राजस्थान में देवियों के कुल नौ लाख अवतार माने गये हैं। प्रसिद्ध रणक्षेत्र हल्दीघाटी के पास नौ लाख देवियों का स्थान वडल्या हींदवा आज भी बहुप्रसिद्ध है। इस सम्बन्ध में यहा के देवरो मे नौरात्रा मे रात-रात भर जो भारत गाथा गीत गाए जाते है इनमे इन देवियों का यश वर्णन मिलता है। इन माधारण असाधारण देवियों में चार असाधारण शक्तियुक्त होने से वे महाशक्तियां कही गई हैं। इनमें करणीजी एक हैं।
चारण जाति में मुख्यत- 4 देवियाँ हुई - आवड़, कामेहीं, बरवड़ी और करणी। इन चारों ने राजपूत जाति की भाटी, गौड, सिसोदिया एव राठोड शारखा पर प्रसन्न हो इनके बडे-बडे राज्य स्थापित किए। करणीजी ने जोधपुर एवं बीकानेर नामक शक्तिशाली राज्यो की स्थापना की। देशनोक करणीजी का मुख्य स्थान है। यहीं इन्होंने साधना तपस्या की। यह चारणों की तो कुलदेवी है ही पर अन्य कई लोग इषटदेवी के रूप से करणीजी की मान मनौती करते है| वर्तमान करणी मन्दिर से दो किलोमीटर दूर नेहड़ी नामक प्रसिद्ध स्थान है। करणीजी सर्वप्रथम यही रहती थी। इनके पास दस हजार गाएं थीं। यहीं जिस सूखे ठूठ के सहारे वह बिलौना करती, वह ढूंठ आगे जा कर हरा वृक्ष बन गया और तब के दही मथने के छींटे आज भी उस जाल वृक्ष पर लगे हुए हैं।
नेहडी विलोवणे की रस्सी को कहते है। कोई-कोई मथदण्ड को भी कहते हैं। इसीलिये यह स्थान नेहड़ीजी के नाम से प्रसिद्ध है। इसी जाल वृक्ष से सटी करणीजी की छोटी-सी मन्दरी बनी हुई है। अभी वशीदान चारण इसके पुजारी है जो करीब ८० वर्ष के है। यहा आसपास में कोई वस्ती नहीं है। यह पूरा स्थान करणीजी का ओयण है, जहाँ कोई खेती नहीं होती। इतनी सारी गायों की देखभाल के लिये करणीजी के पास पर्याप्त सख्या में चारण थे दिनभर यहा काम करने के पश्चात् करणीजी साधना के लिये जहाँ आज मन्दिर बना है|
वहां आ जाती। तब करीणी ने देशनोक नही बसाया था। यहां तपस्या करते-करते उनके नाक तक बालू जमा हो गई तब उनकी रक्षा के लिए अचानक चट्टान आई। आज भी पूरी की पूरी चट्टान करणीजी के मन्दिर के ऊपर स्थिर है। करणीजी का मन्दिर मठ कहलाता है। करणीजी की जहा मूर्ति स्थापित है उस गुम्भारे को करणीजी ने स्वय बनाया था। यहीं वह ध्यान किया करती थीं। वह स्थान जमीन स्थल से थोड़ा नीचे है। यह गुम्भारा पूरी की पूरी चट्टान लिये है| चट्टान मे जगह-जगह बिलनुमा छिद्र है जहा चूहे निवास करते है। ये चूहे कई हैं, पूरे मन्दिर में जहां तहां चूहे ही चूहे देखने को मिलेंगे। दर्शनार्थी को सम्भल-सम्भल कर इन चूहो से बचते हुए देवी तक दर्शन को पहुचना होता है। जो भी दर्शनार्थी आता है। इन चूहों के लिये लड्डू और बाजरा लाता है।
चूहे इनका भोग लेते रहते हैं ये चूहे इतने अभ्यस्त हो गये है कि इन्हें किसी दर्शनार्थी का कोई भय नहीं है। कभी-कभी चूहे दर्शनार्थी के शरीर पर चढ जाते है और इसे शुभ ही माना जाता है। इतने अधिक चूहे होने के कारण करणीजी को चूहों वाली देवी भी कहते हैं। इतने सारे चूहे और खाने को भरपूर माल मिष्ठान्न होने के बावजूद मुझे सारे के सारे चूहे मडीयल, रेगते हुए चलने वाले, मांदे और खून से ऐसे सने लगे जैसे जगह-जगह से टीच दिए गये है।
प्रत्येक की पूछ के नीचे निकली मोटी गाठ उनके लिए चलना मुश्किल किए हुए थी और चूहे ऐसे लग रहे थे जैसे तेल से भीगे हुए है। एक भी चूहा मुझे मस्त प्रफुल्ल नहीं दिखाई दिया। मैंने वहाँ सेवारत लोगों से पूछा भी पर कोई मुझे सन्तुष्ट नहीं कर सका तब मैने लोक देवता कल्लाजी का स्मरण किया| उन्होंने अपने सेवक सरजुदास के शरीर मे प्रविष्ट हो इस रहस्य की गुत्थी सुलझाते हुए बताया कि नेहडी के वहां अचानक कानजी ने आक्रमण कर दिया तब उससे भयभीत हो करणीजी के साथ रह रहे सारे चारण भागते बने।
उन्हें भागते देख करणीजी ने उन्हें जोश दिलाते हुए कहा भी कि, 'ऊंदरा री नाई क्यूं भागरिया हो?' (चूहों की तरह क्यो भाग रहे हो) पर वे चलते बने। इधर करणीजी ने कानजी को बुरी तरह परास्त कर दिया तब वे सारे चारण आ उपस्थित हुए और पछताने लगे, करणीजी ने उन्हे कायर कहते हुए चूहा बनने का श्राप दे दिया। मन्दिर मे जो चूहे हैं, वे ही सारे चारण हैं इनकी कोई अन्य गति नही हुई।
एक चूहा मरने के बाद भी चूहा ही बनता है, देवी आज भी इन पर कुपित है जब देवी का रोष उतरेगा तब इनकी सुगति होगी। देवी के साथ रहने वाले होने के कारण देवी ने उन चारणों को चूहे तो बना दिए मगर खाने पीने और रहने में उन्हें किसी प्रकार की कमी नहीं आने दी। इन चूहों में सफेद चूहा कावा यह देवी का प्रतीक माना जाता है| इसके दर्शन होना बडा मगलकारी मानाजाता है। यह बडा मस्त प्रफुल्ल है। दर्शनाथी जो भी आता है, चार-चार छह-छह घण्टा प्रतीक्षा करता रहता है. पर कावा के दर्शन करके ही लौटता है। यही सुना कि करणीजी का एक रूप सफेद चील हे जो इसके दग्सण कर लेता है वह तो बडा ही भाग्यशाली माना जाता है। देवी के चूहे बड़े पवित्र माने जाते है। इनसे कभी कोई बीमागे नहीं फैली। जहा चूहा से प्लेग फैलता है, वहां इन चूहों का चरणामृत पी कर प्लेग से ग्रमित सैकडों आदमी मौत के मुह में जाने से बच सके। यहां के देवी भक्त अमरसिंह चारण ने बताया कि वि स १९७५ में प्लेग के कारण गाव खाली हो गये तब सैकड़ों लोगों ने यहा आकर बसेरा लिया और चूहो का अमृत जल पी कर अपने को चंगा किया।
करणी जी की इष्टदेवी तेमडाजी थी। एक लकडी की बनी पेटी में इन्हें रखकर करणीजी प्रतिदिन इनकी सेवापूजा करती थीं। देशनोक में तेमडाजी की मदरिया में यह पेटी आज भी रखी हुई है। मुझे इसके दर्शनों का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। करणीजी की मूर्ति जैसलमेर के पीले पट्टी पत्थर पर बनी हुई हैं। इसे नहीं के एक अन्धे खाती ने खोदकर बनाई। इसका नाम बना था। करणीजी ने इसे बनाने का सपना दिया था।
इसे बनाने में तीन माह लगे। गुम्भारे में इसकी स्थापना संवत् १५९५ चैत्रशुक्ला चतुर्दशी को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुई। गुम्भारा वि. सं.की १५९४ चैत्र कृष्णा द्वितीया को करणीजी ने अपने स्वर्गवास के 5 वर्ष पूर्व बनाया। २१ माह गर्भवास कर १५० बरस जीने वाली जोगणी करणी आज भी उतनी ही शक्तिशाली बनी हुई है जिसकी धाम दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। देवी उन सब पर रीझती है जो सच्चे मन से उसे राजी कर लेता है।