सबसे बड़ी धजा वाले मन्दिरों पर धजा चढाने का भी पूरा संस्कार है। यदि इन धजाओं का ही अध्ययन किया जाय तो ऐसी बहुत सी सामग्री हाथ लग सकती है जो धजा परम्परा और उनके जुड़े देवता का रोचक इतिहास ही प्रस्तुत कर दे। धजाओं के विविध रंग, उनके आकार- प्रकार उनकी साज-सज्जा, उन पर लगे धगे विविध कलात्मक चित्र प्रतीक बड़ा रोचक दास्तान देते है। नाथद्वारा के श्रीनाथजी की सात धजाएं, सातो अलग-अलग रंगों की, एक-एक धजा एक-एक लाख की, श्रीनाथजी को इसीलिये सात धजारी भी कहते हैं।
मेवाड का एकलिंगजी का मन्दिर बडा शांत और सुखद पुरातन मन्दिर, भगवान एकलिंगजी की सेवापूजा मेवाड़ के महाराणा इन्हीं एकलिंगजी के दीवान, ये एकलिंगजी कहां से आये लाये? लिखावटी इतिहास तो जो कहता है वह पढ़ने को मिलता ही है पर लोक का इतिहास कुछ दूसरा ही है। कहा जाता है कि मीरां के पति भोजराज पहुंचे हुए शिव भक्त थे। भक्ति के क्षेत्र में मीरा से भी अधिक पहुंचे हुए। इसीलिए कहा जाता है कि मीरां और भोज का विवाह दो घर नहीं बिगड़ कर एक ही घर बिगड़ने जैसी घटना है। मीरां कृष्ण की भक्ति में सुधबुध ही खो बैठती तो भोज शिवमय हो अपने को भूला देते।
रतनसिंह इसीलिये मीरां और भोज दोनों से नाखुश था। इन्हीं भोज ने अपने जीवनकाल में चित्तौड में दस शिवलिंगों को प्रतिष्ठा दी। सात तो गौमुख के उसी तलैये में स्थापित हैं और तीन ठेठ नीचे जमीन से लगे जिन पर उसी गौमुख का पानी निसर कर अभिसिंचित हो रहा है। यह एकलिंगजी वाला ग्यारहवां लिंग था, जिसकी प्रतिष्ठा भोज करवाना चाहते थे पर उनके जीवनकाल में वैसा नहीं हो सका। मृत्यु के बाद जब उनके महल का सम्भाला लिया गया तो यह लिंग बन्धा बन्धाया पैक मिला जिसे बाद में एकलिंगजी के रूप में नागदा में स्थापित प्रतिष्ठित किया गया इस सम्बन्ध की काफी शोध खोज बाकी है|
एकलिंग जी सबसे बडी धजा वाले ४५ जब यह मन्दिर बनकर पूर्ण हो गया तब इस पर कलश चढ़ाया गया पर रात को वही कलश गिर गया। दो तीन बार जब ऐसी घटना घट गई तो महाराणा को इसकी जानकारी कराई गई। महाराणा को भी इस बात का बड़ा असमजस रहा। उसी रात एकलिगजी स्वप्न गये और महाराणा से कहा कि धारा नाम का एक दर्जी है यदि उसका हाथ लगे तो कलश चढ सकेगा।
सुबह पता लगाया गया। धारा वहीं रहता था। उसका हाथ लगा तो कलश चढ गया। महाराणा ने धारा को बुलवाया और मुंह मागा चाहने को कहा। धारा ने यही कहा कि मुझे तो और तो कुछ नही चाहिये, हजूर से यही निशानी चाहता हूँ कि मेरा नाम अमर रहे। तब वहीं धारेश्वरजी का मन्दिर बनवाया गया जिसमें धारा शिवजी पर पानी भरे लोठे से अर्ध्य दे रहा है। यह मन्दिर एकलिंगजी के मुख्य दरवाजे के बाई ओर है। धारा चूकि दर्जी था तो दर्जियो को कलश पर धजा चढाने का अधिकार ही क्या जैस पट्टा ही मिल गया तब से प्रतिवर्ष चेती अमावस्या को धजा चढाने की रस्म पूरी की जाती है।
धीरे-धीरे दर्जियों में जुदा-जुदा खांपे हुई तो वे अपनी-अपनी अलग-अलग धजा चढाने लग गये। इन खापो में सुई दर्जी, छीपा दर्जी, सालवी दर्जी और रंगाडा दर्जी नामी चार खांपे हैं। महाराणा फतहसिंहजी के समय छीपा दर्जियों के अपना प्रभुत्व अलग से दरसाया फलत: वे चेती अमावस्या की बजाय चेती पूर्णिमा को धजा चढाने का अपना कार्यक्रम रखते हैं। शेष तीनों खापो के दर्जी मिलकर अपनी-अपनी धजा चढाते हैं। चेती अमावस्या के एक दिन पूर्व सभी दर्जी परिवार एकलिंग मंदिर में रात्रि जागरण करते हैं। इस दिन एकलिंगजी को हीरों का नाम धारण कराया जाता है। रात भर भजन भाव होते रहते है।
सुबह होते ही एकलिंगनाथ जी कीजै' के उच्चारण के साथ धजा के लिए सफेद खादी के थान खुलते हैं। 30 इन्च करीब चौडी धजा के लिए थान के ककू केसर के छीटे देने के उपरात सिलाई चलती रहती है। फिर एक पुरानी लकडी, जिसे ये लोग गज कहते हैं, से उस धजा को नापा जाता है। यह धजा १०८ गज तक तो गपी जाती है उसके बादजितनी बडी और करनी होती है, की जाती है पर एक सौ आठ गज तक की लम्बाई होनी तो आवश्यक ही है। धजा नापने का काम मेवाड पटेल के जिम्मे रहता है।
यह पटेल परम्परागत रूप से चलता रहता है वर्तमान में मेवाड़ पटेल नाथद्वारा का कन्हैयालाल कनेरिया है। धजा के लिए प्रत्येक घर से दर्जी परिवार एक-एक रुपया देता है। यह चन्दा सागरी से लामी सोशली में मारा नन्दा जमा होता है प्रत्येक गात ४६ अबा भारत वाले मिलकर अपना-अपना चन्दा जमा करते हैं। इसीदिन इनकी पच पंचायती भी यही होती है। साल भर का लेखाजोखा भी तब कर लिया जाता है। सबसे पहले धजा मूल मटिर के सोने के छत्र से प्रारम्भ होनी है। छत्र के एजा की किनारी बाध दी जाती है। उसके बाद जहा दर्शनार्थी खडे रहते हैं वहा दरवाजे के उसका आटा दे दिया जाता है।
वहा से नंदकिशोर मन्दिर के आटा लगाया जाता है फिर मंदिर के पीछे से ऊपर छतपर धजा लाकर कलश से आटा दिया जाता है, फिर मंदिर की बाउण्ड्री के बाहर पीछे की पहाड़ी पर धजा ले जाई जाती है। तीनों दर्जियों की धजायें वहा जाकर नप जाती हैं कि किसकी कितनी बड़ी होती है। नापते समय कोई अपनी धजा को खीचता नही है। ऐसा करने से उस समाज में खींच पड़ना समझा जाता है। जिसकी धजा छोटी निकलती है उसकी समाज छोटी पडती रहेगी, माना जाता है।
नंदकिशोर तथा निजमंदिर पर जो चढते हैं वे डामर कहलाते हैं। यह भील होते हैं जो वंश परम्पग से चढ़ने आ रहे होते हैं। ये ही नापने के बाद पूरी धजा समेटते हैं और तदनंतर मन्दिर में जमा कराते है। ध्वजा का यह लम्बा कपडा फिर टुकडों -टुकड़ों में कर दिया जाना है और वहां आसपास जितने भी मन्दिर हैं उनमें नियमानुसार उस कपड़े के टुकडे में चावल. सुपारी पैसा रखकर दे दिया जाता है। इन मन्दिरों की पूरी सूची बनी हुई है। ये टुकड़े भी धजा ही कहलाते हैं| किसी मंदिर के सात धजा (टुकडे) तो किसी के नौ। इस प्रकार एकलिंगजी के अलावा ऐसी सौ सवासौ धजा मदिरो में दी जाती है। धजा समाज के मेरे मित्र श्री उदयप्रकाशजी ने यह जानकारी दी। धजा चढाने की यह परम्परा एक ऐसी परम्परा है जो अपने आप में बडी अनोखी और अद्भुत है, एक तो इतनी बड़ी धजा शायद ही कहीं और किसी मंदिर में चढती हो और फिर चढ़ती हुई भी जहा अनचढी रह जाती हो।
जो धजा चढ़ती तो है पर कभी लहराती-फहराती नहीं है। दर्जी लोग भी जो परम्परा से इतने शिव भक्त शायद नहीं होते मगर अपने पूर्वज धारा की शिवभक्ति ने इन्हें भी इतना आस्थावान बनाये रखा है कि आज भी उसी विरासत और वैभव का दिल लेकर प्रतिवर्ष ये लोग धजा चढाकर परमसुख पाते है।