सिर विहीन कल्लाजी चले कृष्णा से मिलने: कल्लाजी को दिये गये वचन का निर्वाह करना था चित्तौड़ से कल्लाजी चले तो चौईस यवन उनके पीछे हो लिये। गस्ते में खदेड़ते-खटेटते कदाज में इकीस सिर कलम कर दिये। तीन बचे रहे जिन्होंने सलुम्बर से पन्द्रह किलोमीटर आगे तक माजी को नहीं छोड़ा। यहां आकर एक जगह खेजड़ी के पास कालाजी नेशन का काम तमाम कर दिया। इस समय कल्लाजी प्यास से बुरी तरह मरे जा रहे थे पर बहा कान उनकी प्यास बुझाता। खेजडी से कल्लाजी की यह दशा देखी नहीं गई। यह द्रवित हुई और बर्ग जिसमें कल्लाजी के धड पर पानी की बूदे गिरी। कल्लाजी तुम हुए और वहीं उनके प्राप पावत उड गये।
कृष्णा को देवी का स्वप्न: देवी ने कृष्णा को स्वप्न दिया तदनुसार कृष्णा अपनी दासी चम्पा को ले छकड़े में बैठ महल से निकल पड़ी। आकर देखा तो सिर विहीन कल्लाजी रोजडी के नीचे निष्प्राण पड़े थे। क्षण भर को कृष्णा असमजस में पड़ गई
“क्या यही ऋल्लाजी हैं? सिर के बिना धड के साथ कैसे सती होऊ?”
आकुल-व्याकुल कृष्णा बेचैन हो गई। उसने मन ही मन मां जगदम्बा का सुमिरण किया। सुमिरण करते ही देवी प्रगट हुई और कृष्णा के हाथों में कल्लाजी का सिर दिया। अब क्या था। कृष्णा व चम्पा ने मिलकर रखेजड़ी के नीचे चिता तैयार की।
कृष्णा द्वारा चिता में अपनी आहुति देना: चिता तैयार हो गई। कृष्णा ज्योंही अग्नि-प्रवेश करने जा रही थी कि अचानक उसमे विचार आया कि स्वामी का शरीर खण्डित रूप में है तो क्यों न मैं भी खण्डित रूप में ही सती होऊ। यह सोच तलवार से उसने अपने हाथ-पांव के चौईस टुकड़े कर उनकी आहुति दी और अन्त में अपने को विता भेंट कर दिया।
कल्लाजी-कृष्णाजी का सनातन संबंध: कल्लाजी ने कृष्णा को दिये गये वचन का अन्ततः पालन किया। उनके मन में एक यह पीड अवश्य रह गई कि काका जयमल की मृत्यु के बाद वे उनकी देखभाल नहीं कर पाये। जरणी ने उनके वचन की रक्षा करते हुए उन्हें तत्काल भागने का आदेश दिया। कृष्णा-कल्लाजी का यह सबध उनके निधन के बाद आज भी सनातन है। जहा- जहां भी कल्लाजी की गादी लगती है, वहां दो जोत जलाई जाती है। एक कल्लाजी की और दूसरी कृष्णाजी की। इनमें कृष्णाजी की जोत स्वतः छोटी हो जाती है जबकि कलानी की अपेक्षाकृत बड़ी रहकर नलती रहती है| सती योगासरा अंगाना कृष्णा जहा सती हुई वहां एक दिया गया यह चबुतरा यहा आज भी बना स पाम ही खेजड़ी का वृक्ष भी खडा है|
मान और देवी जगदम्बा-कालका व की प्रतिमाएं हैं। दूसरी ओर कल्लाजी का धारा सत्र के प्रथम रविवार को बड़ा भारी मेला मासु इकारे होते हैं। मेले में आने वाला प्रत्येक या सगी से भरे काढावे में छोड़ दिया जाता है। जब २१-१४ से निकाला जाना है। कहते है मी ने उनकी आत्मा को ऊपर नहीं जाने दिया गत के कल्याण का दायित्व सौंपा। काकी काटेर बड़ा चमत्कारी था। तब मेले में कल्लाजी पल के कंधे पर बिराज कर सबको दर्शन देते थे।