इतिहास को तोड़ मरोडकर उसे अपने अन्दाज से प्रस्तुत करने की हमारी आदत बहुत पुरानी है। बडेरों ने जो कुछ लिख दिया उसे उसी रूप में स्वीकार कर 'बड़ी हुकम कहने वालों ने बडा अनर्थ भी किया। नतीजा यह हुआ कि बहुत सारा अमलो इतिहास इति बनकर रह गया और उसक ह्रास किंवा हास ही अधिक हुआ। इस झमेले में सर्वाधिक लू पुराने खंडहरो, महलों, हवेलियों को लगी। इसीलिए ये हमें बटे रहस्य रोमाच भरे अजूबे और अद्भुत तो लगते हैं पर सही जानकारी के अभाव में भ्रमित करत और भटकन देते भी लगते है। इतिहास जहा मौन होता है, लोक सस्कृति वहा मुखरित होती है।
लोक सस्कार का इतिहास किसी काल-अकाल का हनन नहीं होता। उसकी लिखावट किन्हीं पट्टो परवानों पर नहीं होकर लोक के हिये पर होती है। गीत गाथाओं तथा कथा वाताओं द्वारा पीढी दर पीढी, कठ दर कंठ जो कथा किस्से लोक की जबर्दस्त धरोहर और जीवनधर्मी सास्कृतिक सरोकार बने हुए हैं वह क्या इतिहास नहीं है? सस्कृति नहीं है? यह लोक का इतिहास, मात्र पढने या देखने की वस्तु नहीं होता। इसके साथ कई काल और शताब्दियों के लोकमानस की जीवन गंगा प्रवाहित होती मिलती है।
स्वर, ताल, लय और नृत्य नाटय की लोकानुरंजनी यह विरासत किसी की वैयक्तिक थाती नहीं होती। पूरा देश काल समाज उसके साथ जुडा होता है। वह सर्वजन की, सर्वकाल की प्राचीन होती हुई भी, नित नवीन लगने वाली होती है, इसलिए वह शाश्वत है। मांडू की धरती का भी कुछ ऐसा ही वैभव है। माडू की धरती बहुत-बहुत पुरानी है। यहां एक-एक कर राजा हुए तो हिन्दू राजा ही हुए। मुसलमान तो बहुत बाद मे आये। अकबर यहा संवत् १७३२ में लडने आया था। वह २०० वर्ष से अधिक जीवित रहा। माडू को मदू ने बसाया। इन्हीं के नाम पर इसका माहू हुआ मदजी पाताल के गजा थे। ये कृष्ण के भी पहले हुए। पहले इन्होंने मडोवर बमाया, जोधपुर के पास। यही रावण ने इनकी लड़की मदोधरी से विवाह किया था। गवण जब अभिमानी बन गया और मंदृजी पर ही अपना आधिपत्य जमाने लगा तब मदूजी ने येसग करने की बजाय मडोवर ही छोड दिया और मांडू आ गये। यहां तथाकथित बाजबहादुर का महल मंदूजी ने ही बनवाया।
मदूजी ४११ हजार बरस के जीवित थे। पहले ये नाग थे। नाग से नर बने। बलदेव, लक्ष्मण और कृष्ण भी पहले नाग थे। नाग की उम्र एक हजार बग्स की होती है। पांच सौ बरस के बाद इनमें पख आने शुरू होते है। नाग सदा ही जहर लिये होते है जबकि सांप विषविहीन होते हैं। मदी बडे दानी थे। इनके पास एक-एक लाख गायें रहती थी। हजार-हजार गार्यो का तो ये दान करते थे। गज घोडे भी इनके पास कई थे| दान से तप चलता। तप से तेज चलता। तेज से लक्ष्मी फलती। कर्ण भी ऐसा ही दानी था। जब वह स्वर्ण दान करता तो उसके पास अच्छे-अच्छे राजा और ठाकुर तक भिखारी बन दान लेने आते|
दान कभी निष्फल नहीं जाता। मांडू में तब १२ रूपया मानधन भी था। मंदिरो मे लोग धी चढाते। धी चढाने की बोली भी लगती और बोलमा भी होती। दस मन से लेकर पच्चीस मन तक तो अमूमन कोई भी श्री बढ़ाता। आज भी चढ़ाने वाले बिना किसी खोजखबर के चुपचाप मणो बध धी चढ़ाते हैं। पहले मांडू में राजा ही रहते। यह धार तक फैला हुआ था। इसी मांडू में राजा विक्रमादित्य तपे। ये और भी कई जगह तपे। वहा भी तपे जहा तांबावती नगरी बसाई। इसी ताबावती में महाकालेश्वर का प्रादुर्भाव हुआ। एक समय तांबावती में जल नहीं वरसा। तब सभी लोगों ने सामूहिक उजैणी की।
समूह भोज में शिव से अरजी की कि पानी बिना सब कुछ नष्ट हुआ जा रहा है। शिवजी रीझे। पानी बरसा। हाय हाय मिटी| अकाल-दुष्काल से छुटकारा मिला तब सबने मिलकर महाकालेश्वर की स्थापना की और उजैणी नाम दिया। वह उजैणी आज का उज्जैन बना हुआ है। मडावर देखने के बाद यह इच्छा बलवती हो गई कि माडू अवश्य देखना चाहिये। दोनों महानगरों की स्थापत्य कला और संस्कृति वैभव उस समय के जीवन धर्म और सांस्कृतिक परिवेश की पारदर्शिया देते हैं। तब से अब तक कई सत्ता पुरुष आये और गये। राजे बदले। महाराजे बदले। राज्य बदले।
संस्कृति बदली। धर्म बदला। आक्रमण अत्यान्नाा दमन अनाचार सब कुछ हुए। कई असली नकली हुए और नकली अमली मन मैले मगर धरती तो वही की वही रही इसकी मल गघ तो आज भी देखी पहचानी जा सकती है पर कौन अध्ययन अन्वेषण और परख-पहचान कर पादा है। माडू के बहुत से खंडहर आज भी अबोले है। जिन नामों से ये पहबान दिये जा रहे हैं वह थोपी हुई कहानी है। मूल इतिहास किस्से कहानी कथन कुछ और ही है। समय जो बलवान बनकर आता है वह सबकी छाती पर चढकर अपना शोर्य स्थापित कर देता है।
ऐसी स्थिति में सत्य जितना चमकदार होता है उतना ही धुंधला दिया जाता है। आज तो सबके सब महलों खंडहरों पर मुगल संस्कृति का मुलम्मा चढा हुआ अशर्फी महल, हिंडोला महल, जहाज महल, रूपमती महल, दाई महल, लोहानी द्वार, होशंगशाह का मकबरा सबके सब असलीयत से कोसों दूर है । किसी समय यहा नौ लाख जैनी और सात सौ के करीब जैन मंदिर थे। आज सारे मदिर मस्जिद बने हए है।
५ नवम्बर १९८५ को पहली बार माडू की माटी का स्पर्श किया। साथ में थे लोक देवता कल्लाजी के अनन्य सेवक सरजुदासजी और डॉ. सुधा गुप्ता को बर में भी हमारा यही साथ था। माडू घूमते सहज ही में एक गाईड मिल गया, जिसने अपने को आदिम कहा। वह आदिम आदिवासी ही था । वह आधुनिक गाइड नहीं था। उसी धरती का जाया जन्मा था। यहीं उसकी तीन-चार पीढ़ियां गुजरी थीं ज्यादा भी गुजर्ग होंगी। उसने हमें वे सारे महल खंडहर दिखाये। उनके रहस्य रोमांच भरे अन्तर किस्से बताये। हम चुपचाप उनहें सुन अपनी आंखे विस्फारित कर चारों ओर निहारते रहे। खडहरों की अन्त:ध्वनियों में अपने अन्तर को गुजाते रहे..!! चकछक होते रहे..! यह बड़ा अचरज ही रहा कि 'लोहनीद्वार' के नाम से यहां कोई द्वार नहीं है बल्कि वे तो गुफाएं है - पाडवों की गुफाए।
पांडवों ने ही इन्हें बनाई। यहीं उन्होंने अज्ञातवास किया था। भील मीणे बनकर रहे थे। कुती भी रही उनके साथ। पानी गुफाओं में भी रिस रहा है। नीलम के पहाड तोड फोड कर कैसे कितनी गुफाएं बनाई होंगी। कितना समय लगा होगा। कितनी सख्त और ठोस गुफाएं हैं ये और आसपास फैले पहाड़। नीचे निर्जन वन गहरा। पहाड़ में पत्थर फोडकर उगते केल वृक्ष। कौन देखता है इन्हें यहा। कौन पानी देता है। पांडवों की तपस्या और यज्ञ का फल कि आज भी यह भूमि अपने तप का फल दे रही है।
हिममानव: पांडू के साथ कुती हमेशा ही रही तब माहू की बस्ती इन गुफाओं से दूर थी कती के पति शतमगा मालपोतो माह में मौजूद है सिहारान अनीसी चोला बदल लिया। अब जो हिममानव कहलाते हैं, वे ये ही पाडव है। द्रोपटी भी इनके साथ है। सत्र अभी भी नएम्यान है । ये सत है सत दस-दसावा की तपस्या करते है। फिर इन पाडवों को तो अभी ढाई हजार बरस मात्र हा चिपाडा हवाभक्षी है। फल खाते है। पाप से सदा दूर रहते है। हिमालय में तो सदा ही पापनाशिनी गगा का प्रभाव है। प्रायश्चित के लिए ये वहा गये तो अमर हो गये।
ये हिममानव ग्यारह साढा ग्यारह हाथ के है। इनकी वाणी तब की ही वाणी है जिसे कोई आज का मनुष्य नहीं समझ सकता। पाप की छाया तक इन्हें नहीं लग पाये इसीलिए ये मनुष्य में सदा दूर रहते है और उसे देखते ही भाग जाते हैं। ऐसे सत हमारे देश मे अन्यत्र भी तप रहे है।
गजस्थान में बांसवाड़ा के पहाड़ों में कोई तीन हजार बरस पुराना एक सत ऐसा है जिसके एक टांग ऊंट की है और एक मानव की है। गुफाओं के पास एक लोहरभ जमीं में गड़ा हुआ है। यह खंभ आल्हा ऊदल जबताइन आप अपने साथ ला पे थे। उसके सहारे रस्सा बांध तोपें ऊपर चढाई गई थी। नोखभ यह और लाच गये| ये महुआ से लाये गये। गुफाओं के ऊपर का पूरा भाग खडहरोकाभव लिये है। यहां एक सरकारी बगला बनवाया गया जो ज्यों ज्यो बनता रहा, उजाड़ना रहा। यहां यह सुना गया कि कोई अदृश्य आत्मा ऐसी है जो कुछ भी होने नहीं देती है। भालू का सर्वाधिक आकर्षण बाजबहादुर और रूपमती के तथाकथित महल है। कहा जाता है कि दोनों का अनन्य प्रेम आज भी यहां वातानुकूलित है। रूपमती की सगीत लहरी में सुधबुध खोया बाजबहादुर आज भी कई रसिकों को प्रणय में आकठ डूबने का आलंबन दे जाता है। बाजबहादुर के महल, चाहे वे जनाना हों या मरदाना, अपने स्थापत्य में कितने वैभव पूर्ण रहे होंगे।
उनके गोखड़े, कांच का काम और पच्चीकारी देख तम का शाही जीवन और उसे जुड़ी कला सांस्कृतिक रूचियों का पता लगाया जा सकता है। पर बाजबहादुर कौन था? क्या था? किसने बनाया उसको? किसने अजन्मा भारत किया और राजपूत बालकी को लेकर भाग गये तो नाहरसिंह को गुस्सा आया । कलस्वरूप वह एक मुसलमान कन्या का अपहरण कर माडू चला गया । यही कन्या उसाना थी। नाहरसिह ने ही तब नर्मदा व सूर्यदर्शन के लिए रूपमती का महल बनवाया था । मानव उजड चुका था। जयपुर से जो मुसलमान राजपूत बालकी को ले भागा, रूक्साना उस मुसलमान की बहिन थी।
नाहरसिह इस समय ६३ वर्ष का था जबकि रूक्साना केवल २३ वर्ष की थी। नाहरसिह की मृत्यु के बाद बाजबहादुर रूक्साना के सम्पर्क में आया और उसे हिन्द कन्या घोषित कर उसका नाम रूफाली कर दिया। इस समय रूफाली ६० बरस की थी। नाहरसिंह की मृत्यु के बाद रूक्साना जब विधवा हो गई तब उसने अपनी जाति के लोगो को बुलाया। इस बुलावे में बाजबहादुर भी आया। दोनों के बीच प्रेम हो गया। इन्होंने गाय का मांस खाना शुरू कर दिया। जिन हिन्दुओं ने रूक्साना का साथ दिया व मुसलमान हो गये और जो साथ नहीं देना चाहते थे, वे भागने बने। इस प्रकार मुसलमानों का आधिपत्य हो गया।
मूसल से मुसलमान बने: इन मुसलमानों का उद्भव मूसल से हुआ। मूसल से मुसल्ल बना आर होते-होते मुसलमान हो गया। बैलों के गले में जो खूटी डाली आती है वह मूसल कहलाती है। असल में, मालवा में कोई वीर रहा नही। सभी डरपोक थे इसीलिए नाहरसिंह ने माडू जाकर अपना झडा गाड़ दिया। रूफाली ने मरते दम तक अपना भेद किसी को नहीं दिया। अपने कुल के लोगों को भी यह भनक नही पडने दी कि वह मुसलमान है। बाजबहादुर अल्लाउद्दीन खिलजी के बाद हुआ| जैसे रूपमती, रूपमती नहीं थी, वैसे ही यहां का रूपमती का महल भी कहीं से महल होने का आभास नहीं देता है।
एक शाही नहान घर से भिन्न यह कुछ नहीं है पर प्रारम्भ में जिस नाम से जो कुछ उछाल दिया गया, वही नाम चल पड़ा ! पर्यटक को जो कुछ कहा जाता है, उसे स्वीकार कर लेता है। और इस तरह असलियत से कहीं परे नकली चीजों का पहाड बनता रहता है। खंडहरों की खोज करना कोई मामूली बात नहीं। दूसरे दिन रूपमती के इस महल तक पहुंचने में दिन की एक बज गई। उस दिन धूप में हम महल की छतरी से चारों ओर दूर दूर तक अपनी निगाहें माईम माननमा 'दिशा' या शादी कर कहीं जाने, नहीं जाने की परम्परा हमारे देश मे बड़ी मी पनाविनाशूल टालकर ही लोग घर से बाहर जाने के लिए पांव न ह नाम के ला तो दिशाशूल सबके आडे आता ही अ नास उपयर आन के लिए सोमवार या फिर गुरुवार ही शुभ रहार: विशाल लग होते है।
गर मेमनी माना में पेट की बहार है। ये पेड बड़े घेरघुमेर और अपनी शामिलाको पू. पहबान देने वाले हैं। इनके फल ही फल सब ओर लटके मिलते है। इस पंडाल माम. तास-जीस फीट की मोटाई लिये मिलेंगे। इसका फल कई दवाइयों में बड़ा भाग है! हमें गोरखजी की आमली भी कहते हैं| राजा भतृहरि ने विगला काही कर दिया था।
यह इमली के पाच-पांच हजार बरस पुराने पेड़ भी कहे कुन मोटने समय रास्ते में मणिपुष्प का झाड़ देखा। इसके फूलों से श: सुभ मारी थी। यात माकुनी नागों के चढ़ाये जाते हैं। इन फूलो को ver Parror की माग गई जिसमें जो सोचा, वह सब कुछ कर दिखाया। दलमानी समाधी आदी गई। एक तो उसने सोने के कनक पुष्पी फूल चार किये पर उनमें नहीं हाससका! दूसरी, स्वर्ग के सीढी नहीं लगा सका और भोसरी, को कई र सका। बीच रास्ते में एक ओर भारतीजी की समाधि देखी। Jai भारती थे। उनकी समाधि पर मुसलमानों ने गुम्मद बना रखी है जन्दाकिनीमा है और पास में तुलसी का गधा लहलहा रहा है।
सिंहासन बत्तीसी की खोज: माम सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि सिंहासन बत्तीसी की खोज रही। राजा विक्रमादिल्य से सियासन के बारे में बहुत कुछ पढ़ने और लोक जीवन में सुनने को मिना साप के लिए मिहासन आखिर कहां स्थापित किया हुआ था, इस सबध का इतिहास आता मी रा और इससे जुड़े कहानी किस्से भी रहस्य रोमाचक ही प्रनीत होने रहे हैं। सरजुनासनी में लोकदेवता की आत्म प्रविष्ठि ने अचानक हमें उस राह पर मोड दिया जिधर जाने के लिए हम बिल्कुल तैयार नहीं थे। कारण कि उधर देखने को कुछ भी नहीं रह गया था। यह राशी लाल बंगला की तरफ लांबा तालाब नामक बस्ती बाली। हम इस बस्ती के पास वाले चार दरवाजे वाले खंडहर बने कक्ष में पहुच गये पर माधनिया घर मा लिए हम कुलतयार न हाथ।
कारण कि उधर दखन का कुछ भी नहीं रह गया था! यह स थी लाल वंगला की तरफ लांबा तालाब नामक बस्ती बाली। हम इस बस्ती के पास वाले चार दरवाजे वाले खंडहर बने कक्ष में पहुच गये|
चारों दरवाजों पर चार कडे पहरे रहते थे। जमीन में गत सिहासन तब मात्र हाथ करीब नीचे था। आज तो जमीन की मनह से छह मान आम माटी ऊपर आई हुई। इस सिंहासन को बत्तीस पुतलियां लाती थीं इसीलिए इसका सिंहासन अनीसरी' नाम पडा। राजा इस सिहासन पर बैठकर न्याय करता! यहां मनुष्य गति (गतिका ही नही, बत्तीस गति का न्याय होता । नाग लोक तक के जीन्न यहा आकर न्याय पाते। पुतलियां सत-असत का पता लगाकर राजा को देनी और गजा तदनुसार न्याय करना। इसमे तनिक भी किसी के साथ अन्याय की गुंजाइश नहीं रहती। यह सिंहासन बाईस माणी सोने यानी २६४ मन का था। इसे हासिद्धि ने योग माया से बनवाया था| हरसिद्धि के बाहुबली नाम का लडका था पर बहादुर होते हुए भी इसमें न्यायिक बुद्धि नहीं थी। राजा विक्रम के बाद बड़े-बड़े राजा इस सिहास के लिए दौडे पर यह किसी के हाथ नहीं आया। इसे तथा पुतलियों को स्थिर कर दिया गया। हमारे लिए यह समय बड़ा ही विचित्र आनंद अनुभव का था 1 कई मार्ग कल्पनाओं भे हम खो गये। राजा विक्रम और पुतलियों के कई चित्र हमारे मन मस्तिष्क को कुरेदने रहे। हमने तब बत्तीस पुतलियो के नाम जानने चाहे।
कल्लाजी ने सिंहासन स्थल पर बैठकर नाम गिनाने शुरू किये -
- रत्नमंजरी
- चित्ररेखा
- रतिनीमा
- चन्द्रकला
- लीलावती
- कामकन्दला
- कामादी
- पुष्पावती
- मधुमालती
- प्रभावती
- पद्मावती
- कीर्तिमती
- त्रिलोचनी
- त्रिलोकी
- अनूपवती
- सुन्दरवती
- सत्यवती
- रूपरेखा
- तारा
- चन्द्रज्योति
- अनुरोधवती
- अनुपरेखा
- करूणावती
- चित्रकला
- जयलक्ष्मी
- विद्यावती
- जगज्योति
- मनमोहनी
- वैदेहा
- रूपवती
- कौशल्या
- किलंकी
मांडू के कई किस्से बडे बाके और रस फांके हैं पर कौन विश्वास करने वाला है।