गजस्थान के आदिवासी गरासियों का देश ‘कुंवारों का देश' कहलाता है। आबू पर्वत के पूर्व में फैली पहाड़ियों में चौइस गांव फैले हुए है। इन गाँवों का यह क्षेत्र भाखरपट्टा कहलाता है| इस पट्टे का सबसे बड़ा गांव जाम्बुडी है। इसी गांव में इन गरासियों का सबसे बड़ा आदमी “पटेल” रहता है। यह पटेल ही इनका राजा होता है। इसी का हुकम चलता है। फरमान चलता है। न्याय चलता है। सजा चलती है। सजा में पांवों में ग्योझाबेट्टी डालना, जेल देना तक रहा। कोठरियो के अवशेष तो आज भी देखे जा सकते हैं। पटेल परम्परागत पीढ़ी दर पीढी बनता आ रहा है। वर्तमान पटेल लालजी है।
लालजी से कई जगह मिलना हुआ। भीलवाड़ा गैर समारोह मे उदयपुर लोकानुरंजन मेले में। गरासियों के ही सबसे बडे मेले सियावा में तो कभी और प्रसंगों पर भी सब जगह लालजी अपने गरासिया कलाकारों नर्तक नर्तकियों के साथ अपनी सर्वाधिक रंगीन और आदिम प्रस्तुतियों में। लालजी ने बताया था कि उनके बापदादों का पूरा दबदबा था। राजा तक संकट की स्थिति में उनके यहा शरण लेते थे। सिरोही दरबार ने ली थी। चारों दिशाओं में इनके चार नाके थे जो 'चौकी' कहलाते थे। आने जाने वालों की पूरी देखभाल की जाती थी। चौकसी रखी जाती थी। प्रत्येक आने वाले मुसाफिर से टैक्स वसूला जाता था जो मूडकू कहलाता था| इस “मूडकु” से उस क्षेत्र मे उस व्यक्ति की जान माल की पूरी सुरक्षा रहती थी।
गरासियों के घर आबूरोड पिंडवाड़ा वाली कोटडा तथा गोगुन्दा तहसील की पहाड़ियों में फैले हैं। इन पहाड़ियों का विस्तार गुजरात के बनासकांठा व सावरकाठा जिले तक है। इधर भी गरासियों की बस्ती है। आबू में गरासियों की उत्पत्ति हुई। इसके कई कथा किस्से हैं| बीच में युद्ध की स्थिति ऐसी आई कि इन्हें अपना देश छोड़कर जाना पहा तब इति आन ली कि जब तक आबु वापस नहीं लेंगे एक ही कान में मुरकी पहनेंगे। इस आन को पूरी निभाई। आबू वापस लिया तब ही दूसरे कान में मुरकी पहनी। पुन: अपने घर आने पर ये लोग घर आया गगया कहे गये। गरप्या शब्द गरासिया की जगह आज भी प्रचलित है जिसके मूल में यही भाव तथ्य लक्षित है।
वैसाखी पूर्णिमा को इन आदिवासियों का समूह जुड़ता है। सघ एकत्रित होता है जिसे ये 'हंग' कहते है। यह “हंग” पाच वर्ष में एक बार कभी अबाजी तो कभी आबूजी जाता है। आबू की नक्की झील इनका वह पवित्र स्थान है जहां ये अपने पूर्वजों का अस्थि विसर्जन करते है। यह नक्की झील नक्खी झील है। नख यानी नाखून से यह खोदी गई है इसलिए यह बडी पवित्र मानी जाती है। इस झील संबंधी कई किस्से इनमें प्रचलित हैं। जाम्बुडी में दोसौ घरों की बस्ती। होली पर गांव के चौगहे पर प्रत्येक घर से एक एक बल्ली लाकर गरासिया होली थडे रखेगा। घास-फूस आदि स दे कर अगा। जंगल से और भी लकड लट्ठ लायेंगे और हँसी खुशी से होली मनायेंगे। रात को दो तीन बजे तक सारा का सारा गाव निरत गीतों की गूज में आसपास दूर दूर तक के जंगल को गूंजाते देखे जाते है।
सुबह जब सारे लक्कड जलकर तेज अंगारे बन जाते है तख युवक मिलकर उन अंगारों पर खेलते कूदते मिलेंगे। इस समय ढोल के ढमाकों की ऊजगूंज सारे आकाश को एक गहराती गूजती विशेष गर्राई में उठा लेते हैं। बीस-बाईस ढोल जन्म एक साथ बज उठते हैं तब गरासियों का मगल देखते बनता है। जंगल में सचमुच का मंगल देखना हो तो जाम्बुडी चले जाइये।
होली के बाद से गरासियों के मेलों की बाढ आ जाती है। त्रयोदशी को अंबाजी के पास कोटेश्वर का मेला। अमावस्या को देलवागा के पास कोटडा कोसीना रोग पर चेतर विचितर मेला इन मेलो का पौराणिक संदर्भ है। उनके कथ उजागर करते हैं। वैसाख कृष्ण पंचमी को सियावा गांव का गाणगौर बडा मेला भरता है लगभग ढाई सौ बरसों से यह मेला लगता आ रहा है। सुरपगला गाय के भूराराम गरासिया, जो सरपंच है, ने बताया कि सियावा गांव में तीन फली है - माता का खेडा, जलैया फली और सियावा गाव फली। इन तीनों फली में ब्रांसिया डूंगाइचा तथा सिरीमिया बांसिया गौत्र के गरासिया रहते हैं। इनमें प्रतिवर्ष एक एक गौत्र के गणगौर लेते हैं।
चैत्र शुक्ला एकम को पांचयुवक और पाच युवतिया गणगौर का व्रत लेती हैं। बीस दिन तक गौर माता का अखड दीपक जलता रहता है और ये युवक युवतिया प्रतिदिन अपने सिर पर गणगौर को लेकर गाते नाचते रहते हैं। गौर के साथ ईसर भी होते है। बीस दिन तक गणगौर ईसर छोटे रहते हैं केवल लोठे मे नीमफल सहित डालिया या अन्य फूलावली लगादी जाती है वही गौर ईसर स्वरूप होता है अतिम दिन ये साक्षात् स्वरूप धारण करणे है| तब बास का खाप्वियोन के सहारे इन्हे आदम का स्वरूप दिया जाता है| फुल, पत्ते, खजूर के पत्ते और फल खजूर, आम के पत्ते, महुवा फल कि मलये बनकर गौर इसर को सजते है| संध्या को विशेष जुलूस उत्सव के साथ नाचते गाते मेले में पहुंचते है| गणगौर इसर का विवाह रचाय जाता है|
ईस मेले में प्रत्येक गरासिया-गरसियन भग लेना आपना कर्तव्य समझते है| पहादियो पहाडोंके तंग सडके रस्ते से चलकर झुंड के झुंड, हंग के हंग रात-रातभर गाते नाचते चाले आते है| आज भी इसी हुस में ये लोग आते है| तब मेले में प्रत्येक हंग को आटा दिया जाता है जिससे ये लोग रोटले बनकर खाते| अकाल कि बाड ने इनके साथ जबर्दस्त चोट की| अब उतनी फसल भी नाही होती| भूराम ने बताया तब एक किलो अनाज बोते तो एक कलासी पैदावार होती थी| एक कलासी का अर्थ दो क्विंटल के बराबर था| आज स्थिती ठीक उलटा खा गयी| एक कलासी बोते है तो एक किलो पैदा होता है|
मोर को ये आदमी पंछी मानते है| कि गीत है मोर के इनमे| एक गीत में मोर से सवाल - जवाब है| उस से पुचा जाता है कि - तुम्हारा मामा कौन है?? तब वह केहता है कि, बारह मेघ मेरे मामा है और तेरह बिजलीया मेरी मामियाँ है|
लीला मोरिया रे थारे कुणे गे तू भाणेज,
लीला मोरिया रे मेघा रो मुं भाणेज,
लीला मोरिया रे कुण है थारा मामा,
लीला मोरिया रे बारे मेघा मारा मामा,
लीला मोरिया रे कुण रे थारी मामी,
लीला मोरिया रे तेरे बिजली मारी मामी,
किस्सा है कि एक बार मोर ने गेंद उचली बारा बरस का अकाल पडा| खाने को तो क्या देखने तक को अन्न का दान नाही थ| बादालोने समझा कि मोर भी मरे अकाल का mr गया होगा लेकीन जब उन्होने उसे जिंदा पाया तो उसके धैर्य और सहनशीलता पर बडा आचरज हुआ| मोर को पुछा कि “क्या खाकर जिया होगा??”
“नाज नही था तो क्या हुआ कंकड तो थे| मै उनही को खाकर जीवित रहा| इन कंकड़ों के लिए मुझे कम मेहनत नही करनी पड़ी। कितना भटका हूं, देखो न मेरे पांव। कैसे बेडोल हो गये है नाच तक बिघड जाता है तभी तो इन्हें देख रोता हूँ”
विवाह शादियों में इन्हें बहुत खर्च करना पड़ता है। इतना खर्च कहा से लाओ। इसलिए अमूमन इनमे विवाह बहुत कम होते हैं। पर परिवार सभी वसा लेते हैं। लडका जब जवान हो जाता है तब वह अपनी हम उम्र लड़की की तलाश में रहता है| इस तलाश मे लडकी भी रहती है। दोनो के समधी भी इसमें पूरा-पूरा सहयोग करते हैं| लडकी-लडका अपनी ही जाति बिरादरी का होता है। दोनों को कोई प्रसंग हूंढकर मिला देते हैं। यो इनमें विवाह पूर्व लडकी को किसी से मिलने की पूरी आजादी है। गरासिया युवक युवती तब अपने मिलनाचार में एक दूसरे को भेंट भेंटावण देंगे। यह भेंट काच कांगसी बीदी रूमाल जैसी रोजमर्रा की जरूरत लिये होती है। जब दोनों का प्रेम पक्का हो जाता है तब वे किसी मेले में मिलने का तय कर वहां से भागने का मचल पड़ते है।
सियावा के मेले में ऐसे युगल प्रेमी सर्वाधिक उडते भागते सुने जाते हैं। लडकी को उडाकर युवा गरासिया कहीं छिपता लुकता नहीं है। वह सीधा अपने पितृगृह पहुंचता है। माता पिता सब समझ जाते हैं। बच्चा जवान हो गया है तो लड़की तो लायेगा ही। गाववाले भी इसे अछाने नहीं रहते हैं। मोट्यार ने जो कुछ किया है, उसमे सब राजी हो जाते हैं। इधर लड़की का पिता ढूढता पता लगाता वहाँ आता है। गाव के पचो को इकट्ठा करता है। पंच पंचायती बैठती है। फलाणे का लड़का फलाणे गाव की लडकी ले आया। अब जब ले ही आया और दोनों रजामन्द है तो पंच भी उस पर अपनी सही लगा देते हैं| परन्तु हर्जाने के रूप में लडके के पिता को एक निश्चित रकम लडकी के पिता को देनी होती है जो वे तय करते हैं। अमूमन यह रकम चार हजार रुपया होती है। इस प्रकार पंचो की साक्षी में मेले से उड़ा वह युवा मेल मिलाप प्रेमलीला से जीवनलाल में परिवर्तित हो जाता है। ऐसे अस्सी प्रतिशत गरासिये मिलेंगे जो इसी रूप में अपने जीवन साथी वरण करते हैं। विवाह की रस्म कहीं होती भी है तो बहुत बाद मे जब उनके सताने हो जाती है । ऐसे मौके भी आते हैं जब पिता पुत्र एक साथ शादी रचाते है। इसीलिए इनमें कहा जाता है कि ये कुंवारे होते हुए भी विवाहित होते हैं।
आबू रोड़ के ओर गांव के गरासिया संस्कृति के अध्येता मगनलाल खंडेलवाल ने बताया कि गरासियो मे महिला सर्वाधिक सुरक्षित है। एक एक गरासिया दो-दो तीन- तीन औरतें रखता है। उसके फैले हुए खेत होते हैं। भयंकर मुश्किल मुसीबत में भी वह खेत को कभी नहीं बेचेगा। अपनी औरतों को वह जुदा-जुदा खेत देकर उनकी मालकिन बना देगा। अलग रहने के लिए उन्हें झोपडी दे देगा। खेतीबाड़ी का सारा काम औरते करती हैं जो पुरुषों से अधिक श्रमशील होती हैं। फिर यदि कोई औरत बीमार हो जाती है तो सबसे पहले इसकी सूचना उसके पीहर मां बाप को भिजवानी होगी। तब उसके मा बाप उससे मिलने आयेंगे और इस बात की पूरी छानबीन करेगे कि उसका इलाज ठीक से कराया जा रहा है या नहीं।
सुसराल मे उसे किसी प्रकार का कोई कष्ट तो नहीं है। यदि किसी स्त्री की मृत्यु हो जाती है तब भी उसके पीहर अनिवार्यतः खबर भेजी जायेगी और वे आयेंगे तब ही उसकाअंतिम सस्कार किया जायेगा। मृतक के सगासोई इस बात की पूरी जाच करेंगे कि उसकी मृत्यु प्राकृतिक हुई है या किसी षडयत्र की वजह से की गई है। सहज मृत्यु नहीं होने की स्थिति में बहुत बडा झगडा खडा हो जाता है। ऐसी स्थिति मे लड़की के पीहर वाले तथा अन्य समधी तीर तलवार भाले आदि से सुसज्जित हो उन पर धावा बोल देंगे तब गाँव वाले भी उन्हे बचाने नहीं आयेंगे। इस धावे में वे घर जला देगे। मवेशी लूट ले जायेंगे। घर का धनमाल ले जायेंगे और उस पूरे गाव के लिये भी खतरा पैदा कर देंगे। इस स्थिति की पूर्व आशंका से कभी-कभी लडकी के सुसराल वाले अपना घर छोड़ अन्यत्र भागते छिपते भी सुने गये है। कदाचित समझौते के लिये पंचायत भी बैठाई गई तो आक्रमणकारियों को बात-बात पर नेग देना पडेगा।
जैसे हाथो से तीर नीचे रखवाई का नेग, कमरबघा खुलवाई का नेग, जूते खोलाई का नेग, छाया मे बैठने का नेग। ऐसे नेग पर नेग और उसके पैसे पर पैसे बढ़ते जायेंगे। यह राशि भी इतनी अधिक हो जायेगी कि उस परिवार के लिए बहुत भारी पड़ेगी। यह वैर यानी झगड़े की रकम कहलाती है जो आक्रमणकारी आपस में बाट लेते हैं। कभी-कभी वैर नहीं चुक पाता है तो उनमें अंटस बंधी रहती है। चाहे पीढ़ियां बीत जायेंगी मगर गरासिया हत्या का बदला हत्या करके ही दम लेगा। लडकी को इस बात की पूरी आजादी है कि यदि वह अपने वर्तमान पति से सतुष्ट नहीं है तो उसे छोड़कर किसी दूसरे के साथ जा सकती है। ऐसी स्थिति में पंचायत बैठती है जो दापे के रूप में नव पति से दुगुनी रकम वसूल करती है।
यह रकम लडकी के पिता तथा पूर्व पति को आधी-आधी दे दी जाती है। पंचायत का निर्णय निष्पक्ष तथा सर्वमान्य होता है। ऐसा कहा जाता है कि सरकार की अदालत में तो फिर भी कोई कसूरवान गरासिया बिना सजा के छूट जायेगा मगर अपनी अदालत-पंचायत मे तो वह हरगिज नहीं बच पायेगा। गरासिया कभी अकेला नहीं रहता। वह जहां भी जायेगा, स्त्री पुरुष दोनो होंगे। दोनों साथ-साथ नाचेंगे 'कोई त्यौहार हो चाहे मेला ठेला हाट हो चाहे हंग संघ युवक कलात्मक और गहरे रंगो मे सदैव अपने को बनी ठनी बनाये रखती हैं। उसकी पारंपारिक रंगधर्मिता और वेश विन्यास में कोई बदलाव फिलहाल नहीं आया है।
इतना सब कुछ होते हुए भी जब सब तरफ बदलाव आया है तो कहीं न कहीं ना इस जाति में भी कुछ बदलाव आया ही होगा। गरासियों के परिवारों का अध्ययन करते समय खडेलवालजी ने कुछ घर भील गरासिया के बताये। भील आदिम जाति तो है ही पर भील गरासिया नाम मेरे लिए कुछ प्रश्नवाचक बन गया था। पूछने पर उन्होंने कहा कि जैसे आजकल कही-कही जातपात के बन्धन टूटते नजर आ रहे है वैसे ही इस जाति में भी जो गरासिया भील महिला से शादी कर लेता है उसे जाति से बाहर कर दिया जाता है। फिर वह गरासिया नही कहलाकर भील गरासिया कहलाता है।
यो भी गरासिया लोग अपने को भीलों से ऊचा मानते हैं। भील गरासिया को भील लोग अपनी जाति में सहर्ष अपना लेते है। इसी तरह यदि कोई भील किसी गरासिया महिला के साथ रहने लग जाता है तो उसे भी भील गरासिया कहा जाता है। कहीं-कहीं इन्हें गमेती गरासिया भी कहते है|
इसमें कोई दो राय नहीं कि राजस्थान की आदिम जातियों में गरासिया जाति ही सर्वाधिक सम्पन्न जाति है। अकाल के भीषण से भीषण दुर्दिनों में भी यह जाति कभी घुटने नहीं टेकेगी। न कभी भीख मांगती हुई नजर आयेगी। गरासिया लोग मेहमानदारी के भी बडे आदरजीवी होते हैं। कूकडे कुत्ते तथा कबूतर एवं अन्य जंगली जानवर पालने के बडे शौकीन होते है। दिल के ये लोग राजा होते हैं। वैसे भी कई पलियों के बीच अकेला पति बना गरासिया अपने परिवार का राजा ही होता है। बांसुरी नगाडा अलगोजा इनके प्रिय वाद्य है। सारी-सारी रात नाचने गाने में भी इन्हें कभी थकान महसूस नहीं होती। थके थके से तब लगते हैं जब ये नाचना गाना छोड़ देते है।
इनका जीवन अजीब। मस्ती अजीब। मेले ठेले अजीब। घर संसार अजीब। रीतिरस्म अजीब। नाच गाना अजीब। प्रेमाचार अजीब| वैवाहिक संस्कार अजीब। सब कुछ अजीब निराला अनूठा है। हर मेले में गरासिया युवक अजीब ढंग से बना ठना खटकेदार सिणगार किये मिलेगा। अलबेला छेला मिलेगा। युवती गालों पर लाल लाल बिदियां दिये पोशाक का ही नही, आभूषणों का भी पूरा सिंगार लिये छम छमाती छकित चकित सी अपनी सखी सहेली की बांह में बांह डाले डोलती अपने को तोलती नखरा लिये दिखेगी। या फिर कमर में एक दूसरे के हाथों में हाथ लिये गाते नाचते गरासिये दिन की चिलबिलाती धूपं हो चाहे रात की छिटकी चांदनी बिना थके हारे गीतों में मग्न रहेंगी| बूढी उम्र मे कष्ट पाना इन्हें बर्दाश्त नही है।
ऐसे बूढे जो बड़े कष्टों में जीते हैं, मौत को आमन्त्रण देते है| पर मौत बुलाने पर कब आती है। ऐसी स्थिति में परिवार वाले मौत को बुलाने की मनौती लेते है। यह मनौती पहाड़ सनान कराने के रूप मे होती है। पहाड सनान का अर्थ पहाड जलाने से है। मनौती पूरी करने के रूप में तब पहाड में आग लगा दी जाती है। हमने अबाजी से लौटते समय ऐसे पहाड को अग्नि में पवित्र होते देखा। रात मे यह दृश्य एक अजीब तरह का चित्र-विस्मय दे रहा था।
गरासियों की तुलना किसी आदिम जाति से नहीं की जा कसती। ये अपने आप में बड़े निराले अनूठे और जंगल मंगल के मौजी सायबे हैं।