जयमल का पुत्र रूपसिंह भी 'यथा वाप तथा बेटा' कहावत चरितार्थ वारवाला था। वह बडा ज्ञानी भी था। चित्तौड़ की लड़ाई में जब गोले समान हो गये तब माय हार स्वीकारने के उसने वहीं की चट्टानों से पत्थर के मजबूत गोले नैयार करवाये ओर उनका उपयोग करना शुरु किया। इन गोलो का असर भी लोह के गोलों सा ही प्रभावी रहा। पत्थर के ये गोले 'सवामणी गोले' के नाम से प्रसिद्ध हैं जो आज भी मिले पर यत्र तत्र देखने को मिलते है।
एक दिन युद्ध के दौरान जब रूपसिंह ने तोप चढ़ाई और दुश्मन की ओर झाक कर देखा तो सामने से एक ऐसा गोला आलगा जिससे रूपसिंह का सिर अलग हो गया और आते बाहर निकल आई परन्तु रूपसिंह ने हिम्मत नहीं हारी और आखिरी दम नक जौहर दिखाता रहा। लाखोटिया बारी के वहां हमें रूपसिंह का पत्थर का बना बडा ही भारी किन्तु कलात्मक सिर मिला जिसे हमने सिन्दूर माली पन्ना लगाकर धूप ध्यान के साथ वहीं प्रतिष्ठित कर दिया।