चित्तौड का इतिहाम रणमलों और रणबाकुरो से भरा पडा है। एक से एक बढ़ चढ कर वर और वीरागनाए हुई है। सौलह हजार नारिया तो अकेले जौहर कुड मे ही अपना जौहर दिखा गई फिर बीस हजार दासियों ने अग्नि के अभाव में कटार खा-खाकर अपना उन्सर्ग किया, मगर किसी दुश्मन की छाया तक अपने ऊपर नहीं पडने दी। यही हाल पुरुषों का रहा। पत्ताजी ने तो दुश्मन के हाथों अपने प्राण खोने की बजाय अपने ही विश्वस्त हाथी से मौत मागी जिसने अपने पांव से उनका काम तमाम कर दिया।
राणा कुभा ने अपनी विजय पर विजय स्तभ बनवाया तो हमीर ने कीर्तिस्तम्भ का निर्माण कराया। लेकिन इसके मूल में शाह छोगमल थे। इस बनिये ने अपना अर्जित किया सारा धन कीर्तिस्तम्भ में लगा दिया। छोगमल पक्के जैनी थे जिन्होंने सदा ही पुण्य का कार्य किया । पाप से डरने के खातिर कभी मब्जी तक नहीं काटी, पर जब कीर्तिस्तम्भ के पास वाले मदिर को मुसलमानों ने घेर लिया तो छोगमल का वीरत्व जाग उठा। उन्होंने अपने हाथ में तलवार धारण की और देखते-देखते तीनसौ का सफाया कर दिया। ऐसे ही बांके साईदास, ईसरदास और चीसमसिंह थे। इन तीनों ने मिलकर पचास हजार दुश्मनों को मौत के घाट उतारे।