छेडा देव से तात्पर्य छेडखानी करने वाले देव से है। होली के दिनों में खासतौर से राजस्थान में ईलोजी और लांगुरिया; ये दोनों देव बड़े विचित्र रूप में याद किये जाते हैं। ईलोजी तो बाझ औरतों को सन्तान देने वाले देव हैं बशर्त कि औरतें इनका पिटपूजन कर, इनके सम्मुख नाक रगड़े और इनके लिंग को अपनी योनि से छुवाये। राजस्थान में कई जगह ईलोजी की राजशाही पुरूषाकृति में प्रतिमाएं मिलेंगी और ऐसी औरत भी कई मिलेगी जिन्होंने ईलोजी की कृपा से सन्तान प्राप्त की हैं। ये ईलोजी बाल- बच्चों में हंसी- मजाक के पात्र भी बनते है।
कई मनचले इन दिनों इनके इंढाकार भारी बने लिंग से छेडखानी करते हैं। कई जगह ईलोजी की विचित्र सवारी भी निकाली जाती है तब भी लिंग ही एक लकड़ी के गोटे के रूप में सबका ध्यान आकृष्ट करता है। लांगुरिया ईलोजी से भिन्न है जिसकी खासकर राजस्थान के करौली क्षेत्र में बड़ी मान्यता है। ब्रज प्रदेश में भी इसके बडे चर्चे है।
जो लोकगीत इसके संबंध में प्रचलित है उनमें यह पर पुरूष के रूप में भी याद किया जाता है। लांगुरिया के मूल में प्रचलित लंगर शब्द का अर्थ भी पराई स्त्री से अनुचित सम्बन्ध रखने वाला रसिक पुरूष है। अपने संबंध में स्वंय लांगुरिया जवाब देता है-बम्मन के हम बालका, उपजे तुलसी पेड! यह देव ऐसा जोधा कि छ: माह की लम्बी रात्रि भी हो जाय तो तनिक भी सोयेगा नहीं। यह देवी का परम भक्त है।
देवी आज्ञा देतो असुर के नौ कीलें टोक दे पर भक्तजन यह अच्छी तरह जानते हैं कि इसे राजी रखने से ही देवी प्रसन्न होगी। यह यदि बिगड़ गया तो देवी का वरदान मिलने का नहीं। इसलिये जहां वहा लागुरिया गीतों की ही झड़ी लगी मिलती है। एक अवधारणा यह भी है कि एक पैर से लंगडा होने के कारण काला भैरव देवी चामुंडा के अखाडे का वीर लागुर-लागुरिया कहलाया।
चैत्रकृष्णा एकादशी से चैत्र शुक्ला दशमी तक करौली के केला देवी मेले में लांगुरिया गीतों मनौतियों की बाहर देखने को मिलती है। तब राजस्थान ही नहीं उडा दव लांगुरिया गीतों मनौतियों की बाहर देखने को मिलती है। तब राजस्थान ही नहीं छडा दव लांगुरिया २५ मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, गुजरात, पंजाब, हरियाणा तक के लोग इस मेले में उमड पडते हैं।
मैंने देखा औरते अपने हाथों में हरी-हरी चूडिया पहने, माथे पर कलश धरे, हथेलियों मे मेहदी रचाये कोरे पीले पहनावे में देवी के साथ-साथ लागुरिये की पूजा मे भी उतनी ही मग्न बनी हुई हैं। पीले-पीले परिधान में, अपने खुले बालों के साथ नाचती ठुमकती रात-गत भर गीतो की गम्मते ले रही है| मेले का हर पुरूष लागुरिया और हर औरत जोगणी बनी हुई है। जहा औरतें-
दे दे लम्बो चौक लांगुरिया बरस दिनां में आयिंगे,
अबके तो हम छोरा लाये परके बहुअल लायिंगे,
अबके तो हम बहुअल लाये परके नाती लायिंगे|
गाकर छकी पकी जा रही है वहीं पुरूष भी-
“चरखी चलि रही बड़ के नीचे रस पीजा लांगुरिया”
जैसे गीत गाकर जोश-खरोश में मदछक हो रहे है। मैं इस सारे माहौल को देख सुनकर लागुरिया के देवत्व और उसके लुंगाड़ेपन मे खो जाता है। इतने में कुछ पकी उम्र की महिलाओ में से आवाज आती है-
“जरा ओडे-डोडे रहियो नशे में लागुर आवेगो”
भक्त लोग इस लागुरिया को भेट पूजा में गांजा चढाते है। गीतो मे वर्णन आता है कि इसके लिये दस बीघा जमीन में गाजा बोया है। जब यह नशे में चूर होकर आयेगा तो छेडाछेडी करेगा और खासतौर से उन्हें छेड़ेगा जिनके हरी-हरी चूडिया पहने को है, काजल टीकी दी हुई है। उन्हीं को यह नाना नाच नचायेगा। इसलिये उन्हीं को इससे ओडीडोड़ी रहने की जरूरत है।
अपनी सर्वेक्षण यात्राओं में मैने इधर लकडी के बने आदमकद राजशी लांगुरिये देख्ने हैं जिनकी शीतला सप्तमी को घर-घर पूजा होती है। केला देवी और उसके लांगुरिये की कितनी मानता है, यह इसी से लगता है कि सन ७५ में २लाख ६५ हजार नकद, ३८ हजार की चांदी, ३ लाख ३५ हजार का ६ कीलो सोना, १० हजार का कपडा, १ लाख ६५ हजार के ३० हजार नारियल और ७५ हजार दुकानों का किराया। इसके तीन वर्ष बाद के चढाने का अन्दाज लगाइये जब १० लाख व्यक्तियों ने इस मेले में भाग लिया और २ लाख नारियल भेंट चढाये गये।
अब इस वर्ष की कल्पना आप स्वयं कर लीजिये। छेडा देव लांगुरिये का कमाल आपको लग जायेगा।