माँ जगदम्बा का युद्ध-वरदान: जौहर में अगणित नारियों की बलि देने के बाद कलाजी का हृदय इतना दचित हा गया कि उनका युद्ध करने का मन ही न रहा तब वे अपनी कुल देवी नागणेचिया' की आराधना में लग गये और सुध ही भूल गये। सातवें दिन गुरु भैरव की विशेष कृपा से देवी जगदम्बा ने दर्शन दिये और वरदान दिया,
“युद्ध में तेरी कभी पराजय नहीं होगी। जो भी शत्रु तेरे सम्मुख आयेगा वह मृत्यु को प्राप्त होगा या फिर भाग जायेगा। ने पर पीछे से कोई वार करने की हिम्मत नहीं करेगा पर तू पीछे मुड़कर मत देखना। यदि कभी देख लिया तो विजय तेरे हाथों से निकल जायेगी।”
देवी के इस वरदान से कल्लाजी में पुनः शक्ति का सन्चय हुआ और वे युद्ध भूनि में आ डटे रहे|
मीराबाई का आशिष: इस समय मीरां चित्तौड़ में ही निवास कर रही थी । अपने भक्तिभाव में तल्लीन रहने के कारण दुश्मन भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सके। कल्लाजी अपनी भुआ मीराबाई से इकतीस वर्ष बड़े थे। चित्तौड़ में रहते समय कल्लाजी अपनी भुआ तथा फूफा भोजराज से यदाकदा मिलते रहते। मीरां को तब्ब राणाजी द्वारा जो यातना पहुंचाई जाती उससे कल्लाजी पूर्णत: भिन्न रहते परन्तु वे क्या कर सकते थे| वे जानते थे कि भुआ की कोई गलती नहीं है मगर राणा को कहने की उनकी हिम्मत भी नहीं होती। पहुंच भी नहीं थी। यदि कुछ कहते तो छोटे मुंह बड़ी बात होती। फिर कल्लाजी राणाजी के नौकर नहीं होकर काका जयमल के चाकर थे।
आखरी बार जब कल्लाजी का मीराबाई से मिलना हुआ तब मीरा ने उनके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा कि जब तक जीवित रहो तब तक अपनी राजपूती को मत खोना। भुआ के इस कथन का अन्त तक कल्लाजी ने अक्षरश: पालन किया और आज भी कर रहे है।
पेमला डाकू को पछाडा: मेवाड़-महाराणा उदयसिंह के समय पेमला हाकूबा उपद्रवी था यह जाति से भील था| वह जनता जनार्दन को परेशान नही करता थ| लोहा लेने के लिए कई वीरों को भेजा पर कोई भी इसे परास्त नहीं कर सका। अन्त में यह काम कल्लाजी को सौंपा। कल्लाजी अपने लीले घोडे पर सवार हो पेमला से युद्ध करने चल पडे। भोराईगढ और टोकरगढ पेमला के अधीन थे। कल्लाजी शिवगढ पहुचे। वहां एक महुए के पेड़ के नीचे विश्राम कर रहे थे कि गजकुमारी कृष्णा की निगाह उन पर पडी। कृष्णा शिवगढ़ के ठाकुर कृष्णदत्त की लडकी थी। उस समय महलों में वह और उसकी दासी के अलावा और कोई नहीं था। कृष्णा ने दासी को भेजकर कल्लाजी और उनके उधर आने के संबंध में जानकारी मगवाई।
दासी ने जाकर कल्लाजी से पूछताछ की और महलों मे चलने को कहा। कल्लाजी ने बताया कि पेमला ऐसा कौनसा बडा भारी डाकू बना हुआ है जो सबको परेशान किये है। महाराणा ने उसका सफाया करने के लिए उन्हें भेजा है अत: वे सबसे पहले यही काम करेंगे। कृष्णा ने जब यह बात सुनी तो कल्लाजी के साहस और अतुल पराक्रम पर मुग्ध हो गई। उसने मरदाना वेश धारण किया और कल्लाजी के पीछे-पीछे दूसरे रास्ते से पेमला से लड़ने के लिए चल पड़ी। वहां जाकर पेमला को ललकारा। दोनो ओर से लडाई छिड गई। अन्त में कृष्णा ने अपने पराक्रम से पेमला का काम तमाम कर दिया।