अपहरण गणगौर राजस्थान का बड़ा ही रसवंती त्यौहार है। यहां के निवासियों में इन दिनों जितने इन्द्रधनुषी रंग विविध रूप चटखारे लिये देखे जाते हैं उनने अन्य किसी न्योहार पर देखने को नहीं मिलेंगे| राजस्थानी गोरिया जहां अपने अटल सुहाग और अमर बड़े के लिये गणगौर की बडी भक्ति-भावना से पूजा प्रतिष्ठा करती हैं वहां छोरिया होला के दृसंर दिन से ही मनवाछित वर प्राप्ति के लिये गवरल माता की पूजा-आराधाना जाती है। 

शादी के लिए दूल्हा तोरण पर आया हुआ है मगर बनड़ी गणगोर पूमने में बनी हुई है। तभी तो गीत गूजा है - “राइवर डोल रह्या तोरण पर बनडी पूज रही गणगार”। राजस्थान मे गणगौर सम्बन्धी कई कथा-किस्से प्रचलित हैं। इनमें गणगौरा के अपहरण की भी कई घटनाये सुनने को मिलती है। गणगौर पर गाये जाने वाले गीतों में भी ऐसे कई सकेत भरे पड़े है। राजस्थान की अपनी शोध यात्राओं में जगह-जगह गणगौर अपहरण की घटनायें मुझे बडे अजूबे रूप मे सुनने को मिली। अपना पराक्रम दिखाने और दूसरे को अपमानित करने के लिये राजा महाराजा या जागीरदार अपने- अपने प्रतिद्वन्द्वी की गणगौर उड़ा लिया करते थे।

मध्ययुग में ऐसी घटनायें घटाटोप घटी हैं इसीलिये राजा महाराजाओ तथा ठिकानों के जागीरदारों की गणगौर पुलिस के पहरे में रहती। यह पहरा अन्त:पुर की गणगौर के साथ भी रहता जहाँ डावड़िया बड़ी सावचेत होकर गणगौर माता के चवर ढोलती रहती और अपने चारों कान चौकन्ने रखतीं। 

उदयपुर की गणगौर बूंदी का ईसर: उदयपुर से ही शुरू करें तो कहते हैं यहां के राजघराने के संबद्ध किन्हीं “वीरमदास की गणगौर” नामक बड़ी रूफाली गोरीगट्ट कन्या थी जिसे चाहने वाले कई राव रईस थे। 

बूंदी के ईसरसिह के यहा उसका सगपण कर दिया गया तो कई लोग उससे ईर्ष्या करने लग गये और किसी तरह गणगौर को पाने की कोशिश में लग गये। जब ईसरसिह को इस बात का पता चला तो वह रातों रात उदयपुर आया और गणगौर को अपने घोडे पर बिठाकर चलता बना परन्तु रास्ते में चम्बल अपने पूर पर थी। ईसरसिह ने आव देखा न ताव, घोडा नदी मे छोड दिया। परिणाम यह हुआ कि नदी घोड़े सहित ईसर गणगौर को ले डूबी। गीत-पक्तियों मे यह घटना इस प्रकार वर्णित हुई है|

 

उदियापुर से आई गणगौर

आय उतरी बीरमाजी री पोल।

और गणगौर विदाई का यह गीत-

म्हारे सोल्हा दिन रा आलम रे

ईसर ले चाल्यो गणगौर।

म्हें तो पूजण रोटी खाती रे

ईसर ले चाल्यो गणगौर।

यह गीत बहुत लम्बा है जिसमें प्रत्येक पक्ति के बाद “ईसर ले चाल्यो गणगौर” की पुनरावृत्ति मिलती है। 

भाले की नौक पर गणगौर का अपहरण: गणगौर अपहरण सम्बन्धी बातचीत के दौरान रानी लक्ष्मीकुमारी चूंडावत ने बताया कि उनके पीहर देवगढ की गणगौर भी इसी तरह उडाकर लाई हुई है। उन्होने बताया कि देवगढ के पास बरजाल नामक गाव है जहा रावतों की अच्छी आबादी है। एक बार यहां के जाला रावत को उसकी भोजाई ने किसी बात को लेकर ताना मार दिया कि ऐसी कौनसी तू जावद की गणगौर ले आयेगा? जावद तब एक बहुत बडी जागीरदारी थी और वहा की गणगौर की बडी प्रसिद्धि थी। 

जाला को भोजाई की बात चुभ गई। गणगौर के दिन जब जावद में गणगौर की भव्य सवारी निकली तो जाला हिम्मत कर वहा पहुंचा और भरी सवारी से भाले की नोक पर गणगौर उठा लाया। जाला ने भाभी को गणगौर लाकर दी तो रावतों मे जाला का सम्मान और गणगौर की प्रतिष्ठा हुई। भोजाई का दिया ताना एक नई कहावत को जन्म दे गया। आज भी बरजाल के रावतों में यह कहावत सुनने को मिलती हे “फलाणी तो जावद की गणगौर व्हिया बैठी है।” यही गणगौर बाद में रावतों के यहा से देवगढ़ ठिकाने में लाई गई। अपने अध्ययन काल सन् ५६-५७ के दौरान गणगौर पर बीकानेर मे मैंने लाखणसी की लूर सुनी तब इसका कोई अर्थ मेरे पल्ले नहीं पडा पर जब चुरू जाना हुआ तो वहा के शोधकर्मी गोविन्द ने बताया कि इस लूर के पीछे गणगौर अपहरण की ऐतिहासिक भार घटना गर्भित है।

बोले कि जैसलमेर के महारावल की आज्ञा से मिरड गावं कें मार्ट मेहाजल आदि बीकानेर राज्य की गणगौर का अपहरण कर ले गये तब बीमायने नमार्गमा के पुत्र लाखणसिंह ने भाटियों पर धावा बोल मेहाजल की मौत के घाट उतार और गणगौर प्राप्त की। इस पर बीकानेर महाराजा कर्णसिंह ने लाखासर को नाम सहित चुरू जिले के रतनगढ तहसील का लोहा गांव जागीर में दिया फलत: लाखणसी के गम की लूरे प्रारम्भ हुई जो आज भी इस क्षेत्र में लाखणसिह के शौर्य पराक्रम को जीत किये हैं। डिगल साहित्य के विद्वान सौभाग्य सिंह शेखावत ने एक पत्र द्वारा मुझे सूचित किया कि जोबनेर के समीपस्थ सिंहपुरी का रामसिंह खांगारोत मेडता नगर की गणगौर बलात् अपहृत कर ले गया। 

यह सीकर ठिकाने का फौजदार था। इधर के गावों में आज भी यह डर बैठा हुआ है इसीलिये ग्राम स्वामी के घर से जब गणगोर की सनारी निकलती है तो उसमें गांव के सब लोग सुन्दर वस्त्राभूषणों के साथ-साथ भाले, बन्दूक, तीन. कमान तथा लाठिया लिये चलते हैं ताकि गणगौर को किसी अपहरण से बचाया जा सके। 

भाले की नोक पर गणगोर का धड़ लाना: उदयपुर के बेदला ठिकाने के राव मनोहरसिंह के यहां तो एक ऐसी गणगौर है जो केवल धड़ रूप मे ही है उन्हें याद नहीं कि कहा से इस गणगौर का अपहरण किया मगर अपने बाप-दादों से वे यह जरूर सुनते आये कि लड़ाई में तलवार से इसके हाथ-पांव जाते रहे और भाले की नोक पर इसका धड़ लाया गया...!

कोई तीन सौ-चार सौ वर्ष पुरानी यह गणगौर तीन दिन तक विशेष संस्कारों के साथ आज भी बड़ी श्रद्धा भक्ति के साथ पूजी जाती है। इसकी बणगट बड़ी मोहनी और लुभावनी है। बड़े कीमती वस्त्राभूषणों से इसकी ऐसी उत्तम सज्जा की जाती है कि इसकी विकलांगता का किसी को एहसास ही नहीं होता।

घोड़े पर गणगौर उडा लाना: मेवाड़ के महाराणा स्वरूपसिंह के सामने एक दिन किसी ने कोटा की गणगौर की नारीफ कर दी तब महाराणा ने कहा कि कोई उसे लाकर दिखाये तो जानूं कि वह कैसी? महाराणा का कहना क्या हुआ सबके लिये चुनौती बन गया। बीड़ा फेरा गया कि फोई माई का लाल ऐसा है जिसने सेर सूठ खाई छो जो कोटा की गणगौर उठाकर लाये? सब देखते रह गये तब गोगुन्दा के कुवर लाल सिंह ने बीडा झेला।

ठीक गणगौर के दिन लालसिह अपने घोडे पर सवार हो कोटा पहुचा। दरबार गणगौर की मजलिस का आनन्द ले रहे थे। उसी समय लालसिह ने कहलवाया कि बाहर से एक घुडसवार आया हुआ है जो घोडे पर गणगौर नचाने में बडा प्रवीण है। यदि दरबार का आदेश हो जाय तो वह अपना करिश्मा दिखाये। 

दरबार ने ऐसा करामाती न तो पहले कभी देखा न सुना जो घोडे पर गणगौर नचा सके अत: इजाजत दे दी। लालसिह अन्दर पहुचा। उसने गणगौर उठाई। घोडे पर रखी और उसे धीरे-धीरे घुमाना प्रारम्भ कर दिया फिर थोडी घोडे की चाल बढाई और मौका पाकर ऐसी एड मारी कि घोड़ा वहा से छलाग मारता हुआ चल निकला।

सब लोग हक्के-बक्के हो देखते रह गये। पल भर के लिये लगा कि जैसे कोई जादू तो नही हो गया। बाद में तो घुडसवार सिपाही उसकी खोज में भी निकले मगर कुछ पता नहीं लग पाया। लाल सिंह ने महाराणा को गणगौर लाकर नजर की! महाराणा ने उसकी बहादुरी की बडी तारीफ की और इनाम रूप में वही गणगौर उसे दी जो प्रतिवर्ष गोगुन्दा में आयोजित गणगौर मेले की शोभा बढाती है। 

यहां उस गणगौर के साथ ईसर की सवारी भी निकाली जाती है।

यह मेला मुख्यत: रात को भरता है जिसमें आस-पास के सैंकडो आदिवासी स्त्री-पुरुष भाग लेते हैं और नृत्य गीतों द्वारा मेले को जगमग करते हैं। सन् ७५ के गणगौर मेले के अध्ययन के लिये जब मैं गोगुन्दा गया तो वहां के वयोवृद्ध पुरोहित भेरूलालजी ने यह सारी घटना कह सुनाई। राजस्थान में गणगौर पर आयोजित घूमर नृत्य और गीत बडे लोकप्रिय रहे हैं। अलग-अलग ठिकानों की घूमरों की अपनी खासियत है।

इन ठिकानों में उदयपुर, कोटा, बूदी, बीकानेर, प्रतापगढ की घूमरें विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त लाखा फूलाणी, नथमल तथा गींदोली नामक लम्बे गीतों का भी यहा बोलबाला रहा है। ये गीत अपने आप में इतिहास के विशिष्ट पन्ने लिये है और गणगौर विषयक वीर संस्कृति के उज्वल कथानक है।

गणगौर पर गींदोली का अपहरण: गींदोली के सम्बन्ध में तो रानी लक्ष्मीकुमारजी ने बताया कि गांदोली नाम की दाबाद के बादशाह मेहमूद बेग की कन्या थी जिसे महुवा का कुंवर जगमाल लाया। यह किं पाटण का सूबेदार हाथीखा महुआ में तीज खेलती १४० कन्याओं को ले गया और के को भेंट कर दी तब कहीं बाहर उसने प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं इसका बदला नहीं लगा हजामत नहीं बनाऊगा धन्ने हुए कपडे नही पहनूगा और न सिर पर पगडी ही धारण करूगा। आप में इतिहास के विशिष्ट पन्ने लिये है और गणगौर विषयक वीर संस्कृति के कथानक है।

गणगौर के दिन बादशाह की बेटी गांदोली सबारी दम्ब निकली तन मोका देखकर जगमाल का प्रधान भोपजी हल सवारों के साथ बहा जा पहुंचा और गौदोली की उठाकर चलता बना! महुवे मे गणगौर विसर्जन के नाट जन जगमाल की सवारी लौट है थी तब भोपजी ने जगमाल को गींदोली ले जाकर दी। इस पर जगमाल केसई कार नहीं रहा। उसने उस सवारी मे गींदोली को आगे किया और स्वयं पीछे होकर चले तब महिलाओं से गीदोली का यह गीत फूटा: “आगे-आगे गोंदोलडी पाए जगमाल कवर।” इस घटना को कोई छह सौ वर्ष व्यतीत हो गये परन्तु आज भी राजस्थानी महिलायें गींदोली गाकर महुवे से पकडकर ले जाई गई उन १४० कन्याओं के बदले में प्राप्त गीदोली की गूज ताजा कर देती हैं। 

प्रतिवर्ष गणगौर आती है और ये सारी घटनायें राजस्थान के प्रत्येक कगार में गूंजने लग जाती है परन्तु गणगौर के चले जाने के साथ-साथ फिर वर्ष भर के लियन जाने कहां अलोप हो जाती है?

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