कृष्णा से मिलन: कल्लाजी ज्यों ही वहा पहुचे कि कृष्णा ने अपनी तलवार की नोक पर उठाये पेमला का सिर उनके चरणों में रख दिया। कल्लाजी उस वीर की बहादुरी से बड़े प्रभावित हुए। शाबाशी दी और परिचय पूछा। उसने कहा-
"मैं पुरूष नहीं होकर नारी हू। शिवगढ के ठाकुर कृष्णदत्त चौहान की पुत्री कृष्णा हू। जब आप शिवगढ़ में महुए के पेड के नीचे विश्राम कर रहे थे तब मैंने ही तो अपनी दासी को आपके पास भेजा था। आज के दिन आप हमारे मेहमान बनिये और शिवगढ़ में ही विश्राम करिये।"
कल्लाजी राजकुमारी की असीम वीरता और अद्भुत शूर वीरता से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने कहा - अभी तो मुझे बहुत जल्दी ही लौटना है। मैं फिर कभी अवश्य आऊंगा। कृष्णा यह सुन उनसे लिपट गई और बोली -
"आपको जब से मैंने अपने महलो से देखा है तब से ही मैं तो आप पर मोहित हो चुकी हूं और मन से आपको अपना स्वामी मान चुकी है पेमला को मौत के घाट उतारने का बल और साहस भी मैने आपसे ही पाया है नाथ...! आप मुझे इस तरह छोडकर कैसे जा सकते हैं? "
कृष्णा ने यह कह बांडे की रास पकड ली। कल्लाजी ने उसके हाथ पर अपना हाथ रख उसे अपने हदय से लगाया और वचन दिया कि
"मरते-जिन्दे रहते किसी भी हालत में एक बार अवश्य आकर मिलूंगा।"
यह कह वे वहा से चल पडे।
महाराणा द्वारा सम्मान: पेमला का खात्मा करने पर महाराणा इतने प्रसन्न हुए कि टोकरगढ़ और भोगईगढ़ ही नहीं अपितु सारा छप्पन परगना ही कल्लाजी को बख्शीश कर दिया। पेमला का काम तमाम कर कल्लाजी चित्तौड लौटे तो अपार मुगल सेना पडाव डाले थी। जयमल को कल्लाजी मिले जैसे बहुत बड़ा सहारा मिल गया। सुबह होते ही घमासान लडाई छिड गई| सेना के तीन भाग थे जिन्हें जयमल, पना तथा कल्लाजी सभाल रहे थे।
अकबर द्वारा धोखे से जयमल पर वार: कई दिन युद्ध चला मगर अकबर को विजयश्री हाथ नहीं लगी। वह निराश हो गया। एक रात्रि जब जयमल लाखोटिया बारी के वहां किले की दीवाल चुनवा रहे थे| तब धोखे से अकबर ने अपनी संग्राम नामक बंदूक से वार किया जिससे उनका एक पाव गडा हो गया। वहीं पास की एक चट्टान पर उन्हें सुला दिया गया जिस पर आज भी खून के निशान देखने को मिलते हैं।