डालती है और उसे शराब मे भिगो-भिगोकर अपना वक्षस्थल साफ करती है| तब तक पुरूष वर्ग घडे के चार ओर नाचता हुआ शराब पीने पिलाने में मग्न रहता है। फिर पुजारी देवी की पूजा कर उसे नई चोली धारण कराता है। इस समय मेमने की बलि दी जाती है और उसका मांस पकाया जाकर देवी को भोग दिया जाता है।
इस समय भी शराब पीने का दौर जारी रहता है। यह सब कुछ हो जाने के बाद प्रत्येक पुरूष उस शराब के पात्र से एक-एक चोली उठाता है और जिस महिला की चोली उसके हाथ आ जाती है वह उसी के पास जा खडा हो जाता है। सभी चोलियों का बटवारा हो जाने के पश्चात् देवी के समक्ष सारे नर-नारी यौन क्रीडा में मग्न हो जाते हैं। ऊंदा पंथ : ऊदऱ्या पंथ को मानने वाले भी नीची जाति के लोग होते हैं।
इसका आयोजन अजूना भार भी किसी एकान्त स्थान में ही होता है ताकि सामान्य व्यक्ति की पहुंच भी वहा तक न ह सके और किसी को इसका सूत्र तक हाथ न लग सके। इसमे भी महिला पुरुष दोनों होते हैं। दोनों आमने-सामने गालाकार बैठ जाते हैं परन्तु वे पूर्णत. नग्नावस्था लिये होते है। दोनों के शरीर पर किसी प्रकार का कोई कपडा नहीं होता है। इस समय सबको पूर्ण सयम में रहना पड़ता है। बीच गोलाई मे चूरमा (घी में पके मोटे आटे में शक्कर मिलाकर तैयार किया गया) रख दिया जाता है जो वहीं तैयार किया जाता है। यह चूरमा माताजी के भोग के लिये बनाया जाता है। उस चूरमें से सटा हुए एक कच्चा धागा सीधा ठेठ ऊपर मकान की छत तक बांध दिया है।
पहले चूंकि मकान कच्चे बने होते थे जो या तो घास-फूस से छा दिये जाते थे या कवेलू से ढक दिए जाते थे। अतः धागा धासफूस या फिर लकड़ी की छत से जोड़ दिया जाता था। इस धागे के सहारे-सहारे एक चूहिया आकर नीचे रखी चूरमे की देरी से अपने मुँह में उसका कण लेकर चली जाती तो समझ लिया जाता कि देवी को चूरमे का भोग लग गया है और उनकी साधना पूरी हो गई है। परन्तु यह कार्य बहुत आसान नहीं था। चूहिया का आना ही बडा मुश्किल था।
इसमें कभी-कभी तीन-तीन, चार-चार, सात- सात दिन तक वहा बैठे रह जाना पडता और निरन्तर चूहिया की प्रतीक्षा बनी रहती। दूसरी बात यह थी कि चूहिया कभी दिन को नहीं निकलती। उसके निकलने का समय रात्रि हो और वह घर भी बिना किसी होहल्लेवाला हो अत: दिन को ये साधक भजनभाव में निमग्न रहते और रात पड़ने पर सब चुपचाप टकटकी लगाए बैठे रहते। चूहिया के वहा आने और प्रसाद ले जाने के दिन तक सभी लोग निराहार रहते हैं! ये लोग मात्र निराहारी ही नहीं रहते अपितु इनके आपस में भजनभाव होते रहते हैं और एक दूसरे के गुप्तांगों को स्पर्श करते हुए नाचते भी रहते हैं।
यह सब देवी को प्रसन्न करने और उसे रिझाने के लिए किया जाता है ताकि देवी जल्दी रिझकर वहां चूहिया स्वरूप दर्शन देकर उनकी सेवासाधना को सार्थक करे। यह सारी साधना शुद्ध भावों से प्रेरित है। किसी महिला पुरूष में कोई विकृति नही आ पाती है। किसी में विकृति आने पर उसकी साधना निष्फल समझ ली जाती है और यदि कोई किसी से छेडखानी भी कर बैठता है तो उसके साथ बुरी बिताई जाती है।
पहा तक कि सभी मिलकर उसकी हत्या तक कर देते हैं परन्तु अपनी पवित्रता पर जरा भी आच नहीं आने देते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि नीची जातियों में भी कितनी ऊँची साधना, वी के प्रति निष्ठा और कठोर आत्म संयम पाया जाता है।
एक दिन उदयपुर राजमहल के शिवशक्ति पीठ पुस्तकालय में जब मैंने प.बालकृष्ण व्यास से कुडापंथ की चर्चा की तो उन्होने ही मुझे ऊंदऱ्या पंथ के सम्बन्ध में यह जानकारी दी और कहा कि जयसमद की ओर किसी समय उधर के आदिवासियो में इस पंथ का वडा जोर था परन्तु सारा कार्य इतना गुपचुप होता है कि अन्य किसी को इसकी भनक तक नही पड सकती।
यहा तक कि इसे इतना छिपया रखते हैं कि पंथ का कोई मानलेवा किसी का आजीवन धनिष्ठतम मित्र भी होता है तब भी इसका पता नहीं चल पाता है जब तक कि वह भी उस पंथ का सदस्य न हो।